जन्मकाल 1753 से 1833 ई० | कवियों में पद्माकर का नाम आदर से लिया जाता है। बिहारी के बाद ये रीतिकाल के सर्वाधिक लोकप्रिय कवि हैं। इनकी जैसी लोकप्रियता बहुत कम कवियों को प्राप्त होती है। पद्माकर के एक महान विद्वान एवं कवि थे। पद्माकर का जन्म बांदा में 1753 ई० में हुआ और 80 वर्ष की आयु पाकर 1835 ई० में इनका स्वर्गवास हुआ।पदमाकर किसी एक स्थान पर टिक कर नहीं रह पाए । हिम्मत बहादुर अवध के बादशाह की सेना के बड़े अधिकारी थे। उनकी वीरता पर मुग्ध होकर पद्माकर ने हिम्मत बहादुर विरुदावली की रचना की। यह वीररस की फडफड़ाती हुई रचना है।सतारा के महाराज रघुनाथ राव (राघोबा) ने इन्हें एक हाथी, ₹1,00,000 और 10 गांव प्राप्त हुए।तत्पश्चात पद्माकर जयपुर के महाराज प्रताप सिंह के यहाँ रहे।उनके पुत्र जगत सिंह के संरक्षण में रहकर पद्माकर ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ जगत विनोद की रचना की। यहीं पर उन्होंने अपने अलंकारग्रंथ पद्माभरण की रचना की। महाराजा जगत सिंह के स्वर्गवास के बाद ग्वालियर के महाराजा दौलतराव सिंधिया के दरबार में भी रहे।हितोपदेश का भाषा अनुवाद उन्होंने ग्वालियर में रहकर किया। बाद में ये ग्वालियर से बूंदी गए और वहाँ कुछ काल तक रहने के बाद बाँदा आ गई। अंतिम समय में ये रोग ग्रस्त रहते थे।तभी इन्होंने प्रबोधपचासा की रचना की। अंतिम समय निकट जाकर ये कानपुर के गंगा तट पर रहने लगे और वहीं उन्होंने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक गंगालहरी की रचना की।
इनके द्वारा लिखे गए प्रमुख ग्रंथ इस प्रकार है-हिम्मत बहादुर विरुदावली, (वीररस प्रधान चरितकाव्य), प्रताप साहि विरुदावली(चरितकाव्य) कलि पच्चीसी (कलयुग का वर्णन), जगद्विनोद(श्रृंगार रस का ग्रंथ), पद्माभरण (अलंकारग्रंथ-लक्षण ग्रन्थ), प्रबोध पचासा(वैराग्य निरुपण) गंगा लहरी (गंगा महात्म्य)
जगद्विनोद में छह प्रकरण और 731 छंद है। शृंगार, रस एवं नायिकाभेद का विशद विवेचन किया गया है। काव्यांगों के लक्षण दोहों में है तथा उदहारण कवित-सवैयों में है। इस ग्रंथ की रचना के लिए आधार सामग्री भानुदत्त की रसमंजरी, केशव की रसिकप्रिया और विश्वनाथ के साहित्यदर्पण से ली गई है। इस ग्रंथ की विशेषता यह है कि लक्षण सुबोध हैं तथा उदाहरण सरस है।
पद्माकर की गणना अच्छे कवियों में होती हैं। इनकी रचनाओं में कवित्व का पूर्ण उत्कर्ष दिखाई पड़ता है।मधुर और स्वाभाविक कल्पना, सजीव मूर्तिविधान एवं उपयुक्त शब्द चयन के कारण इनकी कविता का भावपक्ष एवं कला पक्ष दोनों ही सशक्त बन पड़े हैं। भाषा की प्रवाहमयता एवं विषय की सरसता के कारण पद्माकर रीतिकाल के श्रेष्ठ कवियों में स्थान पाते रहे है।इनका होली विषयक एक प्रसिद्ध सवैया इस प्रकार है-
फागु की भीर अभीरन में गहि | गोविन्द ले गई भीतर गोरी। भाय करी मन की पद्माकर। ऊपर नाय अबीर की झोरी। छीनि पितम्बर कम्मर ते सु विदा दई मिडी कपोलन रोरी। नैन नचाय कहीं मुसकाय लला। फिरि आइयो खेलन होरी।|