घनानन्द रीतिमुक्त गांव के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। रीतिमुक्त धारा के शृंगारी कवि है।इनका जन्म 1689 ई० में और मृत्यु नादिरशाह के आक्रमण के समय 1739 ई० में हुई।ये दिल्ली के बादशाह मोहम्मदशाह के यहाँ मीर मुंशी थे और जाति के कायस्थ थे। ये सुजान नामक वेश्या से प्रेम करते थे। एक दिन दरबार के कुचक्रियों ने बादशाह से कहा कि मुंशी मीर मुंशी साहब गाते बहुत अच्छा है जब बादशाह ने इन्हें गाना सुनाने को कहा तो ये टालमटोल करने लगे। तब लोगों ने कहा कि ये इस तरह न गाएंगे यदि उनकी प्रेमिका सुजान कहे तब गाएंगे। वैश्या बुलाई गई और तब घनानन्द ने उसकी ओर मुँह करके और बादशाह की ओर पीठ करके गाना सुनाया। बादशाह इन के गाने पर तो प्रसन्न हुआ किंन्तु उनकी बेहुदगी पर इतना नाराज हुआ कि इसने उसने इन्हें शहर से बाहर निकल जाने का हुक्म दे दिया। जब उन्होंने सुजान से अपने साथ चलने को कहा तो उसने इनकार कर दिया।इस पर इन्हें वैराग्य उत्पन्न हुआ और ये वृंदावन आकर निंबार्क संप्रदाय के बेचना हो गए। नादिर शाह के आक्रमण के समय हुए कत्लेआम में ये मारे गए। लोगों ने नादिर शाह के सैनिकों से कहा कि वृंदावन में बादशाह का मीर मुंशी रहता है। उसके पास बहुत सारा माल होगा। सिपाहियों ने इन्हें जा घेरा और उनसे जर जर जर अर्थात धन, धन, धन कहा तो इन्होंने शब्द को उलटकर रहकर रज रज रज कहकर तीन मुट्ठी धूल उन पर फेंकी। सैनिकों ने क्रोध से इनका हाथ काट डाला और इनकी मृत्यु हो गई।घनानंद की कविता में सुजान शब्द का बार बार प्रयोग हुआ है, जो कहीं तो कृष्णावाची है तो कहीं सुजान नामक उस वेश्या के लिए है जो इनकी प्रेयसी थी। घनानंद के लिखे पांच ग्रंथों का पता चलता है- सुजान सागर, विरह लीला, लोकसार, रसकेलिवल्ली और कृपाकांड आचार्य शुक्ल के अनुसार इसके अतिरिक्त इनके कवित्त और सवैयों के फुटकर संग्रह भी मिलते हैं, जिनमें 150 से लेकर 400 तक छंद संकलित हैं। डॉक्टर नरेंद्र के अनुसार घनानंद के कुल उपलब्ध कवित-सवैयों की संख्या 752 और पदों की संख्या 1057 तथा दोहे-चौपाइयों की संख्या 2354 है।
घनानंद के विषय में अन्य उल्लेखनीय तथ्य इस प्रकार है-
प्रेम मार्ग का ऐसा प्रवीण और धीर पथिक तथा जम्बादानी का ऐसा दावा रखने वाला व्रजभाषा का दूसरा कभी नहीं हुआ।
भाषा पर जैसा अचूक अधिकार घनानंद का था वैसा और किसी कवि का नहीं।
घनानंद उन बिरले कवियों में से हैं, जो भाषा की लाक्षणिक पदावली की शक्ति से परिचित हैं।
आचार्य शुक्ल के अनुसार-“भाषा के लक्षक एवं व्यंजक बल की सीमा कहाँ तक है, इसकी पूरी परख इन्हीं को थी।”
उदाहरण-
अति सूधो सनेह को मारग है, जहं नेकु सयापन बांक नहीं | तहां सांचे चले तजि आपुनपौ, झिझकें कपटी जो निसांक नहीं | घनआनंद प्यारे सुजान सुनौ, इत एक तै दूसरो आंक नाही | तुम कौन सी पाटी पढ़े हौ लला, मनु लेहु पै देहु छटांक नहीं ||