पृष्ठभूमि
- जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित ‘स्कन्दगुप्त’ नाटक 1928 में प्रकाशित एक ऐतिहासिक नाटक है।
- स्कंदगुप्त नाटक में गुप्तवंश के सन् 455 से लेकर सन् 466 तक के 11 वर्षों का वर्णन है।
- इस नाटक में लेखक ने गुप्त कालीन संस्कृति, इतिहास, राजनीति संधर्ष, पारिवारिक कलह एवं षडयंत्रों का वर्णन किया है।
- स्कंदगुप्त हूणों के आक्रमण (455 ई०) से हूण युद्ध की समाप्ति (466) तक की कहानी है। गुप्त राजवंश का समय 275 ई० से 540 ई० तक रहा।
- यह नाटक देशभक्त, वीर, साहसी, प्रेमी स्कंदगुप्त विक्रमादित्य के जीवन पर आधारित ऐतिहासिक नाट्यकृति है।
- नाटक का आरम्भ स्कंदगुप्त के इस कथन से होता है। “अधिकार सुख कितना मादक और सारहीन है।”
नाटक की ऐतिहासिकता
- मगध का गुप्त राजवंश, मालव का राजवंश, विक्रमादित्य और कालिदास।
- प्रसाद जी – “पात्रों की ऐतिहासिकता के विरुद्ध चरित्र की दृष्टि जहाँ तक सम्भव हो सका है वही होने दिया गया है, फिर भी कल्पना का अवलंब लेना ही पड़ा केवल घटना की परंपरा ठीक करने के लिए। उनके अनुसार उन्होंने कल्पना का सहारा उतना ही लिया है जिससे कहानी को आगे बढ़ाया जा सके। सारे विद्वान भी इससे सहमत है।”
- डॉ नागेन्द्र – “उनके (जयशंकर प्रसाद) नाटकों में पौराणिक युग के ‘जनमेजय का नागयज्ञ’ से लेकर हर्षवर्धन-युग (राज्यश्री) तक के भारतीय इतिहास की गौरवमयी झांकी देखने को मिलती है।
- डॉ रामचन्द्र तिवारी – “प्रसाद के नाटक ऐतिहासिक तथ्यों की रक्षा करते हुए भी सांस्कृतिक वातावरण उपस्थित करने में पुर्णतः सफल है। उसमे राष्ट्रीय चेतना सर्वत्र देखी जा सकती है।”
- रामचंद्र शुक्लजी – “हमारे वर्तमान नाटक क्षेत्र में डॉ नाटककार बहुत ऊँचे स्थान पर दिखाई पड़े- स्वर्गीय जयशंकर प्रसाद जी और श्री हरिकृष्ण ‘प्रेमी’। दोनों की दृष्टि में ऐतिहासिक काल की ओर रही है। प्रसाद जी ने अपना क्षेत्र हिंदूकाल के भीतर चुना और प्रेमी जी ने मुस्लिम काल के भीतर। प्रसाद के नाटकों में ‘स्कंदगुप्त’ श्रेष्ठ है और प्रेमी के नाटकों में ‘रक्षाबंधन’।
- डॉ बच्चन के शब्दों में- “उन्होंने कहा (जयशंकर प्रसाद) ऐतिहासिक, सांस्कृतिक नाटकों के माध्यम से अपनी सांस्कृतिक परंपरा और नए जातीय जीवन की जो प्रतोष्ठ की, उससे हमारी अस्मिता को एक सर्जनात्मक आकार मिला।”
सारांश
स्कंदगुप्त भारत में तीसरी से पांचवी सदी तक राज्य करने वाले गुप्त वंश के शासक थे। कुछ लोगों का मानना है कि ये आठवें और अंतिम महान शासक थे। स्कंदगुप्त जितने सालों तक शासन किए उतने ही वर्षों तक मध्य एशिया के कबीलाई हूणों से लड़ाई भी लड़े और वे जीते भी थे। यह भी कहा जाता है कि स्कंदगुप्त के शासन काल में जनता में कोई विद्रोह नहीं हुआ था और न ही कोई व्यक्ति बेघर हुआ था। वे बहुत ही संयमी तरीके से शासन कार्य करते थे। अपने कुशल नेतृत्व व योग्यता के बदौलत ही स्कंदगुप्त ने हूणों और पुष्यमित्रों को लड़ाई में पराजित किया जिसके कारण उन्हें विक्रमादित्य की उपाधि मिली।
नाटक के उद्देश्य
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- बाहरी लोगों से लड़ने के पश्चात विजयी होने पर सांस्कृतिक विजय।
