(इसके बाद तपस्या करता हुआ तपोदत्त प्रवेश करता है)
तपोदत्त – मैं तपोदत्त हूँ। बचपन में पूज्य पिताजी के द्वारा क्लेश किए जाने पर भी मैने विद्या नहीं पढ़ी। इसीलिए
परिवार के सब सदस्यों, मित्रों और सम्बन्धियों के द्वारा मेरा अपमान किया गया।
(ऊपर की ओर साँस छोड़कर)
हे प्रभो! मैंने यह क्या किया? उस समय मेरी कैसी दुष्ट बुद्धि हो गई थी! मैने यह भी नहीं सोचा कि वस्त्रों तथा आभूषणों से सुशोभित किन्तु विद्याहीन मनुष्य घर पर या सभा में उसी प्रकार सुशोभित नहीं होता है जिस प्रकार मणि से रहित साँप।
(कुछ सोचकर)
अच्छा, इससे क्या? दिन में रास्ता भूला हुआ मनुष्य यदि शाम तक घर आ जाए तो भी ठीक है। तब वह भूला हुआ नहीं माना जाता। अब मैं तपस्या के द्वारा विद्या प्राप्ति में लग जाता हूँ।
(पानी के उछलने की आवाज़ सुनी जाती है)
तपोदत्त – अरे! यह लहरों के उछलने की आवाज़ कहाँ से आ रही है? शायद बड़ी मछली या मगरमच्छ हो। चलो मैं देखता हूँ।
(एक पुरुष को रेत से पुल बनाने का प्रयास करते हुए देखकर हँसते हुए)
हाय! इस संसार में मूों की कमी नहीं है। तेज़ प्रवाह (बहाव) वाली नदी में यह मूर्ख रेत से पुल बनाने का प्रयत्न कर रहा है।
(जोर-जोर से हँसकर पास जाकर)
हे महाशय! यह क्या कर रहे हो आप? बस-बस मेहनत मत करो। देखो –
श्रीराम ने समुद्र पर जिस पुल को शिलाओं से बनाया था,
उस पुल को (इस प्रकार) रेत से बनाते हुए,
तुम उनके पुरुषार्थ का अतिक्रमण कर रहे हो।
जरा सोचो! कहीं रेत से पुल बनाया जा सकता है?
पुरुष – हे तपस्विन्! तुम मुझे क्यों रोकते हो? प्रयत्न करने से क्या सिद्ध नहीं होता? शिलाओं की क्या आवश्यकता?
मैं रेत से ही पुल बनाने के लिए संकल्पबद्ध हूँ।
तपोदत्त – आश्चर्य है! रेत से ही पुल बनाओगे? क्या तुमने यह सोचा है कि रेत पानी के बहाव पर कैसे ठहर पाएगी?
पुरुष – (उसकी बात का खण्डन करते हुए) सोचा है, सोचा है, अच्छी प्रकार सोचा है। मैं सीढ़ियों के मार्ग से
(परम्परागत तरीके से) अटारी पर चढ़ने में विश्वास नहीं करता। मुझमें छलाँग मारकर जाने की क्षमता है।
तपोदत्त – (व्यंग्यपूर्वक) शाबाश, शाबाश! तुम तो अञ्जनिपुत्र हनुमान का भी अतिक्रमण कर रहे हो।
पुरुष – (सोच-विचार कर) और क्या? इसमें क्या सन्देह है। लिपि तथा अक्षर-ज्ञान के बिना जिस प्रकार केवल तपस्या से विद्या तुम्हारे वश में हो जाएगी, उसी प्रकार मेरा यह पुल भी। (केवल रेत से बन जाएगा)
तपोदत्त-(लज्जापूर्वक अपने मन में)
अरे! यह सज्जन मुझे ही लक्ष्य करके आक्षेप लगा रहा है। निश्चय ही यहाँ मैं सच्चाई देख रहा हूँ। मैं बिना अक्षर ज्ञान के ही विद्वता प्राप्त करना चाहता हूँ। यह तो देवी सरस्वती का अपमान है। मुझे गुरुकुल जाकर ही विद्या का अध्ययन करना चाहिए। पुरुषार्थ (मेहनत) से ही लक्ष्य की प्राप्ति सम्भव है। (प्रकट रूप से) हे श्रेष्ठ पुरुष! मैं नहीं जानता कि आप कौन हैं? किन्तु आपने मेरे नेत्र खोल दिए। तपस्या मात्र से ही विद्या को प्राप्त करने का प्रयत्न करता हुआ मैं भी रेत से ही पुल बनाने का प्रयास कर रहा था, तो अब मैं विद्या प्राप्त करने के लिए गुरुकुल जाता हूँ।
(प्रणाम करता हुआ चला जाता है)