रीतिकाल का वर्गीकरण रीति के आधार बना कर इस प्रकार किया जा सकता है-

  1. रीतिबद्ध
  2. रीतिमुक्त
  3. रीतिसिद्ध

रीतिबद्ध-रीति के बंधन में बंधे हुए हैं अर्थात जिन्होंने रीति ग्रंथों की रचना की।लक्षण ग्रंथ लिखने वाले इन कवियों में प्रमुख है-चिंतामणि, मतिराम, देव, जसवंत सिंह, कुलपति मिश्र मंडल, सुरति मिश्र, सोमनाथ, भिखारी दास, दुलह, रघुनाथ, रसिकगोविंद, प्रताप सिंह, ग्वाल आदि।

रीतिमुक्त-इस वर्ग में वे कवि आते है जो रीति के बंधन से पूर्णतः मुक्त है अर्थात इन्होंने का व्यंग्य निर्माण करने वाले ग्रंथों, लक्षण ग्रंथों की रचना नहीं की तथा हृदय की स्वतंत्र वृतियों के आधार पर काव्य रचना की।इन कवियों में प्रमुख है- घनानंद, बोधा, आलम और ठाकुर |

रीतिसिद्ध- तीसरे वर्ग में वे कवि आते है जिन्होंने रीतिग्रंथ नहीं लिखे, किंतु रीति की उन्हें भली भांति जानकारी थी।वे रीति में पारंगत थे। उन्होंने इस जानकारी का पूरा पूरा उपयोग अपने काव्य ग्रंथों में किया। इस वर्ग के प्रतिनिधि कवि है- बिहारी | उनके एकमात्र ग्रंथ-बिहारी सतसई में रीति की जानकारी का पूरा पूरा उपयोग कवि ने किया है।इस प्रकार की नायिकाओं का उसमें समावेश है तथा विशिष्ट अलंकारों की कसौटी पर भी उनके अनेक दोहे खरे उतरते है। जब तक किसी पाठक को रीति की जानकारी नहीं होगी, तब तक वह बिहारी सतसई के अनेक दोहों का अर्थ हृदयंगम नहीं कर सकता।

रीतिकालीन काव्य को सुविधा की दृष्टि से डॉक्टर नागेंद्र ने तीन वर्गों में विभक्त किया है- (क) रीतिकालीन मुक्तकाव्य (ख) रीतिकालीन प्रबंधकाव्य (ग)रीतिकालीन नाटक।

रीतिकाल की प्रमुख प्रवृत्तियाँ

रीतिकाव्यधारा एवं रीति निरूपण

रीतिकाव्यधारा का आधार रीतिनिरूपण पद्धति पर आधारित है | अलग-अलग विद्वानों ने रीतिनिरूपण की पद्धतियों की चर्चा की है |

ड़ा० नागेन्द्र ने ग्रन्थकार पद्धति के अनुसार तीन प्रकार की श्रणियों की चर्चा की है –

  1. रीति कर्म को महत्त्व देने वाले रचनाकार– इस श्रेणी में उन रचनाकारों को रखा गया है जो काव्य के लक्षण और उदाहरण आदि की बंधी-बंधाई परिपाटी से जुड़े हुए थे | इन्होने पुराने आचार्यों के अनुसार निर्धारित लक्षण वाले ग्रन्थों की रचना की परन्तु उदाहरणों में मौलिकता नहीं रखी | इसी मौलिकता के आभाव में इनका कवित्त उभरकर नहीं आया | जैसे-जसवंत सिंह, आचार्य दूलह आदि |
  2. कवि कर्म को महत्त्व देने वाले रचनाकार-इसमें इन्होने लक्षण ग्रंथों पर ध्यान देते हुए मात्र कविताई पर विश्वास किया | इन्जैहोने काव्सेयांगों का लक्षण देना आवश्यक नहीं समझा | रीति की जानकारी का पूरा उपयोग किया गया | इन्हें ही रीतिसिद्ध कवि भी कहा जाता है |- बिहारी |
  3. रीति कर्म व कवि कर्म दोनों को महत्त्व देने वाले रचनाकार– इन्होंने काव्यांगों की परिभाषा तो दी ही साथ ही इसके लिए सरल और सहज उदाहरण भी दी | जैसे- केशव, भूषण,मतिराम आदि |