- गुप्त साम्राज्य जब बिखर रहा था, उस अवसर पर स्कंदगुप्त के रूप में एक वीर नायक का आना। इसके द्वारा अंग्रेज के पराधीन तत्कालीन समाज को एक रास्ता दिखाना।
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- डॉ बच्चन – “वस्तविकता तो यह है कि वे वर्तमान में अपने समसामयिक समस्याओं के बिंदु से अतीत को देखते और भविष्य को परिकल्पित करते हैं। अतीत, वर्तमान और भविष्य उनके लिए अखंड, एक कालिक और अविभाज्य है।”
- दशरथ ओझा – “इस नाटक में मनुष्य को पूर्णता पर पहुँचने का एक मार्ग दिखाया गया है, जिसे भागवत धर्म कहते हैं।”
- प्रो० वासुदेव – “प्रसाद जी ने भारतीय इतिहास के इन गौरवपूर्ण पृष्ठों को नाटक का रूप केवल इसलिए नहीं दिया कि वह इसके माध्यम से अतीत कालीन भारतीय संस्कृति का गुणगान करना चाहते थे, अपितु उन्होंने अतीत के माध्यम से वर्तमान का अध्ययन किया है। समसामयिक समस्याओं को उठाया है और उसका समाधान प्रस्तुत किया है तथा अनागत के लिए सन्देश भी दिया है।”
- जयशंकर प्रसाद – “इतिहास का अनुशीलन किसी भी जाती को अपना आदर्श संगठित करने के लिए अत्यंत लाभदायक होता है। मेरी इच्छा भारतीय इतिहास के अप्रकाशित अंश में से उन प्रकाण्ड घटनाओं की दिग्दर्शन कराना है, जिन्होंने हमारी वर्तमान स्थिति को बनाने का प्रयत्न किया है।”
पात्रों के आधार पर
जयशंकर प्रसाद – “स्कंदगुप्त’ विक्रमादित्य होना प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध होता है।” ‘मातृगुप्त’ (कालिदास) और धातुसेंन को भी साक्ष्यों के आधार पर जयशंकर प्रसाद ने ऐतिहासिक पात्र माना है। “भीमवर्म्मा, चक्रपाणी, पर्णदत्त, शर्वानाग, पृथ्वीसेन, खिंगिल, प्रख्यातकीर्ति, भीमवर्म्मा, गोविन्दगुप्त, आदि सभी ऐतिहासिक व्यक्ति हैं।जयशंकर प्रसाद जी ने केवल दो पात्रों को कल्पित माना है। “इसमें प्रपंचबुद्धि और मुद्गल हैं। स्त्री पात्रों में स्कन्द की जननी का नाम मैंने देवकी रखा है।
स्कंदगुप्त के एक शिलालेख में- “हतरिपुरिव कृष्णों” देवकीमभ्युपेत मिलता है। संभव है कि स्कंद की माता का नाम देवकी से ही कवि को यह उपमा सूझी हो। अनंतदेवी का तो स्पष्ट उल्लेख पुरगुप्त की माता के रूप में मिलता है। यही पुरगुप्त स्कंदगुप्त के बाद शासक हुआ है।” “देवसेना और जयमाला वास्तविक और काल्पनिक पात्र दोनों हो सकते है। विजय, कमला, रामा और मालिनी जैसी दूसरी नामधारी स्त्री की भी उस काल में संभावना हैतब भी ये कल्पित है” कहानी भी ऐतिहासिक पात्रों के इर्द-गिर्द घूमती है।
अंक
स्कंदगुप्त नाटक में कुल पाँच (5) अंक, तैतीस (33) दृश्य और गीतों की संख्या सत्रह (17) हैं।
- प्रथम अंक में सात (7) दृश्य
- दूसरा अंक में सात (7) दृश्य
- तीसरा अंक में छह (6) दृश्य
- चौथा अंक में सात (7) दृश्य
- पाँचवा अंक में छह (6) दृश्य
नाटक के पात्रों के प्रकार
- देवपात्र – स्कंदगुप्त, देवसेना, पर्णगुप्त और बंधुवर्म्मा
- दानवपात्र – भटार्क, प्रपंचबुद्धि, अनंतदेवी और विजया
- मानवपात्र – शर्वानाग और जयमाला
पुरुष पात्रों =17
