आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिंदी साहित्य के इतिहास को चार कालखंडों में बांटा है | चतुर्थक कालखंड को गद्य की प्रमुख होने के कारण गद्यकाल नाम दिया है।और इसकी समय सीमा सन् 1843 से 1923 ई० स्वीकार की है। आधुनिक काल के लिए जो विभिन्न नाम दिए गए हैं, वे इस प्रकार है-
गद्यकाल- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
वर्तमान काल-मिश्रबंधु
आधुनिक काल- डॉ० राम कुमार वर्मा और डॉ० गणपति चंद्रगुप्त
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इस काल का नाम गद्यकाल इसलिए रखा है क्योंकि इस काल में गद्य की प्रधानता परिलक्षित हो रही है। तथापि गद्य काल कहने से इस काल का प्रचुर परिणाम में लिखा गया पद्य साहित्य उपेक्षित सा हो जाता है। अतः इस काल को आधुनिककाल कहना अधिक उचित प्रतीत होता है। इस नामकरण में गद्य और पद्य दोनों प्रवृत्तियो का समावेश तो हो ही जाता है साथ ही यह नाम यह भी बताता है कि इस काल की प्रवृत्तियाँ पुरानी परंपरा से हटकर नवीन और आधुनिक हो गई। निश्चय ही आधुनिक युगबोध ने हिंदी साहित्य को दरबारी परिवेश से निकालकर आम जनजीवन के निकट ला दिया। गद्य की अनेक विधाओं का विकास आधुनिक काल में ही हुआ।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का मत है कि बल्लभाचार्य के पुत्र गोसाई बिट्ठलनाथजी ने श्रृंगार रस मंडन नामक एक ग्रंथ ब्रजभाषा में लिखा था, जिसकी भाषा अपरिमार्जित एवं अव्यवस्थित है। इसके उपरांत वार्तासाहित्य की रचना गद्य में हुई। यद्यपि अब तक शताधिक वार्ता ग्रन्थ प्राप्त हो चुके हैं परंतु महत्वपूर्ण दो ही ग्रंथ (रचयिता-गोसांई गोकुलनाथ) है- चौरासी वैष्णव वार्ता– 17वीं शताब्दी का उत्तरार्ध (वल्लभाचार्य के शिष्यों का जीवनवृत) और दो सौ पचास वैष्णवन की वार्ता-औरंगजेब के समय (गोसांई विट्ठलनाथ के शिष्यों का जीवनवृत्त)
इन दोनों वार्ताग्रंथों को गोकुलनाथ के अनुयायियों ने विस्तार देकर ग्रंथ का रूप प्रदान किया। वार्ता साहित्य प्रायः प्रचारपरख शिक्षात्मक और सोद्देश्य है। उसकी भाषा में तत्सम और तत्सम शब्दों की बहुलता है।
बृजभाषा गद्य की प्रारम्भिक रचनाएँ।
रचना का नाम | रचयिता | रचना काल |
शृंगार रस मंडन | गोसाई विट्ठलनाथ | —————————- |
चौरासी वैष्णव वार्ता | गोकुलनाथ | 17वीं शताब्दी का उत्तरार्ध |
दो सौ पचास वैष्णवन की वार्ता | गोकुलनाथ | 17वीं शताब्दी का उत्तरार्ध |
अष्टयाम | नाभादास | 1603 |
बैताल पच्चीसी | सुरति मिश्र | 1710 |
चौरासी वैष्णव वार्ता गद्य लिखने की परिपाटी का सम्यक प्रचार न होने के कारण ब्रजभाषा गद्य का पूरा विकास नहीं हो सका। वार्ता ग्रंथों में उसका परिष्कृत एवं सुव्यवस्थित रूप उपलब्ध होता है, किंतु आगे चलकर काव्य की जो टीकाएँ लिखी गई है।उनमें गद्य का रूप बहुत अशक्त और अव्यवस्थित है। जानकी प्रसाद द्वारा रचित रामचंद्रिका की टीका (1817) की भाषा भी अशक्त एवं अव्यवस्थित है।
