वो बचपन याद बहुत आता है

वो सुहानी यादें फिर बटोर लाता है

वो बचपन था जन्नत का बसेरा

ना कुछ तेरा था ना कुछ मेरा

उस जमाने सब हमारा था

वो बहनों भाइयों का प्यार भी न्यारा था

न चालाकी ना हेरा फेरी थी

ना होशियारी ना गद्दारी थी

हर रिश्ते में एक वफादारी थी

वो स्कुल का पहला दिन

जब मां नहलाकर बड़े प्यार से काजल का टिका लगाकर

अपनी गोद में बैठकर

बहन जी अच्छे से समझकर

जल्दी ले जाने का वादा बताकर

चली जाती थी अपने आँचल का पल्लू छुड़ाकर

सब याद आ रहा है

सीना मेरा आंसुओं से भरा जा रहा है

स्कुल में सहमे से रहता

कुछ लिखता ना कुछ कहता

वो धीरे से बहिन जी पास बुलाकर नाम पूछना

वो वो कुर्सी वो मेज वो टाट की पट्टी

वो बोरियों के थैलों पर बैठे बड़े भाई व् बहने

वो यूरिया के खाद से बना पहला स्कुल बैग

वो लकड़ी की तख्ती वो काली स्याही की बोतल

जो खासी की दवाई के बाद खली हुई थी

वो स्लेट वो बत्ती

वो पहली का कैदा

वो गजनी से तख्ती को पोछकर दोपहर को सुलेख लिखना

वो तख्ती को घुमाकर सुखाना

वो “ सूरज सूरज मेरी तख्ती सुखा दे” गीत गाना

वो झुण्ड ( छोटा बांस) के डंडे से कलम बनाना

उस अव्यवस्थित कलम से मोती पिरोना

वो टीचर की शाबाश वो इनाम की पंजी

वो आधी छुट्टी की घंटी

वो शोर मचा के भागना घर की और

वो गलियों के चक्कर वो यार फक्कर

वो मुश्किल से दरवाजा खोलकर अन्दर जाना

वो लक्खन व् नमक से चुपड़ी रोटी खाना

वो हारे से भरकर एक गिलास दुध पीना

वो शमशान घाट की बेरियों के बेर तोड़ना

वो तेजी से दौड़ते साईकिल के पुराने टायरों को डंडे से मोड़ना

वो पूरी छुट्टी से पहले टीचर के साईकिल को साफ़ करना

वो मैडम के लिए जमींदारों के खेत से ताजा साग तोड़ना

वो टीचर के लिए नीम की दातुन तोड़ना

तब कहाँ आता था अध्यापक का कहना मोड़ना

वो पूरी छुट्टी की राहत

जब आ जाती थी घरों को वापिस आफत

वो घर पहुंचकर दुबारा खाना खाना

वो मां का अपने हाथ से पल्लू झुलाना

वो शाम की चाय का बड़ा गिलास

वो जल्दी मंदिर के पास दोस्तों के साथ कंचे खेलने की आस

वो ४ बजे भैसे चराना

वो स्कुल का काम खेत में बैठे बैठे निपटाना

वो शनिवार इतवार की शाम की फिल्मों का इन्तजार

वो रामायण के देखने का बुखार

वो इतवार सुबह की रंगोली के गाने

वो बुधवार के चित्रहार के तराने

क्या खूब थे वो भी जमाने

जब हर घर बजते थे स्पीकर पे गाने

वो रामायण देखने दूर ऊँची जात वालों के घर जाना

उनका हमें खिड़की या निचे जमीं पर बैठाना

ये उंच नींच के फर्क का पहला अहसास

वो सहपाठी जो कक्षा में साथ था उसकी ऊंचाई का भास

वो अपने लोगों की अलग थाली गिलास

उसी घर में देखा था ना होता कास

पर इस बुराई के बचपन में दर्शन

दुःख से टूट जाता है मन

वो कभी कभार गाँव में vcr का लगना

वो नई नई फिल्मों को देखने रातभर जागना

वो सर्दी की सुबह का जाड़ा

वो नंगे पांव ओस वाली घास पर चलना

वो नलके के गर्म गर्म पानी से नहाना

वो बड़े हो स्कुल जाने की जल्दी

वो खाकी पेंट व् सफ़ेद कमीज की वर्दी

वो पैदल ही क़दमों से दूरियां नापना

वो आते जाते लिफ्ट के लिए झांकना

वो कालेज में नए दोस्तों की टोली

थोड़ी मस्ती थोड़ी ठिठोली

थी हर रात दिवाली और हर दिन थी होली

वो हफ्ते के २० रूपये की जेब खर्ची मिलना

वो फटे कपड़ों को हाथों से सिलना

वो बेबसी वो लाचारी

समझ गये थे गरीबी है एक बिमारी

वो साथियों से मेल जोल न बढाना

याद आ गया वो सरकारी बसों में धक्के खाना

सब यादे एक एक कर आगे आ रही हैं

बचपन के ठन्डे झरोखों में ले जा रही हैं

माना की बिट गया बचपन मुफ्नसी में

पर ख़ुशी बेशुमार थी

ना थी कोई फिकर ना दिखावे की मार थी

आज कमा खूब लेता हूँ पर उस सुख शांति की कोई खबर

continue……………………

द्वारा-सुखविन्द्र

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