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- स्कंदगुप्त- युवराज (विक्रमादित्य) स्कंदगुप नाटक, देशप्रेमी, नीतिज्ञ, स्वाभिमानी, वीरयोद्धा और स्त्रियों का सम्मान करता है।
- कुमारगुप्त- मगध का सम्राट और महादंडनायक
- गोविन्दगुप्त- कुमार का भाई
- पर्णदत्त- मगध का महानायक
- चक्रपालित- पर्णदत्त का पुत्र
- बंधुवर्म्मा- मालव का राजा
- भीमवर्म्मा- बंधुवर्म्मा का भाई
- मातृगुप्त- (काव्यकर्ता कालिदास)
- प्रपंचबुद्धि- बौद्ध कापालिक
- शर्वनाग- अंतर्वेद का विषयपति
- कुमारदास (धातुसेन)- सिंहल का राजकुमार
- पुरगुप्त- कुमारगुप्त का छोटा भाई
- भटार्क- नवीन महाबलाधिकृत
- पृथ्वीसेन- मंत्री कुमारामात्य
- खिंगिल- हूण आक्रमणकारी
- मुद्गल- विदूषक
- प्रख्यातकीर्ति- लंकाराज-कुल का श्रमण, महा-बोधिबिहार स्थविर महाप्रतिहार, महादंडनायक, नंदीग्राम का दंडनायक, प्रहरी, सैनिक आदि।
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स्त्री-पात्र=8
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- देवकी- कुमार गुप्त की बड़ी रानी, स्कंद की माता
- अनन्तदेवी- कुमारगुप्त की छोटी रानी, पुरगुप्त की माता
- जयमाला- बंधुवर्म्मा की स्त्री, मालव की रानी
- देवसेना- बंधुवर्म्मा की बहन
- विजया- मालव के धनकुबेर की कन्या
- कमला- भटार्क की जननी
- रामा- शर्वानाग की स्त्री
- मालिनी- मातृगुप्त की प्रणयिनी सखी, दासी इत्यादि।
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गीतों की संख्या सत्रह (17) है।
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- देवसेना के पाँच (5) गीत,
- ]विजया के दो (2) गीत, न
- र्तकियों के दो (2) गीत,
- नेपथ्य से दो (2) गीत,
- देवसेना की सखी का एक (1) गीत,
- मातृगुप्त और मुद्गल का सम्मिलित स्वर में प्रार्थना गीत एक (1)
- मातृगुप्त के दो (2) गीत,
- समूहगान एक (1) और
- स्कंदगुप्त का एक (1) गीत
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संक्षिप्त कथावस्तु
पहला अंक
इस अंक में गुप्त साम्राज्य में आतंरिक विद्रोह को दिखाया गया है। कुमारगुप्त के शासनकाल में गुप्त साम्राज्य की शांति व्यवस्था में अशांति होते हुए दिखाया गया है। सम्राट की योग्यता, विरसेन की असमय मृत्यु और विदेशियों के आक्रमण से गुप्त साम्राज्य पर प्रश्नचिन्ह लग जाता है। ईएसआई स्थिति में स्कंदगुप्त का कर्तव्य स्वाभाविक रूप से बढ़ जाता है पारिवारिक विद्रोह की शान्ति और आर्यावर्त के गौरव की रक्षा उसका प्रथम कर्तव्य बन जाता है इसी समय पुरुगुप्त, भटार्क और अनन्तदेवी की षड्यंत्र पूर्ण योजना से सम्राट की मौत हो जाती है। साम्राज्य के परम शुभ चिन्तक पृथ्वीसेन, महाप्रतिहार और दण्डनायक आत्महत्या कर लेते हैं। ऐसे स्थिति में स्कंदगुप्त विचलित हो जाता है, फिर भी लक्ष्य प्राप्ति करने की दिशा में वह अपनी पुरी शक्ति लगाकर जुट जाता है।
प्रथम अंक में सात दृश्य हैं
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- प्रथम दृश्य: उज्जयनी में गुप्त साम्राज्य के स्कंधावार में स्कंदगुप्त और पर्णदत्त, चार, दूत और चक्रपालित।