खड़ी बोली गद्दे की महत्वपूर्ण पुस्तक जनकवि द्वारा रची थी। चंद चंद वर्णन की महिमा है। इसकी रचना सम्राट अकबर के समय हुई थी।
45 ईस्वी में रामप्रसाद निरंजनी ने भाषा योग विशेष नामक ग्रंथ साफ सुथरी खड़ी बोली में लिखा। राम प्रसाद रंजन ने पटियाला दरबार में थे 60 वर्ष की आयु। इनका कद देखकर ही यह पता चलता है कि मुंशी सदासुख लाल एवं लल्लूलाल से 60 वर्ष पूर्व भी खड़ीबोली गद्य का प्रमाणित रूप था।योग वशिष्ठ में प्रयुक्त घंटे आचार्य शुक्ल के अनुसार सर्वाधिक प्रमाणित है।आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने राम प्रसाद रजनी को ही प्रथम गद्य लेखक माना है
खड़ीबोली गद्य की प्रारंभिक रचनाएँ
रचना | रचयिता | रचनाकाल (ई० ) |
चंद छंद बरनन की महिमा | गंगकवि | अकबर का समय |
भाषा योगवाशिष्ट | रामप्रसाद निरंजनी | 1741 |
सुखसागर | मुंशी सुखदास लाल ‘नियाज’ | 1818 |
प्रेमसागर | लल्लूलाल | 1800 |
नासिकेतोपाख्यान | सदल मिश्र | 1800 |
रानी केतकी की कहानी (उदयभान चरित) | इंशा अल्लाखां | 1800 |
लल्लू लाल
लल्लूलाल जी आगरा के गुजराती ब्राह्मण थे। फोर्ट विलियम कॉलेज के हिंदी उर्दू अध्यापक जॉन गिलक्राइस्ट के आदेश से उन्होंने खड़ी बोली गद्य में प्रेमसागर की रचना की, जिसमें भागवत के दशम सकंध की कथा वर्णित है। लल्लू लाल जी ने इस कृति में अरबी, फारसी के शब्दों से परहेज किया है। इन्होंने उर्दू में भी कुछ पुस्तकें लिखी हैं जिनके नाम हैं- सिंहासन बत्तीसी, बेताल पच्चीसी, शकुंतला नाटक और माधोलाल | लल्लू लाल जी ने बिहारी-सतसई की टीका भी लिखी है, जिसका नाम है लाल चंद्रिका। कलकत्ता में उन्होंने एक प्रेस भी खोला था, जिसे फोर्ट विलियम कॉलेज की नौकरी से पेंशन लेने के बाद ये आगरा ले गए। इस प्रेस का नाम इन्होंने संस्कृत प्रेस रखा था।
सदल मिश्र
ये भी फोर्ट विलियम कॉलेज, कोलकाता में काम करते थे। इन्होंने भी कॉलेज अधिकारियों की प्रेरणा से खड़ीबोली गद्य की पुस्तक नासिकेतोपाख्यान तैयार की। इसमें ब्रज भाषा के साथ-साथ कुछ पूर्वीपन इनकी भाषा में दिखाई देता है।
सदासुखलाल ‘नियाज‘
इन्होंने विष्णुपुराण से उपदेशात्मक प्रसंग लेकर एक पुस्तक का निर्माण किया और हिंदी में श्रीमद्भागवत पुराण का अनुवाद सुखसागर नाम से किया। मुंशी जी ने न तो किसी अधिकारी की प्रेरणा से और ना ही किसी दिए हुए नमूने पर अपने ग्रंथ लिखे। इन्होंने हिंदुओं की बोलचाल की शिष्ट भाषा में अपनी रचनाएं लिखीं।
इंशाअल्लाह
ये उर्दू के प्रसिद्ध शायर थे जो दिल्ली के उजड़ने पर लखनऊ चले गए और रानी केतकी की कहानी या उदयभान चरित्र की रचना 1800 के आस पास की।इस ग्रंथ की रचना उन्होंने ठेठ हिंदी में किए जाने की इच्छा व्यक्त की जिसमें हिंदी को छोड़ किसी और बोली का पूट न हो |
