जैन साहित्य (Jain Literature)

महावीर जैन जोकि तथागत बुद्ध के समकालीन माने जाते हैं , जैन धर्म के मुख्य संत माने जाते हैं जबकि इसकी स्थापन महावीर स्वामी ने की थी | बौद्धों की तरह इन्होने भी संसार के दुखों की और ध्यान दिया | सुख-दुःख बंधन जितने के कर्ण ये जिन्न या जैन कहलाए | महावीर ने अहिंसा […]

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नाथ साहित्य (Nath Sahitya)

इसका जन्म भी बौद्ध धर्म की वज्रयान शाखा से ही हुआ था | सिद्ध साहित्य में आई विकृतियों के फलस्वरूप नाथ साहित्य का जन्म हुआ था | नाथों ने योग साधना को एक स्वच्छ रूप में धारण किया और सामाजिक असमानता, व्यभिचार को ख़त्म करने का प्रयास किया |इस सम्प्रदाय को सुव्यवस्थित रूप देने का

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सिद्ध साहित्य (Siddh Sahitya)

सिद्ध परम्परा का जन्म बौध धर्म की घोर विकृति के फलस्वरूप माना जाता है| बुद्ध का निर्वाण 483 ईसा पूर्व हुआ |उनके निर्वाण के लगभग 50 वर्षों तक बौद्ध धर्म का खूब प्रचार-प्रसार रहा | बौद्ध धर्म का उदय वैदिक कर्मकांडों व हिंसा के खिलाफ हुआ था |यह धर्म सदाचार और सहानुभूति के आदर्शों पर

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आदिकाल (Aadikaal)

आदिकाल (1050-1375)(महारोज भोज से लेकर हम्मीर देव से पीछे तक) इस काल के विभिन्न नाम चरण काल- गिर्यसन प्रारम्भिक काल- मिश्र बंधु वीर गाथा काल- आचार्य शुक्ल (12 ग्रंथों (विजयपाल रासो,खुम्माण रासो ,कीर्तिलता आदि) आधार पर) आदिकाल- आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी (इस मत को व्यापक स्वीकृति आचार्य शुक्ल हिंदी का आरम्भ तो सिद्धों की रचनाओं

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हिंदी साहित्य में काल विभाजन

हिंदी साहित्य के 1000 के इतिहास को किस प्रकार पढ़ा जाए इसके लिए इसे विभिन्न विद्वानों ने अलग-अलग काल खण्डों में विभाजित किया है जो इस प्रकार है- हिंदी साहित्य के प्रथम साहित्यकार-“गार्सादत्तासी”(फ्रेंच भाषी पुस्तक- “इस्त्वार द ला लितरेत्युर एन्दुई एन्दुस्तानी”(738 कवियों का जिक्र 72 जा सम्बंध हिंदी से ) शिव सिंह सेंगर – “शिव

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समास

कामता प्रसाद गुरु के अनुसार ,” दो या दो से अधिक शब्दों का परस्पर संबंध बताने वाले शब्दों अथवा प्रत्ययों का लोप होने पर, उन दो या दो से अधिक शब्दों से जो एक स्वतंत्र शब्द बनता है, उस शब्द को सामासिक या समस्त पद कहते हैं और उन दो या दो से अधिक शब्दों

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लिपि

पं० कामता प्रसाद गुरु के अनुसार लिखित भाषा  में मूल  ध्वनियों के  लिए जो चिह्न लिए गए  है वे  भी वर्ण कहलाते हैं और जिस रूप  में ये  लिखे जाते हैं उसे लिपि कहते हैं । लिखित ध्वनि संकेतों को लिपि कहते हैं | लिपि के विकास  की मुख्यतः निम्न  अवस्थाएँ मानी जाती है – चित्रलिपि  प्रतीक लिपि   भावलिपि  ध्वनिलिपि – 2 भेद हैं – अक्षरात्मक और वर्णनात्मक  भारत  में प्राचीन समय  से  3 लिपियाँ प्रचलित थी  सिंधू घाटी लिपि  खरोष्ठी लिपि ( दाएँ से बाएँ)  37 वर्ण  (5 स्वर 11 व्यंजन)  ब्राह्मी लिपि इसी से देवनागरी का विकास दक्षिणी शैली ( तेलुगु तमिल कन्नड़ लिपियों का विकास) उत्तरी शैली -गुप्त लिपि(4-5 शताब्दी में) -सिद्धमात्रिका (सन 588-89 का वैध हुआ का अभिलेख) या कुटिल लिपि (इससे दोलिपियाँ- देवनागरी ओर शारदा लिपि । देवनागरी (नौवीं शताब्दी)  नामकरण- नाग़लिपि (बौद्ध ग्रंथ “ललित विस्तार”) से नगरी नामकरण  नगरों में प्रचलित होने के कारण  पाटलिपुत्र को “नागर” ओर चंद्रगुप्त को देव कहने के कारण  गुजरातके नागर ब्राह्मणों के नाम पर  विशेषताएँ  आक्षरिक या अक्षरात्मक प्रत्येक वर्ण के लिए अलग ध्वनि वर्णमाला का वर्णक्रम वैज्ञानिक उच्चारण व लेखन में एकरूपता नियतता- प्रत्येक ध्वनि के लिए निश्चित