- दसरा दृश्य: कुसुमपुर के राजमंदिर में सम्राट कुमारगुप्त भटार्क, मुद्गल, धातुसेन, पृथ्वीसेन आदि बाद में अनंतदेवी और नर्तकियाँ भी वहाँ पर आ जाती हैं।
- तीसरा दृश्य: पथ में मातृगुप्त और मुद्गल, बाद में कुमारदास भी आ जाता है।
- चौथा दृश्य: अनंतदेवी के प्रकोष्ट (कोई भी इमारत का आँगन) में अनंतदेवी और दासी जाया, फिर भटार्क भी आ जाता है।
- पाँचवा दृश्य: अनंतपुर के द्वार पर शर्वानाग का पहरा
- छठा दृश्य: नगर के एक पथ पर मुद्गल और मातृगुप्त।
- सातवां दृश्य: अवन्ती दुर्ग में देवसेना, विजय और जयमाला, फिर बन्धुवर्मा का आक्रमण से उत्पन्न स्थिति पर चिंता।
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दूसरा अंक
दूसरे अंक में स्कंदगुप्त अपने लक्ष्य के लिए प्रयासरत होता है। परन्तु उसके सामने दो समस्याएँ होती हैं। एक गृह संघर्ष और दूसरा बाहरी आक्रमण से देश की रक्षा करना। गृह संघर्ष का पता अनन्त देवी और भटार्क के षड्यंत्रों से चलता है। इसी अंक में वे दोनों देवकी की हत्या का षड्यंत्र रचते हैं। उसी समय स्कंदगुप्त कुसुमपुर पहुँचकर पहले अपनी माता की रक्षा करता है। इसके बाद दुश्मनों से सामना करने के लिए वह अपनी सारी सैन्य शक्ति को एकजुट करके राज्य प्राप्त करने में सफल सिद्ध होता है। उसे राज्य की प्राप्ति होती है। दूसरी ओर उसे दुश्मनों के सामने बंदी बना के लाया जाता है।
दूसरे अंक में भी सात दृश्य हैं
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- पहला दृश्य: मालव में शिप्रा-तट-कुंज में देवसेना और विजय-स्कंदगुप्त के प्रति विजय के आकर्षण का संकेत।
- दूसरा दृश्य: मठ में प्रपंचबुद्धि, भटार्क और शर्वानाग
- तीसरा दृश्य: देवकी के राजमंदिर के बाहरी भाग में मदिरोमंत शर्वानाग
- चौथा दृश्य: बंदीगृह में देवकी और रामा
- पाँचवा दृश्य: अवन्ती दुर्ग में बन्धुवर्मा, भीमवर्मा और जयमाला, बाद में देवसेना
- छठा दृश्य: पथ में भटार्क और उसकी माता कमला
- सातवां दृश्य: मालव की राजसभा में बन्धुवर्मा, भीमवर्मा, मातृगुप्त, मुद्गल, स्कंदगुप्त, गोविन्दगुप्त, देवकी, बन्धुवर्मा, जयमाला, देवसेना आदि।
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तीसरा अंक
इस अंक में भटार्क प्रपंचबुद्धि और अनंतदेवी के षड्यंत्र का सामना करना, स्कंदगुप्त और मातृगुप्त के द्वारा देवसेना की रक्षा करना, पश्चिमोत्तर की सीमाओं से दुश्मनों का आक्रमण, भटार्क का धोखा देना, युद्धभूमि में दुश्मनों से मील जाना, भटार्क को तत्पश्चात क्षामा कर देना आदि शामिल है।
तीसरे अंक में छह दृश्य हैं:
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- पहला दृश्य: शिप्रा-तट पर प्रपंचबुद्धि और भटार्क
- दूसरा दृश्य: शमशान में स्कंदगुप्त जो देवसेना और वुज्य के आने पर छिप जाता है।
- तीसरा दृश्य: मगध में अन्न्त्देवी, पुरगुप्त विजय और भटार्क।
- चौथा दृश्य: उपवन में जयमाला और देवसेना, कुछ सखियाँ
- पाँचवा दृश्य: गांधार-घाटी के रणक्षेत्र में बन्धुवर्मा द्वारा सैनिकों का उद्बोधन
- छठा दृश्य: दुर्ग के सामने कुंभा का रणक्षेत्र- चक्रपालित और स्कन्द फिर भटार्क
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चौथा अंक
