जीवन परिचय
भूषण वीर रस के कवि थे। हिन्दी रीति काल के अन्तर्गत, उसकी परम्परा का अनुसरण करते हुए वीर-काव्य तथा वीर-रस की रचना करने वाले प्रसिद्ध कवि हैं। इन्होंने शिवराज-भूषण में अपना परचिय देते हुए लिखा है कि ये कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। इनका गोत्र कश्यप था। ये ‘रत्नाकर त्रिपाठी’ के पुत्र थे तथा यमुना के किनारे त्रिविक्रमपुर (तिकवाँपुर) में रहते थे, जहाँ बीरबल का जन्म हुआ था और जहाँ विश्वेश्वर के तुल्य देव-बिहारीश्वर महादेव हैं। चित्रकूटपति हृदयराम के पुत्र रुद्र सुलंकी ने इन्हें ‘भूषण’ की उपाधि से विभूषित किया था। तिकवाँपुर कानपुर ज़िले की घाटमपुर तहसील में यमुना के बाएँ किनारे पर अवस्थित है। शिवसिंह संगर ने भूषण का जन्म 1681 ई. और ग्रियर्सन ने 1603 ई. लिखा है। कुछ विद्वानों के मतानुसार भूषण शिवाजी के पौत्र साहू के दरबारी कवि थे। कहने की आवश्यकता नहीं है कि उन विद्वानों का यह मत भ्रान्तिपूर्ण है। वस्तुत: भूषण शिवाजी के ही समकालीन एवं आश्रित थे।
भूषण छत्रपति शिवाजी और पन्ना के राजा छत्रसाल बुंदेला के आश्रय में रहने वाले ऐसे रीतिकालीन कवि हैं जिन्होंने वीर रस की कविताएं लिखकर अपूर्व ख्याति अर्जित की है। इनका जन्मकाल।1613 ई० में माना गया है। भूषण के विषय में कहा जाता है कि उनकी पालकी में स्वयं महाराज छत्रसाल में अपना कंधा लगाया था।भूषण ने जिन दो नायकों को अपने वीरकाव्य का विषय बनाया है, वे अन्याय-दमन में तत्पर हिंदू धर्म के संरक्षक, दो इतिहास प्रसिद्ध वीर महाराज शिवाजी एवं छत्रसाल बुंदेला थे। अतः उनके द्वारा वर्णित प्रशस्तियां रीतिकाल के अन्य कवियों जैसी झूठी खुशामद नहीं थी। तभी तो भूषण के उद्धार सारी जनता के हृदय की संपत्ति बन गई। आचार्य शुक्ल के अनुसार- इन दो वीरों का जिस उत्साह के साथ सारी हिंदू जनता स्मरण करती है उसी की व्यंजना भूषण ने की है। वे हिंदू जाति के प्रतिनिधि हैं।
भूषण उपाधि
चित्रकूट के सोलंकी राजा रुद्र ने इन्हें कविभूषण की उपाधि दी थी। तभी से ये भूषण के नाम से ही प्रसिद्ध हो गए। इनका असली नाम क्या था, इसका पता नहीं। ये कई राजाओं के यहाँ रहे। अंत में इनके मन के अनुकूल आश्रयदाता, जो इनके वीरकाव्य के नायक हुए, छत्रापति महाराज शिवाजी मिले। पन्ना के महाराज छत्रसाल के यहाँ भी इनका बड़ा मान हुआ। कहते हैं कि महाराज छत्रसाल ने इनकी पालकी में अपना कंधा लगाया था जिस पर इन्होंने कहा था – सिवा को बखानौं कि बखानौं छत्रसाल को। ऐसा प्रसिद्ध है कि इन्हें एक एक छंद पर शिवाजी से लाखों रुपये मिले।
वीर रस
शिवाजी और छत्रसाल की वीरता के वर्णनों को खुशामद नहीं कहा ज सकता। वे आश्रयदाताओं की प्रशंसा की प्रथा के अनुसरण मात्र नहीं हैं। इन दो वीरों का जिस उत्साह के साथ सारी हिंदू जनता स्मरण करती है उसी की व्यंजना भूषण ने की है। वे हिंदू जाति के प्रतिनिधि कवि हैं। शिवाजी के दरबार में पहुँचने के पहले वे और राजाओं के पास भी रहे। उनके प्रताप आदि की प्रशंसा भी उन्हें अवश्य ही करनी पड़ी होगी। पर वह झूठी थी। बाद में भूषण को अपनी उन रचनाओं से विरक्ति ही हुई होगी। भूषण वीररस के ही कवि थे। इधर इनके दो-चार कवित्त, श्रृंगार के भी मिले हैं, पर वे गिनती के योग्य नहीं हैं।
भूषणरचित छ: ग्रन्थ बतलाये जाते हैं। इनमें से ये तीन ग्रन्थ-
- ‘भूषणहज़ारा’
- ‘भूषणउल्लास’
