बुजुर्गों की आँखें क्या कहती हैं
जब देखी खामोश आँखें बुजुएगों की
कुछ कहना कुछ बताना चाहती हो जैसे
कुछ जानना कुछ जताना चाहती हों जैसे
एक कातरता एक ठहराव कभी सागर सी गहराई दिखाई देती है जैसे
उन आँखों में जीवन की हर सच्चाई दिखती है जैसे
लगता है कुछ कह रही हैं अपने नव सृजित अंश से
इस जीवन रूपी जीव से अंकुरित हो जैसे
जीवन के हर लम्हे हर दुःख हर सुख को सहेजकर
एकचित एकाग्र हो कुछ कहती है जैसे
जिन गलियों में फिरने से फुर्सत नहीं है तुम्हें
उन गलियों की नींव राखी हैं उन्होंने
जिस बगिया में चहचहा रहे हो निरंतर
उन बागों के बागबान बनकर सींचा है उन्होंने
जिस व्यस्तता से सराबोर है नव पीढ़ी
उन व्यस्तताओं को बखूबी निभाया हो जैसे
रिश्तों को सम्भाला है प्रेम त्याग की मजबूत डोरी से
उन रिश्तों के धागों को टूटते देख रहे हों जैसे
वक्त के चक्र का लोहा मानकर अपनी अंतिम लड़ाई लड़ने वाले
प्रतिपल मौत के फरिश्तों को चुनौती देते हैं जैसे
जीवन के अंतिम दौर में जिन्दगी और मौत की जंग का वर्णन करना बड़ा कठिन है
पर उस जंग को हँसते हुए वीरता के साथ लड़ते हुए ये जाना चाहते हो जैसे
आज इन बुजुर्गों के बांटने को कितना बड़ा अनुभव है कुमार
पर नव पीढ़ी के पास सुनने की ही फुरसत ही नहीं है जैसे
जिस अनुभव को कठिनाइयों से बटोर के सहेजा हैं उन्होंने
उसको अपने साथ ही ले जाने को मजबूर हो जैसे
सब पंछी व्यस्त हैं अपने घोसलें बनाने सजाने में
इनके वर्षों के घोसलों को संभालने की सीख की किसी को जरुरत ही नहीं हो जैसे
जीवन का नियम है आदमी करके सिखने में विशवास जताता है
पुरातन में से ही नूतन का प्रादुर्भाव हो जाता है जैसे
देखकर इन फरिश्तों की आँखों की शुन्यता को गहरे समंदर की शान्ति का अहसास होता है मुझे तो
बेशुमार हीरे रत्न छिपा रखे हैं अपने अन्दर जैसे
वक्त, सुख-दुःख, अच्छाई-बुराई की भट्टी में तपकर स्वर्ण बने ये बुजुर्ग
धुल से ढके कोहिनूर की भांति न चमक रहे हो जैसे
इनकी सहनशीलता समर्पण त्याग स्नेह को देखकर
कुमार भी अपनी कलम से रच पुष्प इनको क़दमों में चढ़ाता है जैसे
लूट सको तो लुट लो मित्रो इनके आशीर्वाद की बहारों को
वरना पतझड़ बन ये खिले पुष्प एक दिन मुरझा जाएगें जैसे
कोई वीर सुपुत ही इनके इतने भारी आशीर्वाद का बोझ उठा पाएगा
मेरे जैसा पूत तो बस सिक्को से ही काम चलाएगा
इनकी देह को खुदा की पाक तस्वीर समझकर
प्रेम सेवा सम्मान के गीत गाओ हरपल
सच्चे मन से जो कह गए फलीभूत होते देर ना होगी
अंतिम सफ़र पर साथ दो ऐसे चन्दा का साथ चांदनी देती हो जैसे
अपनी खुशियों की जड़ों को इनके क़दमों में खोजो
हम हैं टहनी उस पेड़ की जिसकी जड़ों को पीढ़ियों ने अपने अनुभव से सींचा हो जैसे
फूल खिलते रहेंगे उस पेड़ पर जब तक हम संस्कारों से सींचेगे इसे
वरना हमारी उपेक्षा से ये सुख जाएगी , जगल की आग से पेड़ सुखा हो जैसे ……………….