हिंदी गद्य के इन चार प्रमुख लेखकों में से इंशा की भाषा सबसे अधिक चटकीली, मुहावरेदार और चलती हुई भाषा है। इंशा रंगीन और चुलबुली भाषा द्वारा अपना लेखन कौशल दिखाना चाहते थे।
शुक्ल ने इन चारों लेखेकों में मुंशी सदासुख लाल को विशेष महत्व दिया है। मुंशी सदासुख लाल को हिंदी गद्य का परिवर्तन करने वालों में स्थान दिया जाना चाहिए। इन चारों लोगों का रचना काल मोटे तौर पर 1800 ईस्वी के आसपास से आता है। हिंदी गद्य का सूत्रपात भी 1880 के आसपास समझना चाहिए।
ईसाई धर्म प्रचारकों में से एक विलियम केरे ने बाइबल का हिंदी और बांग्ला में अनुवाद कराया। इनका गद्य सीधा और सरल है। चलती हुई भाषा का उसमें प्रयोग किया गया है। अंग्रेजी राज्य के प्रारंभ में कचहरी की भाषा फ़ारसी ही रही है। परंतु कुछ प्रांतों में प्रांतीय भाषा अदालती कामकाज में प्रयुक्त होने लगी। कुछ प्रभावशाली मुस्लिम नेताओं जैसे सर सैयद अहमद खान ने स्कूलों में हिंदी पढ़ाने का भी विरोध किया।लेकिन राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द हिंदी के पक्षपाती थे और अंग्रेजों के कृपा पात्र थे। हिंदी की रक्षा के लिए उन्होंने महान कार्य किया तथा वे बराबर सर सैयद अहमद खान का विरोध करते रहे। गार्सा द त्तासी नामक फ्रांसीसी विद्वान ने हिंदी, उर्दू के इस झगड़े को फ्रांस में बैठकर हवा दी। आचार्य शुक्ल के अनुसार अदालती भाषा उर्दू होते हुए भी शिक्षा विधान में देश की असली भाषा हिंदी को स्थान देना पड़ा।
राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द
हिंदी-उर्दू के इस संघर्ष काल में राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द और राजा लक्ष्मण सिंह हिंदी के पक्षपाती बनकर सामने आए। शिक्षा विभाग में इंस्पेक्टर होने से पूर्व राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द ने काशी से बनारस अखबार निकाला निकालना प्रारंभ किया, जिसकी भाषा में उर्दू का पुट था। शिक्षा विभाग में मुसलमानों का दल अधिक शक्तिशाली था। उन्होंने मध्यवर्ती मार्ग का अनुसरण करते हुए अपनी चलती हुई भाषा का समर्थन किया, जिसमें उर्दू के चलते हुए शब्दों का प्रयोग होता था। राजा शिवप्रसाद सितारे द्वारा हिन्दी में लिखी पुस्तकें हैं- आलसियों का कीड़ा, राजा भोज का सपना, इतिहास तिमिरनाशक, मानव धर्म का सार, उपनिषद सार, भूगोल हस्तामलक आदि। वस्तुतः सितारेहिन्द की भाषा का स्वरूप ऐसा था कि वह हिंदी उर्दू की समस्या को हल करने का प्रयास करते जान पड़ते हैं।