दक्खिनी हिन्दी 

प्राचीनकाल से ही दक्खिनी में साहित्य सर्जन होता रहा है।क्षिण में प्रयुक्त होने के कारण इसे ’दक्खिनी’ बोली कहा जाता है। दक्खिनी का मूल आधार दिल्ली के आसपास की 14 वीं-15वीं सदी की खङी बोली है। मुस्लिम शासन के विस्तार के साथ हिन्दुस्तानी बोलने वाले प्रशासक, सिपाही, व्यापारी, कलाकार, फकीर, दरवेश इत्यादि भारत के पश्चिमी और दक्षिणी भाग में नए, उनके साथ यह भाषा भी पहुँची। उत्तर भारत से जाने वाले मुसलमानों और हिन्दुओं द्वारा प्रयुक्त होने लगी।इस पर बाद में उर्दू का भी प्रभाव पङा। साथ ही तमिल, तेलुगू तथा कन्नङ का भी प्रभाव लक्षित होता है।इसमें कुछ तत्व पंजाबी, हरियाणी, ब्रज तथा अवधी के भी हैं, क्योंकि इन क्षेत्रों से भी लोग दक्षिण में गए जिससे यह भाषा मिश्रित हो गई।इसका मुख्य क्षेत्र बीजापुर, गोलकुंडा, अहमदनगर तथा गौणतः बरार, मुम्बई तथा मध्य प्रदेश है।

दक्खिनी बोली की उपबोलियाँ

इसकी मुख्य उपबोलियाँ- गुलबर्गी, बीदरी, बीजपुरी और हैदराबादी है।

दक्खिनी बोली के प्रमुख साहित्यकार 

ख्वाजा बन्दा नेवाज गेसूरदराज कृत ’मेराजुल आशकीन’ दक्खिनी गद्य की पहली पुस्तक मानी जाती है। ’शिकारनामा’ और ’तिलावतुल- वजूद’ दो अन्य रचनाएँ है।
मुहम्मद कुली कुतुबशाह एक श्रेष्ठ कवि है।मुल्लाबजही दक्खिनी के विशेष उल्लेखनीय साहित्यकार है, ये मुहम्मद कुली कुतुबशाह के समकालीन थे, क्योंकि इनके द्वारा लिखी गई प्रेमकथा ’कुतुबमुश्तरी’ के नायक मुहम्मद कुली कुतुबशाह स्वयं है। मुल्लावजही कृत ’सबरस’ को उर्दू साहित्य की प्रथम गद्य रचना माना जाता है।हैदराबाद निवासी सैयद हुसेन अली खाँ ने 1838 ई. में ’चादरवेश’ का फारसी से दक्खिनी में अनुवाद किया था।

शरफुद्दीन-बू-अली कलन्दर ने लिखा है-

” सजन सकारे जाएँगे, नैंन मरेंगे रोय।
विधना ऐसी रैन का, भोर कबौं न होय।’

दक्खिनी बोली की विशेषताएँ 

इसमें ’महाप्राण’ व्यंजनों के स्थान पर ’अल्पप्राण’ व्यंजनों के प्रयोग की प्रवृत्ति है; जैसे- देक (देख), गुला (घुला), कुच (कुछ), समज (समझ), अदिक (अधिक) इत्यादि।

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