बुजुर्गों की आँखें क्या कहती हैं
जब देखी खामोश आँखें बुजुएगों की
कुछ कहना कुछ बताना चाहती हो जैसे
कुछ जानना कुछ जताना चाहती हों जैसे
एक कातरता एक ठहराव कभी सागर सी गहराई दिखाई देती है जैसे
उन आँखों में जीवन की हर सच्चाई दिखती है जैसे
लगता है कुछ कह रही हैं अपने नव सृजित अंश से
इस जीवन रूपी जीव से अंकुरित हो जैसे
जीवन के हर लम्हे हर दुःख हर सुख को सहेजकर
एकचित एकाग्र हो कुछ कहती है जैसे
जिन गलियों में फिरने से फुर्सत नहीं है तुम्हें
उन गलियों की नींव राखी हैं उन्होंने
जिस बगिया में चहचहा रहे हो निरंतर
उन बागों के बागबान बनकर सींचा है उन्होंने
जिस व्यस्तता से सराबोर है नव पीढ़ी
उन व्यस्तताओं को बखूबी निभाया हो जैसे
रिश्तों को सम्भाला है प्रेम त्याग की मजबूत डोरी से
उन रिश्तों के धागों को टूटते देख रहे हों जैसे
वक्त के चक्र का लोहा मानकर अपनी अंतिम लड़ाई लड़ने वाले
प्रतिपल मौत के फरिश्तों को चुनौती देते हैं जैसे
जीवन के अंतिम दौर में जिन्दगी और मौत की जंग का वर्णन करना बड़ा कठिन है
पर उस जंग को हँसते हुए वीरता के साथ लड़ते हुए ये जाना चाहते हो जैसे
आज इन बुजुर्गों के बांटने को कितना बड़ा अनुभव है कुमार
पर नव पीढ़ी के पास सुनने की ही फुरसत ही नहीं है जैसे
जिस अनुभव को कठिनाइयों से बटोर के सहेजा हैं उन्होंने
उसको अपने साथ ही ले जाने को मजबूर हो जैसे
सब पंछी व्यस्त हैं अपने घोसलें बनाने सजाने में
इनके वर्षों के घोसलों को संभालने की सीख की किसी को जरुरत ही नहीं हो जैसे
जीवन का नियम है आदमी करके सिखने में विशवास जताता है
पुरातन में से ही नूतन का प्रादुर्भाव हो जाता है जैसे
देखकर इन फरिश्तों की आँखों की शुन्यता को गहरे समंदर की शान्ति का अहसास होता है मुझे तो
बेशुमार हीरे रत्न छिपा रखे हैं अपने अन्दर जैसे
वक्त, सुख-दुःख, अच्छाई-बुराई की भट्टी में तपकर स्वर्ण बने ये बुजुर्ग
धुल से ढके कोहिनूर की भांति न चमक रहे हो जैसे
इनकी सहनशीलता समर्पण त्याग स्नेह को देखकर
कुमार भी अपनी कलम से रच पुष्प इनको क़दमों में चढ़ाता है जैसे
लूट सको तो लुट लो मित्रो इनके आशीर्वाद की बहारों को
वरना पतझड़ बन ये खिले पुष्प एक दिन मुरझा जाएगें जैसे
कोई वीर सुपुत ही इनके इतने भारी आशीर्वाद का बोझ उठा पाएगा
मेरे जैसा पूत तो बस सिक्को से ही काम चलाएगा
इनकी देह को खुदा की पाक तस्वीर समझकर
प्रेम सेवा सम्मान के गीत गाओ हरपल
सच्चे मन से जो कह गए फलीभूत होते देर ना होगी
अंतिम सफ़र पर साथ दो ऐसे चन्दा का साथ चांदनी देती हो जैसे
अपनी खुशियों की जड़ों को इनके क़दमों में खोजो
हम हैं टहनी उस पेड़ की जिसकी जड़ों को पीढ़ियों ने अपने अनुभव से सींचा हो जैसे
फूल खिलते रहेंगे उस पेड़ पर जब तक हम संस्कारों से सींचेगे इसे
वरना हमारी उपेक्षा से ये सुख जाएगी , जगल की आग से पेड़ सुखा हो जैसे ……………….
द्वारा- सुखविन्द्र