- ‘दूषणउल्लास’ यह ग्रंथ अभी तक देखने में नहीं आये हैं।
शिवराज भूषण ने अपनी इस कृति की रचना-तिथि ज्येष्ठ वदी त्रयोदशी, रविवार, संम्वत् 1730, 29 अप्रैल, 1673 ई. रविवार को दी है।शिवराज- भूषण में उल्लेखित शिवाजी विषयक ऐतिहासिक घटनाएँ 1673 ई. तक घटित हो चुकी थीं। इससे भी इस ग्रन्थ का उक्त रचनाकाल ठीक ठहरता है। साथ ही शिवाजी और भूषण की समसामयिकता भी सिद्ध हो जाती है। ‘शिवराज-भूषण’ में 384 छन्द हैं। दोहों में अलंकारों की परिभाषा दी गयी है तथा कवित्त एवं सवैया छन्दों में उदाहरण दिये गये हैं, जिनमें शिवाजी के कार्य-कलापों का वर्णन किया गया है। रीतिकाल के कवि होने के कारण भूषण ने अपना प्रधान ग्रंथ ‘शिवराजभूषण’ अलंकार के ग्रंथ के रूप में बनाया। पर रीतिग्रंथ की दृष्टि से, अलंकार निरूपण के विचार से यह उत्तम ग्रंथ नहीं कहा जा सकता। लक्षणों की भाषा भी स्पष्ट नहीं है और उदाहरण भी कई स्थलों पर ठीक नहीं हैं।
शिवा बावनी
शिवाबावनी में 52 छन्दों में शिवाजी की कीर्ति का वर्णन किया गया है।
छत्रसाल दशक
छत्रसालदशक में दस छन्दों में छत्रसाल बुन्देला का यशोगान किया गया है। भूषण के नाम से प्राप्त फुटकर पद्यो में विविध व्यक्तियों के सम्बन्ध में कहे गये तथा कुछ श्रृंगारपरक पद्य संग्रहीत हैं।
काव्यगत सौन्दर्य
भूषण की सारी रचनाएँ मुक्तक-पद्धति में लिखी गयी हैं। इन्होंने अपने चरित्र-नायकों के विशिष्ट चारित्र्य-गुणों और कार्य-कलापों को ही अपने काव्य का विषय बनाया है। इनकी कविता वीररस, दानवीर और धर्मवीर के वर्णन प्रचुर मात्रा में मिलते हैं, पर प्रधानता युद्धवीर की ही है। इन्होंने युद्धवीर के प्रसंग में चतुरंग चमू, वीरों की गर्वोक्तियाँ, योद्धाओं के पौरुष-पूर्ण कार्य तथा शस्त्रास्त्र आदि का सजीव चित्रण किया है। इसके अतिरिक्त रौद्र, भयानक, वीभत्स आदि प्राय: समस्त रसों के वर्णन इनकी रचना में मिलते हैं पर उसमें रसराजकता वीररस की ही है। वीर-रस के साथ रौद्र तथा भयानक रस का संयोग इनके काव्य में बहुत अच्छा बन पड़ा है।
रीतिकार के रूप में भूषण को अधिक सफलता नहीं मिली है पर शुद्ध कवित्व की दृष्टि से इनका प्रमुख स्थान है। इन्होंने प्रकृति-वर्णन उद्दीपन एवं अलंकार-पद्धति पर किया है। ‘शिवराजभूषण’ में रायगढ़ के प्रसंग में राजसी ठाठ-बाट, वृक्षों लताओं तथा पक्षियों के नाम गिनाने वाली परिपाटी का अनुकरण किया गया है।
शैली
सामान्यत: भूषण की शैली विवेचनात्मक एवं संश्लिष्ट है। इन्होंने विवरणत्मक-प्रणाली की बहुत कम प्रयोग किया है। इन्होंने युद्ध के बाहरी साधनों का ही वर्णन के अतिरिक्त सन्तोष नहीं कर लिया है, वरन् मानव-हृदय में उमंग भरने वाली भावनाओं की ओर उनका सदैव लक्ष्य रहा है। शब्दों और भावों का सामंजस्य भूषण की रचना का विशेष गुण है।
भाषा
भूषण ने अपने समय में प्रचलित साहित्य की सामान्य काव्य-भाषा ब्रज का प्रयोग किया है। इन्होंने विदेशी शब्दों को अधिक उपयोग मुसलमानों के ही प्रसंग में किया है। दरबार के प्रसंग में भाषा का खड़ा रूप भी दिखाई पड़ता है। इन्होंने अरबी, फारसी और तुर्की के शब्द अधिक प्रयुक्त किये हैं। बुन्देलखण्डी, बैसवाड़ी एवं अन्तर्वेदी शब्दों का भी कहीं-कहीं प्रयोग किया गया है। इस प्रकार भूषण की भाषा का रूप साहित्यिक दृष्टि से बुरा भी नहीं कहा जा सकता। इनकी कविता में ओज पर्याप्त मात्रा में है। प्रसाद का भी अभाव नहीं है। ‘शिवराजभूषण’ के आरम्भ के वर्णन और श्रृंगार के छन्दों में माधुर्य की प्रधानता है। भूषण की भाषा में ओज की मात्रा तो पूरी है पर वह अधिकतर अव्यवस्थित है। व्याकरण का उल्लंघन है और वाक्यरचना भी कहीं कहीं गड़बड़ है। इसके अतिरिक्त शब्दों के रूप भी बहुत बिगाड़े गए हैं और कहीं कहीं बिल्कुल गढ़ंत के शब्द रखे गए हैं। पर जो कवित्त इन दोनों से मुक्त हैं वे बड़े ही सशक्त और प्रभावशाली हैं।
