नाम |
कविवर बिहारी |
पिता का नाम |
केशव राय |
जन्म |
सन् 1603 ईसवी |
जन्म-स्थान |
बसुआ-गोविंदपुर (ग्वालियर) |
भाषा-शैली |
भाषा – प्रौढ़ प्रांजल, परिष्कृत एवं परिमार्जित ब्रज |
प्रमुख रचनाएं |
बिहारी सतसई |
निधन |
सन् 1663 ई० |
साहित्य में स्थान |
अपनी काव्यगत (भावपक्ष व कलापक्ष) विशेषताओं के कारण हिंदी साहित्य में बिहारी का अद्वितीय स्थान है। |
जन्मकाल 1603 से 1663 ई0 | बिहारी रीतिकाल के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं जिनका जन्म आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार 1603 ई0 में ग्वालियर में हुआ। बिहार के एकमात्र ग्रंथ का नाम बिहारी सतसई है जिसकी रचना 1662 में संपन्न हुई। बिहारी का देहावसान 1663 ई० में हुआ। बिहारी ने यद्यपि कोई लक्षण ग्रन्थ नहीं लिखा तो था तो भी उन्हें नीतिशास्त्र की अच्छी जानकारी थी, जिसका उपयोग उन्होंने अपनी सतस में किया। रीतिकालीन कवियों में बिहारी का स्थान सर्वश्रेष्ठ है। इनके पिता का नाम केशवराय था। केशवराय निंबार्क संप्रदाय के महंत नरहरि दास के शिष्य थे।बिहारी ने इनके यहाँ संस्कृत, प्राकृत के काव्य ग्रंथों का अध्ययन किया। बिहारी सतसई में कुल दोहों की संख्या 713 है।बिहारी सतसई का निर्माण “गाथासप्तशती”, “आर्यसप्तसती ” व “अमरुशतक” आदि ग्रंथों की प्रेरणा से हुआ।मुक्तक काव्य परंपरा में बिहारी जी का स्थान शीर्ष पर है। उनके ग्रंथ के समान कोई मुक्तकाव्य नहीं है।सतसई में बिहारी ने अलंकार, रस भाव, नायिकाभेद ध्वनि, वक्रोक्ति, रीति गुण आदि का ध्यान रखकर सुंदर दोहे रचे हैं। सतसई के आंतरिक अंतर्गत अलंकारिक चमत्कार एवं भाव दोनों हैं। डॉक्टर गिर्यसन के अनुसार यूरोप में बिहारी सतसई के समकक्ष कोई रचना नहीं है।बिहारी जी का एक-एक दोहा मर्मस्पर्शी है।उन्होंने समाज का तीक्ष्ण दृष्टि से निरीक्षण किया। वे श्रृंगार के संयोग पक्ष के चित्रण में निपुण थे।वे कम शब्दों में अधिक बात कहने में पारंगत थे।बृजभाषा पर इनका मजबूत अधिकार था।उन्हें शब्द व वर्ण के स्वभाव की परख थी। उदाहरण –
भक्ति- मेरी भव बाधा हरौ, राधा नागरि सोय | जातन की झांई परै, स्याम हरित दुति होय ||
श्रृंगार- या अनुरागी चित्त की, गति समुझै नंहि कोय | ज्यों-ज्यों बूडै स्याम रंग, त्यों-त्यों उज्ज्वलु ||
पुस्तकें
• बिहारी सतसई / बिहारी
• बिहारी के दोहे
• बिहारी लाल के पचीस दोहे / बिहारी
काव्य :
• माहि सरोवर सौरभ लै
• है यह आजु बसन्त समौ
• बौरसरी मधुपान छक्यौ
• जाके लिए घर आई घिघाय
• खेलत फाग दुहूँ तिय कौ
• नील पर कटि तट
• जानत नहिं लगि मैं
• वंस बड़ौ बड़ी संगति पाइ
• गाहि सरोवर सौरभ लै
• बिरहानल दाह दहै तन ताप
• सौंह कियें ढरकौहे से नैन
• केसरि से बरन सुबरन
• रतनारी हो थारी आँखड़ियाँ
• हो झालौ दे छे रसिया नागर पनाँ
• उड़ि गुलाल घूँघर भई
• मैं अपनौ मनभावन लीनों
• पावस रितु बृन्दावनकी
काव्यगत विशेषताएं
(अ) भाव पक्ष
बिहारी गागर में सागर भरने के लिए विख्यात हैं। गागर में सागर का अभिप्राय है कि कम-से-कम शब्दों-में-अधिक से अधिक बात कह दी जाए। वास्तव में बिहारी में ‘दोहा’ जैसे छोटे छंद में एक साथ विविध भाव भर दिए हैं। यथा –
दृग उरझत टूटत कुटुम, जुरत चतुर-चित प्रीति।