इस अंक में विपरीत परिस्थितियों और षडयंत्रों में अकेला ही जूझता हुआ दिखाया गया है। उसकी माँ का स्वर्गवास, जीवन के दूसरे साधन में व्यस्थता, भटार्क के कारण वुज्य और अनन्तदेवी में विरोध की स्थिति, शर्वनाग से प्रभावित विजय का भी देश्कल्याण की भावना से प्रेरित होकर क्रियाशील होना, देवकी की मृत्यु से भटार्क को भी बहुत बड़ी शिक्षा मिलता है और वह संघर्ष से विमुख होकर रहने का संकल्प, प्रेम के क्षेत्र में भी अनेक महत्वपूर्ण परिवर्तन विजय का स्कन्द से फिर आसक्त होकर हूणों से भयभीत देवसेना को सहायता करना और अनेक प्रकार की उलझनों के बावजूद भी देवसेना के अनुराग के प्रति स्कंदगुप्त को सजग बताया जाता है।
चौथे अंक में सात दृश्य हैं:
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- पहला दृश्य: प्रकोष्ट में विजया और अनंतदेवी
- दूसरा द्दृश्य: भटार्क के शिविर में नर्तकी का गीत
- तीसरा दृश्य: काश्मीर के न्यायाधिकरण में मातृगुप्त, दण्डनायक, देवव्रत, और वेश्या मालिनी, जो कभी मातृगुप्त की प्रेयसी रही थी।
- चौथा दृश्य: इस दृश्य में धातुसेन और प्रख्यातकीर्ति
- पाँचवा दृश्य: बिहार के समीप चातुष्यपथ
- छठा दृश्य: पथ में विजय और मातृगुप्त फिर चक्रपाणी और भीमवर्मा
- सातवां दृश्य: कमला की कुटी में विचित्र स्थिति में स्कंदगुप्त पराजित और निराश
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पाँचवा अंक
इस अंक में भटार्क के दक्ष सैन्य संचालन के कारण विपक्ष का महत्वपूर्ण गढ़ बिखर जाता है। अनन्तदेवी और धर्मसंघों में विरोध की स्थिति उत्पन्न होती है। दूसरी ओर पर्णदत्त के सहयोग से स्कंदगुप्त को धनराशि की उपलब्धि, आर्यावर्त के गौरव की रक्षा, फिर रण क्षेत्र में ही पुरुगुप को रक्त का टीका लगाकर पारिवारिक अशांति पर विजय प्राप्त करना और सकंद्गुप्त के सारे प्रयास सफल होता हुआ दिखाया जाता है। सामाजिक सफलता के रूप में सबकुछ पाकर भी नायक अपने व्यक्तिगत जीवन में अतृप्त की पीड़ा से त्रस्त है। देवसेना के चरणों पर अपना सर्वस्व लुटाने वाले स्कंदगुप्त को देवसेना इसलिए उपलब्ध नहीं हो सकी क्योंकि उसे मालव राज के सम्मान का बड़ा ध्यान था। स्कंदगुप्त आँसू बहाता रह जाता है और स्कंदगुप्त के करूंण उच्छावास से ही नाटक का अंत हो जाता है।
पाँचवें अंक में छह दृश्य हैं:
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- पहला दृश्य: पथ में मुद्गल का स्वागत और अनेक सूचनाएँ मिलती है
- दूसरा दृश्य: कनिष्क स्तूप के पास महादेवी की समाधि के निकट पर्णदत्त फिर एक नागरिक
- तीसरा दृश्य: अत्यंत संक्षिप्त दृश्य है जिसमे वेश बदलते हुए मातृगुप्त, भीमवर्मा, चक्रपाणी, कमला, स्कन्द आदि की भीड़
- चौथा दृश्य: अत्यन्र संक्षिप्त दृश्य महाबोधि विहार में अनंतदेवी, पुरगुप्त, प्रख्यातकीर्ति और हूण सेनापति
- पाँचवा दृश्य: रणक्षेत्र में स्कन्द, भटार्क, चक्रपाणी, पर्णदत्त, मातृगुप्त, भीमवर्मा, और सेना
- छठा दृश्य: उद्यान के एक भाग में अकेली देवसेना स्वागत और वेदनापूर्ण गीत, आह वेदना मिली विदाई”
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