“ब्रजभाषा” को अंतर्वेदी के नाम से भी जाना जाता है। पश्चिमी हिन्दी की सर्वाधिक प्रमुख बोली “ब्रजभाषा” है जो इसलिए इतनी महत्त्वपूर्ण हो गई, क्योंकि इसका प्रयोग 600 वर्षों तक साहित्य में होता रहा। यही कारण है कि यह बोली के सीमित क्षेत्र को छोङकर भाषा कही जाने लगी। ब्रज शब्द संस्कृत के ब्रज शब्द का परिवर्तित रूप है। महाभारत काल तक यह शब्द स्थान या देशबोधक न होकर पशु समूह या चारागाह का बोध कराता था।ब्रज का जन्म शौरसेनी अपभ्रंश से हुआ।इसकी झलक 1000 ईo के आस-पास के ग्रंथों में दिखाई देती है। संदेशरसक और प्राकृत पैंगलम आदि संधिक़ालीन रचनाएँ ब्रज के रूप में सुरक्षित है।
पश्चिमी हिन्दी की पाँच बोलियाँ हैं –
(1) ब्रजभाषा
(2) कन्नौजी
(3) बुन्देली
(4) खङी बोली
(5) बांगरू
इनमें से साहित्य में सर्वाधिक प्रयोग ब्रजभाषा का ही हुआ।
ब्रजभाषा का क्षेत्र एवं सीमा विस्तार –
ब्रजभाषा का क्षेत्र मूलतः ब्रज क्षेत्र है, जिसके अन्तर्गत आगरा, मथुरा, अलीगढ़, एटा, फिरोजाबाद, हाथरस जनपद आते हैं। इसके अतिरिक्त यह बोली उत्तर प्रदेश में बदायूं जिले में, हरियाणा के गुङगांव जिले में, मध्य प्रदेश के ग्वालियर जिले में तथा राजस्थान के भरतपुर और धौलपुर जिलों में भी बोली जाती है। इसकी सीमावर्ती बोलियाँ हैं – कन्नौजी, बांगरू, बुन्देली, राजस्थानी।
साहित्यिक महत्त्व –
हिन्दी का पर्याप्त मध्यकालीन साहित्य ब्रजभाषा में लिखा गया है। सूरदास ब्रजभाषा के सर्वप्रथम कवि माने जाते हैं। उनकी रचनाएँ सुन्दर, प्रांजल ब्रजभाषा में लिखी गई हैं। उनके अतिरिक्त अष्टछाप के कृष्णभक्त कवियों – नन्ददास, परमानन्द दास, चतुर्भुजदास, कुंभनदास, आदि ने भी ब्रजभाषा में ही काव्य रचना की है।
ब्रजभाषा को इतना अधिक महत्त्व उस समय मिल गया था, कि अवधी के कवि गोस्वामी तुलसीदास ने भी विनय-पत्रिका, कवितावली, दोहावली आदि काव्य रचनाएँ ब्रजभाषा में ही लिखीं। केशव, मतिराम, चिन्तामणि, पद्माकर , ग्वाल, देव, बिहारी, घनानन्द, भूषण जैसे सैकङों कवियों ने इसी भाषा में काव्य रचना की।
ब्रजभाषा की व्यापकता के कारण ही ब्रजक्षेत्र के बाहर के कवि भी इसी भाषा में काव्य-रचना करते थे। आधुनिक काल के प्रथम चरण तक ब्रजभाषा काव्य भाषा के पद पर प्रतिष्ठित रही। भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र, जगन्नाथ दास रत्नाकर, सत्यनारायण कविरत्न ने ब्रजभाषा का प्रयोग काव्य-भाषा के रूप में किया।
गोकुल में बल्लभ सम्प्रदाय का केन्द्र बनने के बाद से ब्रजभाषा में कृष्ण साहित्य लिखा जाने लगा और इसी के प्रभाव से ब्रज की बोली साहित्यिक भाषा बन गई। भक्तिकाल के प्रसिद्ध महाकवि सूरदास से आधुनिक काल के श्री वियोगी हरि तक ब्रजभाषा में प्रबंध काव्य और मुक्तक काव्यों की रचना होती रही।
इस प्रकार भक्तिकाल से लेकर आधुनिक काल के प्रथम चरण तक एक दीर्घ अवधि हेतु ब्रजभाषा काव्य-भाषा के पद पर प्रतिष्ठित रही। आज भी ब्रजभाषा में काव्य-रचना हो रही है। विशेषतः ब्रज क्षेत्र के कवि कवित्त सवैया इसी भाषा में लिख रहे हैं।
पं. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र के अनुसार “ब्रज की वंशी- ध्वनि के साथ अपने पदों की अनुपम झंकार मिलाकर नाचने वाली मीरा राजस्थान की थीं, नामदेव महाराष्ट्र के थे, नरसी गुजरात के थे, भारतेंदु हरिश्चंद्र भोजपुरी भाषा क्षेत्र के थे। …बिहार में भोजपुरी, मगही और मैथिली भाषा क्षेत्रों में भी ब्रजभाषा के कई प्रतिभाशाली कवि हुए हैं। पूर्व में बंगाल के कवियों ने भी ब्रजभाषा में कविता लिखी।’
पश्चिम में राजस्थान तो ब्रजभाषा शैलियों का प्रयोग प्रचुर मात्रा में करता ही रहा ,गुजरात और कच्छ तक ब्रजभाषा शैली समादृत थी। कच्छ के महाराव लखपत बड़े विद्याप्रेमी थे। ब्रजभाषा के प्रचार और प्रशिक्षण के लिए इन्होंने एक विद्यालय भी खोला था।