परति गांठि दुरजन हियैं, दई नई यह रीति।।
श्रंगारिक कवि होने पर भी बिहारी ने भक्ति और नीति संबंधी अनेक दोहों की रचना की है। इन्होंने राधा एवं श्री कृष्ण की स्तुति पर आधारित अनेक दोहे प्रस्तुत किए हैं। श्री कृष्ण को दिए गए उलाहने और उनके प्रति किए गए व्यंग में उनका कौशल दर्शनीय है-
कब कौ टेरतु दीन है, होत न स्याम सहाइ।
तुमहूं लागि जगतगुरु, जगनाइक जग-बाई।।
बिहारी ने बाह्य आडंबरों, जप, छापा, तिलक आदि का कबीर के समान ही विरोध किया है और श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन होने का संदेश दिया है। नीति संबंधी दोहों में भी बिहारी की सूक्ष्म द्रष्टि द्रष्टव्य है।
बिहारी श्रृंगार रस के अद्धितीय कवि हैं। इन्होंने कहीं राधा कृष्ण के सौंदर्य का चित्रण किया है तो कहीं नायक-नायिका के मिलन संबंधी प्रसंगो, नायिका के अंगों, विविध मुद्राओं और विविध हाव-भावों का अनुपम ढंग से चित्रण किया है। नख-शिख-वर्णन की परंपरा का पालन करते हुए बिहारी ने ऐसे रसपूर्ण दोहे लिखे हैं, जो इन्हें श्रेष्ठ श्रंगारी कवि सिद्ध करते हैं। यथा –
कहत,नटत,रीझत,खिझत,मिलत,खिलत, लजियात।
भरे भौन में करत हैं,नैननु ही सौं बात।।
(ब) कला पक्ष
भाषा – बिहारी की भाषा बड़ी ही प्रौढ़, प्रांजल, परिष्कृत एवं परिमार्जित ब्रजभाषा है। शब्द-गठन एवं वाक्य विन्यास सुव्यवस्थित है। इनकी भाषा में पूर्वी एवं बुंदेलखंडी के प्रभाव के साथ-साथ अरबी, फारसी के शब्दों के प्रयोग भी मिलते हैं। इन्होंने भाषा को अधिक संप्रेषणीय एवं प्रभावी बनाने के लिए लोकोक्तियों एवं मुहावरों का भी प्रयोग किया है। समास शक्ति से युक्त इनकी भाषा में शब्दों का चयन समान्यत: माधुर्य गुण के अनुकूल है।
शैली – बिहारी ने मुक्तक काव्य-शैली को स्वीकार किया है, जिसमें समास-शैली का अनूठा योगदान है। इसीलिए ‘दोहा’ जैसे छोटे छंद में भी उन्होंने अनेक भावों को भर दिया है। बिहारी को दोहा छंद सर्वाधिक प्रिय है। इनका संपूर्ण काव्य इसी छंद में रचा गया है। अलंकारों के प्रयोग में बिहारी दक्ष थे। इन्होंने छोटे-छोटे दोहों में अनेक अलंकारों को भर दिया है। इनके काव्य में श्लेष, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अन्योक्ति और अतिशयोक्ति अलंकारों का अधिक प्रयोग हुआ है।
रीतिकालीन कवि बिहारी अपने ढंग के अद्वितीय कवि हैं। तत्कालीन परिस्थितियों से प्रेरित होकर उन्होंने जिस साहित्य का सृजन किया, वह हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि है। सौंदर्य प्रेम के चित्रण में, भक्ति एवं नीति के समन्वय में, ज्योतिष-गणित-दर्शन के निरूपण में तथा भाषा के लक्षणिक एवं मधुर व्यंजक प्रयोग की दृष्टि से बिहारी बेजोड़ हैं। भाव और शिल्प दोनों दृष्टियों से इनका काव्य श्रेष्ठ है।
बिहारी के दोहे रस के सागर हैं, कल्पना के इंद्रधनुष है व भाषा के मेघ हैं। ये हिंदी साहित्य की महान विभूति हैं, जिन्होंने अपनी एकमात्र रचना के आधार पर हिंदी साहित्य जगत में अपनी अमिट छाप छोड़ी है।कई कवियों ने इनके दोहों पर आधारित अन्य छंदों की रचना की है। इनके दोहे सीधे हृदय पर प्रहार करते हैं। इनके दोहों के विषय में निम्नलिखित उक्ति प्रसिद्ध है-
“सतसैया के दोहरे, ज्यों नावक के तीर।
देखन में छोटे लगै, घाव करैं गंभीर।।”