(पहला दृश्य)
(मल्लिका लड्डुओं को बनाती हुई धीमी आवाज़ में शिव की स्तुति करती है।)
(उसके बाद लड्डुओं की सुगन्ध को अनुभव करते हुए प्रसन्न मन से चन्दन प्रवेश करता है।)
चन्दन – वाह! सुगन्ध तो मनोहारी है (देखकर) अरे लड्डू बनाए जा रहे हैं? (प्रसन्न होकर) तो स्वाद लेता हूँ। (लड्डू को लेना चाहता है)
मल्लिका – (क्रोध के साथ) रुको। रुको। मत छुओ! इन लड्डुओं को।
चन्दन – क्यों गुस्सा करती हो! तुम्हारे हाथों से बने लड्डुओं को देखकर मैं जीभ की लालच पर काबू रखने में असमर्थ हूँ, क्या तुम यह नहीं जानती हो?
मल्लिका – अच्छी तरह से जानती हूँ स्वामी। परन्तु ये लड्डू पूजा के लिए हैं।
चन्दन – तो जल्दी ही पूजा करो और प्रसाद को दो।
मल्लिका – अरे! यहाँ पूजा नहीं होगी। मैं अपनी सखियों के साथ कल सुबह काशीविश्वनाथ मंदिर की ओर जाऊँगी, वहाँ हम गंगा स्नान और धार्मिक यात्रा करेंगी।
चन्दन – सखियों के साथ! मेरे साथ नहीं! (दु:ख का अभिनय करता है)
मल्लिका – हाँ। चंपा, गौरी, माया, मोहिनी, कपिला आदि सब जाती हैं। अतः मेरे साथ तुम्हारे आने का कोई औचित्य (उचित रूप) नहीं है। हम सप्ताह के अन्त में (तक) वापस आ जाएँगी। तब तक घर की व्यवस्था और गाय के दूध को दुहने की व्यवस्था को चलाना।
चन्दन – ठीक है। जाओ। और सखियों के साथ धर्मयात्रा से आनन्दित होओ। मैं सभी को पाल लूँगा। तुम्हारे रास्ते शुभ हों।
चन्दन – मल्लिका तो धर्मयात्रा हेतु गई। ठीक है। गाय का दूध दुहकर उससे अपने नाश्ते (जलपान) का प्रबन्ध करूँगा। (स्त्री का वेश धारण करके, दूध के हाथ में लिए नन्दिनी गाय के पास जाता है)
उमा – मामी! मामी!
चन्दन – हे उमा! मैं तो मामा हूँ। तुम्हारी मामी तो गंगा स्नान के लिए काशी गई है। कहो! क्या तुम्हारा भला करूँ?
उमा – मामा! दादाजी कहते हैं, महीने भर बाद हमारे घर में उत्सव होगा। तब तीन सौ लीटर तक दूध चाहिए। यह व्यवस्था आपको ही करनी है।
चन्दन – (प्रसन्न मन से) तीस लीटर मात्रा (माप) में दूध! सुन्दर। दूध की व्यवस्था हो जाएगी ही ऐसा दादा जी को तुम कह दो।
उमा – धन्यवाद मामा! अब जाती हूँ। (वह चली गई)
(तृतीय दृश्य)
चन्दन – (प्रसन्न होकर, अंगुलियों पर गिनता हुआ) अरे! तीन सौ लीटर दूध। इससे तो बहुत धन प्राप्त करूँगा (पाऊँगा)।
(नन्दिनी को देखकर) हे नन्दिनी! तुम्हारी कृपा से तो मैं धनी हो जाऊँगा। (प्रसन्न होकर वह गाय की बहुत सेवा करता है)
चन्दन – (सोचता है) मास (महीने) के अन्त में ही दूध की जरूरत है। यदि हर रोज़ दुहने का काम करता हूँ
तो दूध सुरक्षित नहीं रहता है। अब क्या करूँ? ठीक है, महीने के अन्त में ही पूरी तरह से दूध को दुहने का काम करता हूँ (करूँगा)।
(इस प्रकार क्रमानुसार सात दिन बीत गए। सप्ताह के अन्त में मल्लिका वापस आती है)
मल्लिका – (प्रवेश करके) स्वामी! मैं वापस आ गई। प्रसाद को खाओ।
(चन्दन लड्डुओं को खाता है और बोलता है।)
चन्दन – मल्लिका! तुम्हारी यात्रा तो ठीक प्रकार से सफल हो गई? काशी विश्वनाथ की कृपा से प्रिय निवेदन करता हूँ।
मल्लिका – (आश्चर्य के साथ) ऐसा है! धर्मयात्रा के अतिरिक्त अधिक प्रिय क्या है?
चन्दन – गाँव के प्रधान के घर में महीने के अन्त में महोत्सव होगा। वहाँ तीन सौ लीटर दूध हमें देना है।
मल्लिका – किन्तु इतनी मात्रा में दूध हमें कहाँ से मिलेगा?
चन्दन – सोचो मल्लिका! हर रोज दुह करके हम दूध को रखते हैं यदि वह सुरक्षित न रहे तो। इसलिए गाय का दोहन कार्य नहीं किया जा रहा है। उत्सव के दिन ही सारा दूध दुह लेंगे।
मल्लिका – हे स्वामी! तुम तो बहुत चतुर हो। बहुत सुन्दर विचार है। अब दूध दुहना छोड़कर केवल नन्दिनी की
सेवा ही करेंगे। इससे अधिक से अधिक दूध को महीने के अन्त में प्राप्त करेंगे। (दोनों ही गाय की सेवा में लगे होते हैं। इसी तरह वे घास व गुड़ आदि खिलाते हैं। कभी सीगों परतेल लगाते हैं, तिलक लगाते हैं, रात में जल आदि से भी सन्तुष्ट करते हैं।)
चन्दन – मल्लिका! आओ। कुंभार के घर की ओर चलते हैं। दूध के लिए बर्तन का प्रबन्ध भी करना है। (दोनों ही निकलते हैं)
(चौथा दृश्य)
कुंभार – (घड़े बनाने में व्यस्त है और गाता है)
मैं जानकर भी जीविका (जीवन के लिए साधन) के कारण ही इन घड़ों को बनाता हूँ। सारा जीवन टूटकर नष्ट होने योग्य हैं जैसे यह मिट्टी का घड़ा टूटकर समाप्त होने योग्य है।
चन्दन – हे तात! नमस्कार करता हूँ। पन्द्रह घड़े चाहता हूँ। क्या दोगे? ।
देवेश – क्यों नहीं? बेचने के लिए ही हैं ये। घड़ों को ले लो। और पाँच सौ रुपये दे दो।
चन्दन – ठीक है। परन्तु मूल्य (दाम) तो दूध को बेचकर ही दिया जा सकता है।
देवेश – हे पुत्र क्षमा करो! बिना मूल्य (दान) के एक भी घड़ा नहीं दूंगा।
मल्लिका – (अपने आभूषणों को देना चाहती है) हे तात! यदि अभी कीमत देना आवश्यक (ज़रूरी) है तो, यह जेवर ले लो।
देवेश – बेटी! मैं पाप का काम नहीं करता हूँ। तुम्हें आभूषण विहीन कभी भी नहीं करना चाहता हूँ। इच्छानुसार
घड़ों को ले जाओ। दूध को बेचकर ही घड़ों की कीमत दे देना।
दोनों – तात! आप धन्य हो! धन्य हो।