श्रृंगारिकता

रीतिकालीन कवियों का शृंगार एक और तो शास्त्रीयबंधनों से युक्त है।तो दूसरी ओर विलासी आश्रयदाताओं की प्रवृत्ति ने इसे उस सीमा तक पहुंचा दिया जहाँ यह अश्लीलता का स्पर्श करने लगा।नायक-नायिका भेद का निरुपण प्रायः इसी के अंतर्गत किया गया। वास्तव में इन कवियों को वह दरबारी वातावरण प्राप्त हुआ, जिसमें व्यक्ति की दृष्टि विलास के समस्त उपकरणों के संग्रह की और ही रहती है।नारी को उपभोग की वस्तु मानकर देखा गया। पुरुष की समस्एत चेष्कटाएं उसे एक वस्तु के रूप में ही देखती है। विलास वृद्धि की प्रधानता के कारण इनकी सौन्दर्यदृष्टि भी अंग सौष्ठव और शारीरिक बनावट बाह्य रूपाकार तक सीमित रही। आंतरिक सौंदर्य के उद्घाटन में उनकी वृत्ति नहीं थी। नारी के प्रति सामंती दृष्टि होते हुए भी कहीं कहीं स्वकीया प्रेम के दृश्य उपलब्ध हो जाते है। अन्यथा सर्वत्र परकीया प्रेम की प्रधानता है। इन कवियों ने श्रृंगार चित्रण में इन्द्रीय सुख के प्रधानता, रूपलिप्सा, भोगइच्छा एवं बाह्यसौन्दर्य की प्रधानता दिखाई पड़ती है।भक्ति काव्यधारा की श्रृंगार चेतना देह का अतिक्रमण करती है। जबकि रीतिकाव्य की शृंगारिकता देह से शुरू होकर देह के उतार-चढाव तक सीमित होती है।रीतिकाल के दरबारी परिवेश व विलासिता के कारण तत्कालीन कवियों ने रसों में मात्र श्रृंगार को ही प्रश्रय दिया हूँ। रीतिकाल के अधिकतर कवियों ने अपने काव्य में संयोग श्रृंगार का वर्णन किया जिसके पीछे उनका उद्देश्य अपने आश्रयदाताओं को भांति भांति की नायिकाओं के रूप और लावण्य के चित्रण मात्र से उत्तेजित करना था।

जैसे- अंग-अंग छवि की लपट, उपजाति जाति अछेह।खरी परियू सी लगे, भरी-भरी सी देह ।

देव, केशव और भूषण जैसे रचनाकारों ने नायिकाओं का जैसे पैमाना ही निर्धारित कर दिया हो। देव सभी नायिकाओं को कामिनी के रूप में देखते हैं तथा उनके प्रेम को मात्र वासना की दृष्टि के रूप में।देव ने आचार्यत्व के क्षेत्र में काम को न केवल परिभाषित किया, बल्कि जीवन के लिए उसे महत्वपूर्ण बनाया है। उनका नायिकाभेदी दृष्टिकोण इसी ओर संकेत करता है |

जैसे- तातै कामिनी एकै कहन- सुनन को भेद। साचै पागइ प्रेम रस मेतै मन को खेद। 

अलंकारिकता

रीतिकालीन काव्य में अलंकरण शैली की प्रधानता दिखाई देती है।उनका संपूर्ण काव्य ऐसा प्रतीत होता है जैसे कोई स्त्री विभिन्न आभूषणों से सुसज्जित होकर बैठी हो। काव्य में अलंकारों की अधिकता के कारण सहजता के स्थान पर कृत्रिमता का समावेश हो गया है और काव्य में विकृति आ गई है।रीतिकालीन कवियों के अलंकारों के प्रति मोह को देखकर ऐसा प्रतीत होता है मानो उन पर केशवदास की इस उक्ति का प्रभाव अधिक है।

जैसे- जदपि सुजाति सुलच्छनी सुबरन सरस सुवृत्त ।भूषण बिनु न बिराजई, कविता बनिता मित्त||

अर्थात जिस प्रकार सुवर्ण सुलक्षणी और सुंदर नयन-नक्शों वाली स्त्री बिना आभूषणों को अच्छी नहीं लगती।उसी प्रकार बिना अलंकारों की कविता भी अच्छी नहीं लगती।

अनुप्रास, यमक, सैलेश, उपमा, अतिशयोक्ति, विरोधाभास, असंगति, दृष्टांत आदि अलंकारों का रीतिकालीन कवियों ने प्रयोग किया है। 

रीतिकालीन कवियों के लिए अलंकारशास्त्र की जानकारी एक अनिवार्यता थी।क्योंकि इसके बिना उसे सम्मान मिलना कठिन था। परिणाम तथा इस काल में अलंकारिता खूब फली फूली। अलंकार जो कविता का साधन है, इस काल में साध्य बन गया। 

आश्रयदाताओं की प्रशंसा

रीतिकाल के अधिकांश कवि राजदरबारों में आश्रय प्राप्त था। बिहारी, देव, भूषण सूदन, केशव मतिराम आदि सभी प्रसिद्ध कवि राजदरबारों से वृत्ति प्राप्त करते थे। अतः यह स्वाभाविक था कि वे अपने आश्रयदाता की प्रशंसा में काव्य रचना करते थे |देव ने अपने आश्रयदाता भवानी सिंह की प्रशंसा में भवानी बिलास लिखा तो सूदन ने भरतपुर के राजा सुजान सिंह की प्रशंसा में सुजान चरित की रचना की। वीर रस के प्रसिद्ध कवि भूषण ने शिवाजी की प्रशंसा में शिवाजी वाणी एवं छत्रसाल बुंदेला की प्रशंसा में छत्रसाल दशक की रचना की।भूषण जैसे कुछ कवियों को यदि छोड़ दिया जाए तो रीतिकाल के अधिकांश कवियों द्वारा की गई आश्रयदाताओं की प्रशंसा अतिशयोक्तिपूर्ण है। जीविका हेतु वृत्ति पाने वाले इन कवियों के लिए आश्रयदाताओं का गुणगान करना अनचाही विवशता थी। कवियों को दरबार से बाहर करने के लिए भी षडयंत्र चलते रहते थे। अतः आश्रयदाताओं को प्रसन्न रखने के लिए इन्हें प्रयत्नशील रहना पड़ता था। स्वतः स्फूर्त काव्य रचना की प्रवृत्ति राजनीतिक जोड़ तोड़ में लीन कवियों में हो ही नहीं सकती थी। 