भूषण ने शिवराज भूषण और शिवा भावनी की रचना महाराज शिवाजी के आश्रय में रहकर की। इनमें से शिवराज भूषण अलंकारग्रंथ है। जिसमें 105 अलंकारों के लक्षण और उदाहरण जयदेव कृत चंद्रलोक के आधार पर दिए गए हैं। अलंकारों के लक्षण दोहों में तथा उदाहरण कवित्त-सवैयों में है।अब तक भूषण के लिखे उक्त तीन ग्रंथ ही उपलब्ध है। कुछ लोग इनके लिखे तीन और ग्रंथों का उल्लेख करते हैं, जिनमें है भूषण-उल्लास, दूषण-उल्लास, भूषण-हजारा।
भूषण की ख्याति आचार्य के रूप में उतनी नहीं है जितनी वीररस के कवि के रूप में।युग धर्म के अनुरूप उन्होंने अलंकार विषय ग्रंथ अवश्य लिखा। तथापि मूलतः वे ओजस्वी कवि है। उनकी भाषा ओजपूर्ण तो है किंतु वह अव्यवस्थित है। इनकी कविता में राष्ट्रीयता विद्यमान है। भारतीय संस्कृति के संरक्षकों की प्रशंसा में छंद लिखने वाले कवि के रूप में समग्र हिंदू जनता के द्वारा सराहे गए कभी है।
भूषण की कविता के उदाहरण दृष्टव्य है–
इंद्र जिमि जंभ पर, बाड़व सु अंभ पर,
रावन सदंभ पर रघुकुल राज हैं।
पौन वारिवाह पर, संभु रतिनाह पर,
ज्यों सहस्रबाहु पर राम द्विजराज हैं
दावा द्रुमदंड पर, चीता मृगझुंड पर,
भूषण वितुंड पर जैसे मृगराज हैं।
तेज तम अंस पर, कान्ह जिमि कंस पर,
त्यों मलेच्छ बंस पर सेर सिवराज हैं
डाढ़ी के रखैयन की डाढ़ी-सी रहति छाती,
बाढ़ी मरजाद जस हद्द हिंदुवाने की।
कढ़ि गई रैयत के मन की कसक सब,
मिटि गई ठसक तमाम तुरकाने की।
भूषन भनत दिल्लीपति दिल धाक धाक,
सुनि सुनि धाक सिवराज मरदाने की।
मोटी भई चंडी बिन चोटी के चबाय सीस,
खोटी भई संपति चकत्ता के घराने की
सबन के ऊपर ही ठाढ़ो रहिबे के जोग,
ताहि खरो कियो जाय जारन के नियरे।
जानि गैरमिसिल गुसीले गुसा धारि उर,
कीन्हों ना सलाम न बचन बोले सियरे
भूषन भनत महाबीर बलकन लाग्यो,
सारी पातसाही के उड़ाय गए जियरे।
तमक तें लाल मुख सिवा को निरखि भयो,
स्याह मुख नौरँग, सिपाह मुख पियरे।
दारा की न दौर यह, रार नहीं खजुबे की,
बाँधिबो नहीं है कैधौं मीर सहवाल को।
मठ विस्वनाथ को, न बास ग्राम गोकुल को,
देवी को न देहरा, न मंदिर गोपाल को।
गाढ़े गढ़ लीन्हें अरु बैरी कतलाम कीन्हें,
ठौर ठौर हासिल उगाहत हैं साल को।
बूड़ति है दिल्ली सो सँभारै क्यों न दिल्लीपति,
धाक्का आनि लाग्यौ सिवराज महाकाल को
चकित चकत्ता चौंकि चौंकि उठै बार बार,
दिल्ली दहसति चितै चाहि करषति है।
बिलखि बदन बिलखत बिजैपुर पति,
फिरत फिरंगिन की नारी फरकति है
थर थर काँपत कुतुब साहि गोलकुंडा,
हहरि हबस भूप भीर भरकति है।
राजा सिवराज के नगारन की धाक सुनि,
केते बादसाहन की छाती धारकति है
जिहि फन फूतकार उड़त पहार भार,
कूरम कठिन जनु कमल बिदलिगो।
विषजाल ज्वालामुखी लवलीन होत जिन,
झारन चिकारि मद दिग्गज उगलिगो
कीन्हो जिहि पान पयपान सो जहान कुल,
कोलहू उछलि जलसिंधु खलभलिगो।
खग्ग खगराज महाराज सिवराज जू को,
अखिल भुजंग मुग़लद्दल निगलिगो