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निमन्त्रण

प्रेमचंद  द्वारा रचित निमंत्रण कहानी नवम्बर  1926 में सरस्वती पत्रिका मेंप्रकाशित हुई यह कहानी अकर्मण्य और धरम के नाम पर भी सुस्वादु व्यंजनों परलार टपकाने वाले पाखंडी पंडितों पर करारा व्यंग्य हैं कहानी का मुख्य पात्र हैपंडित मोटेराम शास्त्री ।खाने का नाम आने के पर ही  इनकी बार–बार  जीभ  लपकती है ।ऐसे में इन्हें पता चलता है की रानी साहिबा  ने 7 ब्राह्मणों कोइच्छापूर्ति भोजन का निमंत्रण दिया है पंडित जी की बाँछे खिल उठती है पंडित  मोटे राम  कुचक्र रचकर अपने पाँचों पुत्रों और पत्नी को पुरुष वेश पहनाकरभोजन के  लिए प्रस्थान कर रहे होते हैं  कि उनका मित्र प्रतिस्पर्धी पंडित  चिंतामणी आ टपकते हैं । पंडित चिंतामणि भी खाने के लालची  हैं। ओर वहसमझ जाते हैं कि कहीं  से न्यौता आया है तो वह भी वहाँ जाने के  इच्छुक होते हैं ।पंडित मोटे राम उन्हें साथ नहीं ले जाना चाहते थे । इसलिए दोनों में बुरी तरह सेकहासुनी और मार– पिटाई तक हो जाती है । रानी साहिबा के यहाँ भोजन में थोड़ासमय  था तो पंडित  मोटेराम को जाने क्या सूझी  कि वह पंडित चिंतामणि कोभोजन के  लिए लिवाने चले गए । रानी साहिबा के सामने उनकी चाल आ जाती हैऔर रानी साहिबा के सामने उनकी चाल आ जाती है ।रानी साहिबा खाने के स्थानपर कुत्ते  छुड़वा देती है ।पूरा परिवार बिना भोजन की यह लौट आता है ।औरप्रतिद्वंदी पंडित चिंतामणि पूरे ठाठ  से भोजन करते हैं । कहानी की भाषा सहज, सरल और प्रवाहमयी है संवादों द्वारा दोनों पंडितों के चरित्र को पूरी तरह उजागरकिया गया है ।वर्णात्मक शैली में रची यह कहानी हास्य को जन्म देती है औरसोचने पर  विवश करती है ओर सोचने पर विवश करती है कि आदमी खाने केलिए आदमी कितना गिर सकता है कि अपनी संतान के पिता किसी अन्य को औरपत्नी को पुरुष बना दे । रानी साहिबा  का व्यवहार  भी कोई अच्छा प्रभाव नहींछोड़ता ।पंडित चिंतामणि भी अपने मित्र को नीचा दिखाते हैं ।वस्तुत यह कहानीएक दिखावटी समाज  का प्रतिनिधित्व करती  है जहाँ सब  स्वार्थपूर्ति में लगे हैं।कहानी जा उद्देश्य दिशाभ्रमित लोगों को वास्तविकता का आइना दिखाना है किधर्म के नाम पर किस प्रकार ढोंग रचे जाते हैं ।

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हिंदी साहित्य का इतिहास (Hindi Sahitya ka Itihas)

आर्यभाषाओं का ऐतिहासिक विकास प्राचीन आर्य भाषाएँ :- इनका समय लगता 2000 ईसा पूर्व से 500 ईसा पूर्व तक माना गया है के अंतर्गत दो स्थितियां शामिल हैं- वैदिक संस्कृति (2000 से1000 ईसा पूर्व) लौकिक संस्कृत (1000 ईसा पूर्व से 500 ई० पू०) मध्यकालीन आर्य  भाषाएं :- इनका का समय 500 ईसा पूर्व से एक

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वाक्य संरचना

वाक्य-सार्थक शब्दों या पदों की वह व्यवस्थित व क्रमबद्ध समूह होता है जो किसी पूर्ण अर्थ को व्यक्त करने में सक्षम हो । सार्थक वाक्य की शर्तें आकांक्षा= शब्द एक दूसरे के बिना अर्थ बोधन नहीं कर सकते योग्यता= प्रकट से प्रकट होने वाला अभिप्राय व्याकरण को दृष्टि से बाधित नहीं होना चाहिए । सन्निधि

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