बहुलता और चमत्कार प्रदर्शन

रीतिकालीन कवियों में पंडित्य प्रदर्शन की जो प्रवृत्ति परिलक्षित होती है उसके कारण ये में विविध विषयक ज्ञान का समावेश करके अपनी बहुज्ञता को प्रदर्शित करते थे। बिहारी के काव्य में ज्योतिष, पुराण, आयुर्वेद, गणित, कामशास्त्र, नीति , चित्रकला आदि अनेक विषयों की जानकारी शामिल है।इसी प्रकार आयुर्वेद का ज्ञान का परिचय भी प्राप्त होता है।यमक, श्लेश, अनुप्रास जैसे शब्दालंकारों का प्रयोग भी चमत्कार प्रदर्शन हेतु रीतिकाव्य में किया गया है।

भक्ति एवं नीति

डॉक्टर नागेंद्र के अनुसार- “रीतिकाल का कोई भी कभी भक्ति भावना से रहित नहीं है। हो भी नहीं सकता था क्योंकि भक्ति उनके लिए मनोवैज्ञानिक आवश्यकता थी। भौतिक रस की उपासना करते हुए उनके विलास जर्र-जर्र मन में इतना नैतिक बल नहीं था कि भक्ति रस में अनास्था प्रकट करें अथवा सैद्धांतिक निषेध कर सके।” रीतिकाल के प्रतिनिधि कवि बिहारी की कृति सतसई में 70 दोहे भक्ति भावना के हैं। नीति संबंधी उक्तियाँ भी इन कवियों ने पर्याप्त मात्रा में लिखी है। 

नारी भावना

रीतिकालीन काव्य का केंद्र बिंदु नारी चित्रण रहा |। नारी के नखशिख चित्रण में उन्होंने अधिक रुचि दिखाई है।नारी के।कमनीय अंगों का स्थूल एवं मांसल चित्रण अंकित करते हुए उन्होंने काव्यरसिकों को उसके मनमोहक स्वरूप से परिचित कराया है।उनके समक्ष नारी का एक ही रूप था- विलासिनी प्रेमिका का | अतः अन्य पक्षों की ओर उदासीन रहे। नारी को वे भोग विलास का उपकरण मात्र मानते थे, अतः उस के अन्य रूपों, गृहिणी, माता, भगिनी, देवी आदि का चित्रण उन्होंने नहीं किया। नारी के प्रति इस एकांगी दृष्टि के कारण वे उसकी सामाजिक महत्ता और उसकी श्रद्धा समन्वित गौरवमयी मूर्ति का चित्रण करने में समर्थ नहीं हुए।

प्रकृति चित्रण

रीतिकाल में आलम्बन रूप में प्रकृति चित्रण प्रायः बहुत कम हुआ है जबकि अलंकारिक रूप में तथा उद्दीपन रूप में अधिक हुआ है।परंपरागत रूप में षडऋतु वर्णन एवं बारहमासा का चित्रण भी उपलब्ध होता है। किन्तु इसमें मौलिकता एवं नवीनता नहीं | बिहारी देव, मतिराम, भिखारी दास आदि कवियों की प्रकृति चित्रण इसी प्रकार के हैं? |बिहारी के प्रकृति चित्रण संबंधित दो दोहे देखिए-

रनित भृंग घंटावली झरित दान मधुनीर। मन्द-मन्द आवतु चलयो कुंजर कुंज समीर।

कहलाने एकत बसत अहि।मयूर मृग बाघ ।जगतु तपोवन सो कियो दीरघ दाघ निदाघ ||

प्रकृति के अनेक उपमान कमल, चन्द्रमा चातक हंस, कोयल, मेघ, पर्वत, पुरुष आदि से लेकर उन्होंने नायिका के अंग-प्रत्यंगों का सुंदर चित्रण किया है।

भाषा का प्रयोग

रीतिकालीन कवियों ने ब्रज भाषा में काव्य रचना की है।रीतिकाल में केवल ब्रज क्षेत्र के कवियों ने ही व्रजभाषा काव्य रचना नहीं की बल्कि ब्रज क्षेत्र के बाहर के हिंदी कवियों ने भी ब्रज भाषा में ही काव्य रचना की।यद्यपि बृजभाषा कवियों ने कई कई अवधि शब्दरूपों का भी प्रयोग किया है, तथापि उसमें ऐसे प्रयोग अधिक मात्रा में नहीं है। भिखारी दास ने लिखा है-

बृजभाषा हेत ब्रजवास ही न अनुमानौ ।ऐसे-ऐसे कविन की वानी हूँ सौं जानिए ||

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