पूर्वी राजस्थान में, ब्रज क्षेत्रीय भाषा शैली को ग्रहण करती हुई, पिंगल नामक एक भाषा- शैली का जन्म हुआ| पिंगल शब्द राजस्थान और ब्रज के सम्मिलित क्षेत्र में विकसित और चारणों में प्रचलित ब्रजी की एक शैली के लिए प्रयुक्त हुआ है। पिंगल का संबंध शौरसेनी अपभ्रंश और उसके मध्यवर्ती क्षेत्र से है।
व्याकरणिक विशेषताएँ –
(1) ब्रजभाषा की प्रधान प्रवृत्ति है शब्दों का औकारान्त होना। हिन्दी में जो शब्द आकारान्त हैं, वे ब्रजभाषा में औकारान्त हैं, कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं:
अपना > अपनौ
पआ > पिऔ
काला > कारौ
(2) ब्रजभाषा के पुल्लिंग एकवचन शब्दों के अन्त में ’उ’ तथा स्त्रीलिंग एकवचन शब्दों के अन्त में ’इ’ ध्वनि रहती है, यथा:-
माल > मालु
काम > कामु
(3) ब्रजभाषा के कुछ ध्वनि-परिवर्तन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं, यथा –
क > च क्यों > च्यों, चैं
ण > न वाण > बान, वकील – बकील
(4) ब्रजभाषा में स, श, ष के स्थान पर केवल ’स’ का उच्चारण होता है, यथा –
श्याम > स्यामु
ऋषि > रिसि
(5) ब्रजभाषा में ’व’ के स्थान पर ’म’ हो जाता है। यथा –
गांव > गाम
पांव > पाय खावेंगे
6) ब्रजभाषा में उत्तम पुरुष एकवचन में ’हौं’ सर्वनाम का प्रयोग होता है, जो इसकी प्रमुख विशेषता है-
यथा – मैं नहीं जाता > हौं ना जातु, आजु हौं गाय चरावन जैहों।
(7) ब्रजभाषा के अन्य पुरुष के सर्वनाम रूप में विशिष्ट हैं, यथा:-
वह – बू, बु, बुअ, (पुल्लिंग) गु, बा, ग्वा (स्त्रीलिंग)
वे – वे, वै, ग्वे, बिन, ग्विन, उन।
पुल्लिंग एवं स्त्रीलिंग में अन्य पुरुष के सर्वनाम अलग-अलग हैं।
(8) ब्रजभाषा में भविष्यकाल की क्रियाएँ ’ग’ और ’ह’ प्रत्ययों के योग से बनती हैं, यथा –
बू खातु होगौ। (वह खाता होगा)
हौं खातु हुंग्गौ। (मैं खाता हूँगा)
(9) भूतकाल की सहायक क्रिया के लिए ब्रजभाषा में हो, हे, ही, भयौ, भयी का प्रयोग होता है।
(10) ब्रजभाषा की संज्ञार्थक क्रियाएँ ’न’ और ’ब’ के योग से बनती हैं-
यथा: देखन, चलन, कहन
देखिबो, चलिबो, कहिबो।
जैसे – हम कछू करिबौ चाहत। वे कहन लागे।
(11) संख्यावाचक विशेषणों में कुछ विशिष्ट हैं-
यथा: एकु, द्वै, तीनि, चारि, छै, ग्यारा, बारा, तेरा, पन्द्रा, सोर्हा, अठारा, किरोङ आदि।
(12) ब्रजभाषा के कुछ विशिष्ट अव्यय निम्नलिखित हैं:-
अजौं, अजहूँ, पुनि, सदाई, इत, इतै, जित, मनौ, किमि, कतहूँ।
(13) ब्रजभाषा में निम्नलिखित क्रिया विशेषणों का प्रयोग होता है:-
काल वाचक – अबै, तबै, जबै, कबै, आजु, कालि, परौं, नरौ।
स्थान वाचक – यां, हियां, ह्यां, हियन, न्यां, उतै, बितै, मां, म्हां, तां, हितै, कां, कितै।
दिशा वाचक – इत, उत, कित, तित।
ब्रजभाषा का उदाहरण –
नानक के इस पद में देखिये—- ब्रजभाषा व हिन्दी का मिला जुला रूप है —
जो नर दुख नहिं माने।
सुख सनेह अरु भय नहिं जाके, कंचन माटी जानै।
नहिं निन्दा नहिं अस्तुति जाकें, लोभ मोह अभिमाना।
गुरु किरपा जेहि नर पै कीन्ही तिन्ह यह जुगति पिछानी।
नानक लीन भयो गोविन्द सौ ज्यों पानी सँग पानी।
‘अब रहियै न रहियै समयो बहती नदी पाँय पखार लै री।…(ठाकुर)
प्रसाद गुण और लयधर्मी प्रवाहशीलता का उत्कर्ष भी इस युग में पहुँचा। जैसे-
आगे नन्दरानी के तनिक पय पीवे काज
तीन लोक ठाकुर सो ठुनकत ठाड़ौ है...(पद्माकर)
गंध ही के भारन मद-मंद बहत पौन…द्विजदेव
रैदास के पद ब्रजभाषा के और अधिक विक्सित रूप में हैं —जो आधुनिक हिन्दी के निकट आते हुए हैं—-
अब कैसे छूटे नाम रट लागी।
प्रभुजी तुम चन्दन हम पानी। जाकी अंग अंग बास समानी।
प्रभुजी तुम स्वामी हम दासा। ऐसी भक्ति करी रैदासा।।
धर्मदास के ब्रजभाषा पदों में हल्की सी भोजपुरी छटा है
झर लागै महलिया गगन महराय।
सुन्न महल से अमृत बरसै, प्रेम आनन्द ह्वै साधु नहाय।
धरमदास बिनवै कर जोरी, सतगुरु चरन में रहत समाय।