हिंदी साहित्य के आरंभिक ग्रंथों के अंत में रासो शब्द जुड़ा हुआ है जो काव्य का पर्यायवाची है | रासो शब्द की उत्पत्ति के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों के मत-

गार्सा द तासी -राजसूय यज्ञ से

रामचंद्र शुक्ल ने- रसायण से

ड़ा० मोतीलाल मेनरिया – रहस्य से

श्री नरोत्तम स्वामी-रसिक से

अन्य विद्वान- राउस-रासो या रासा-रासक- रासो

हाजी प्रसाद द्विवेदी- रासक को एक शब्द मानते हैं और काव्य भेद भी | उनके अनुसार जो काव्य रासक छंद में लिखे जाते हैं, वे ही हिंदी में रासो कहलाने लगे |

ऐसा प्रतीत होता है कि उस काल में कविताओं में अनेक छंदों का प्रयोग हुआ | ये काव्य चरित्र प्रधान हैं |वस्तुतः रासो काव्य मूलतः रासक छंद का समुच्चय है |

अपभ्रंश में 29 मात्रा का एक रासा या रास छंद प्रचलित था |ऐसे अनेक छंदों के गान की परम्परा कदाचित लोकगीतों में रही होगी |एकरसता न रहे इसलिए बीच-2 में दूसरे छंद जोड़ने की परंपरा भी चली होगी |”संदेशरासक” इसका एक सुंदर नमूना है |पहले रासो काव्य छंद में लिखे गए होंगें कालांतर में ये गेय मुक्तक छंदों के रोप में प्रयुक्त होने लगे होंगे |

रासो साहित्य मूलतः सामंती-व्यवस्था, प्रकृति और संस्कार से उपजा हुआ साहित्य है जिसे “देशीभाषा काव्य” के नाम से जाना गया |इस साहित्य के रचनाकार हिन्दू राजपूत राजाश्रय में रहने वाले चारण या भाट थे |राजा से सीधे जुडाव के कारण समाज में उनका स्थान भी था और सम्मान भी |ये न केवल सेना की अगुवाई में विरुदावली गाते थे बल्कि हथियार चलाना भी जानते थे | इन्होने ने केवल वीर पुरुषों , राजाओं और अपने आश्रयदाताओं की वीरोचित युद्ध घटनाओं का बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन किया है बल्कि तत्कालीन हालातों का बारीकी से चित्रण भी किया है |

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