है। इसमें कोई संदेह नहीं कि उन्होंने बड़ी चतुराई से हिंदी की रक्षा की, अन्यथा मुसलमान नेता हिंदी को स्कूली शिक्षा से बाहर कर देने के लिए अंग्रेजों पर दबाव बनाए हुए थे। राजा साहेब ने अपने प्रारम्भिक पुस्तकों राजा भोज का सपना आदि में सरल हिंदी का प्रयोग किया। इसमें वह उर्दू का नहीं है जो बाद की पुस्तकों इतिहास तिमिरनाशक में दिखाई पड़ता है। यही नहीं अपितु उनकी पुस्तक मानव धर्म का सार में तो उन्होंने संस्कृतनिष्ठ हिंदी का प्रयोग किया है। संभव है शिक्षा विभाग में नौकरी के बाद अंग्रेज अधिकारियों का रुख देखकर उन्होंने अपनी भाषा, नीति बदली और अपनी बाद की पुस्तकों में उर्दू मिश्रित हिंदी का प्रयोग करने लगे। इतिहास तिमिरनाशक-2 की भूमिका में वे साफ लिखते हैं कि मैंने इस पुस्तक की भाषा का वही स्वरूप रखा है जो बेताल पच्चीसी का है अर्थात् उर्दू है।
राजा लक्ष्मण सिंह
राजा लक्ष्मण सिंह आगरा के रहने वाले थे। उन्होंने सन् 1861 ई० में आगरा से प्रजा हितैसी नामक पत्र निकाला और 1862 में अभिज्ञानशकुन्तल का अनुवाद सरस एवं विशुद्ध हिंदी में प्रकाशित किया। उन्होंने अपनी स्पष्ट भाषा नीति को स्पष्ट करते हुए कहा-” हमारे मत में हिंदी और उर्दू दो बोली न्यारी-न्यारी है। हिंदी इस देश के हिंदू बोलते हैं उर्दू यहाँ के मुसलमान और फारसी पढे हुए हिंदुओं की बोलचाल भाषा है। हिंदी में संस्कृत-पद बहुत आते है। उर्दू में अरबी, फारसी के।” राजा लक्ष्मण सिंह के शकुंतला नाटक की भाषा देखकर अंग्रेज विद्वान फ्रेडरिक पिंकाट बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने इस नाटक का परिचयात्मक विवरण देते हुए बहुत सुंदर लेख लिखे। पिंकाट साहब हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं के ज्ञाता थे और भारत का हित हृदय से चाहते थे। राजा लक्ष्मण सिंह, भारतेंदु हरिश्चंद्र, प्रतापनारायण मिश्र आदि हिंदी लेखकों से वे बराबर हिंदी में पत्र-व्यवहार करते रहते थे तथा इंग्लैंड के अखबारों में हिंदी लेखको और ग्रंथों का परिचय बराबर देते रहते थे। आचार्य शुक्ल का विचार है कि उस समय के हिंदी लेखकों के घर में पिंकाट साहब के दो-चार पत्र अवश्य मिलेंगे। पिन्काट साहब भारत में भी आए और लखनऊ में ही उनका देहांत हुआ।
हिंदी के रक्षकों में शिवप्रसाद सितारे हिन्द के साथ-2 पंजाब के बाबू नवीनचंद्र राय भी थे। उर्दू के पक्षपातियो से उन्होंने बराबर संघर्ष किया। नवीन बाबू ने एक आख्यान में कहा है-
“उर्दू के प्रचलित होने से देशवासियों को कोई लाभ नहीं होगा क्योंकि वह भाषा खास मुसलमानों की है। उसमें मुसलमानों ने व्यर्थ में बहुत से अरबी-फारसी शब्द भर दिए हैं। उर्दू में आशिकी कविता के अतिरिक्त किसी गंभीर विषय को व्यक्त करने की शक्ति नहीं है।“
नवीन बाबू ने के इस व्याख्यान से हिंदी के पक्के दुश्मन गार्सा द तासी फ्रांस में बैठे बैठे बहुत चिढ़े और उन्होंने नवीन बाबू को हिंदू कहते हुए हिंदी का विरोध किया और उर्दू का समर्थन किया।