प्रकृति सब प्राणियों की रक्षा के लिए प्रयत्न करती है। यह विभिन्न प्रकार से सबको पुष्ट करती है तथा सुख-साधनों से’ तृप्त करती है। पृथ्वी, जल, तेज़, वायु और आकाश ये इसके प्रमुख तत्व हैं। ये ही मिलकर या अलग-अलग हमारे पर्यावरण को बनाते हैं। संसार जिसके द्वारा सब ओर से आच्छादित किया जाता है, वह ‘पर्यावरण’ कहलाता है। जिस प्रकार अजन्मा (जिसने जन्म नहीं लिया है) शिशु अपनी माता के गर्भ में सुरक्षित रहता है, उसी प्रकार मनुष्य पर्यावरण की कोख में (सुरक्षित रहता है)।

परिष्कृत (शुद्ध) तथा प्रदूषण से रहित पर्यावरण हमें सांसारिक जीवन-सुख, अच्छे विचार, अच्छे संकल्प तथा मांगलिक सामग्री देता है। प्रकृति के क्रोधों से व्याकुल मनुष्य क्या कर सकता है? बाढ़, अग्निभय, भूकंपों, आँधी-तूफानों तथा उल्का आदि के गिरने से संतप्त (दुखी) मानव का कहाँ कल्याण है? अर्थात् कहीं नहीं।

इसलिए हमें प्रकृति की रक्षा करनी चाहिए। उससे पर्यावरण अपने-आप सुरक्षित हो जाएगा। प्राचीनकाल में जनता का कल्याण चाहने वाले ऋषि वन में ही रहते थे क्योंकि वन में ही सुरक्षित पर्यावरण प्राप्त होता था। अनेक प्रकार के पक्षी अपने मधुर कूजन से वहाँ कानों को अन्त प्रदान करते हैं।

नदियाँ तथा पर्वतीय झरने अमृत के समान स्वादिष्ट और पवित्र जल देते हैं। पेड़ तथा लताएँ फल, फूल तथा इंधन की लकड़ी बहुत मात्राा में देते हैं। वन की शीतल (ठंडी), मंद तथा सुगंधित वायु औषध के समान प्राण-वायु बाँटते हैं।

अद्य-आज, नाशयति-नष्ट कर रहा है, स्वल्पलाभाय-थोड़े से लाभ के लिए, यन्त्रागाराणाम्-कारखानों के, विषाक्तम्-विषैला, जलचराणां-पानी में रहने वाले जीवों का, अपेयम्-न पीने योग्य, जायते-हो जाता है, वनवृक्षाः-जंगल के पेड़; निर्विवेकम्-अकारण, अवृष्टि:-वर्षा की कमी, प्रवर्धते-बढ़ती है, वनपशवः-जंगली पशु, शरणरहिता:-बिना शरण के, वृक्षकर्तनात्-पेड़ों के काटने से, उपद्रवं-भय, विदधति-करते हैं, सङ्कटापन्नो-संकटयुक्त, जायते-होती है, विकृतिम्-विकारयुक्त, उपगता-हो गई है, विनाशकी-विनाश करने वाली, भवति–हो गई है, इदानीम्-अब, चिन्तनीयम्-चिंता से युक्त, प्रतिभाति-प्रतीत हो रहा है।

किंतु स्वार्थ में अंधा हुआ मनुष्य उसी पर्यावरण को आज नष्ट कर रहा है। थोड़े से लाभ के लिए लोग बहुमूल्य वस्तुओं को नष्ट कर रहे हैं। कारखानों का विषैला जल नदियों में गिराया जा रहा है, जिससे मछली आदि जलचरों का क्षणभर में ही नाश हो जाता है। नदियों का पानी भी सर्वथा (हर प्रकार से) न पीने योग्य (अपेय) हो जाता है। वन के पेड़ व्यापार बढ़ाने के लिए अंधाधुंध काटे जाते हैं, जिससे अवृष्टि (वर्षा न होना) में वृद्धि होती है तथा वन के पशु असहाय (बिना सहायता के) होकर गाँवों में उपद्रव उत्पन्न करते हैं। पेड़ों के कट जाने से शुद्ध वायु भी दुर्लभ हो गई है। प्रकार स्वार्थ में अंधे मनुष्यों के द्वारा विकारयुक्त प्रकृति ही उनकी विनाशिनी हो गई है। पर्यावरण में विकार आ जाने से
विभिन्न रोग तथा भयंकर समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं। इसलिए अब सब कुछ चिंतायुक्त प्रतीत हो रहा है।

‘रक्षा किया गया धर्म रक्षा करता है’-ये ऋषियों के वचन हैं। पर्यावरण की रक्षा करना भी धर्म का ही अंग है-ऐसा ऋषियों ने प्रतिपादित किया है। इसीलिए बावड़ी, कुएँ, तालाब आदि बनवाना, मंदिर, विश्रामगृह आदि की स्थापना धर्मसिद्धि के साधन के रूप में ही माने गए हैं। कुत्ते, सूअर, साँप, नेवले आदि स्थलचरों तथा मछली, कछुए, मगरमच्छ आदि जलचरों की भी रक्षा करनी चाहिए, क्योंकि ये पृथ्वी तथा जल की मलिनता को दूर करने वाले हैं। प्रकृति की रक्षा से ही संसार की रक्षा हो सकती है। इसमें संदेह नहीं है।

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