नाटक का विषय

  • मध्यवार्गीय जीवन की विडंबनाओं का चित्रण
  • पारिवारिक विघटन का चित्रण
  • स्त्री-पुरुष सम्बन्ध का चित्रण
  • नारी की त्रासदी का चित्रण
  • वैवाहिक संबंधों की विडंबना

मुख्य बिंदु

  • ‘आधे-अधूरे’ नाटक 1969 में प्रकाशित हुआ था।
  • आधे-अधूरे नाटक का पहली बार ‘ओमशिवपुरी’ के निर्देशन में दिशांतर द्वारा दिल्ली में फरवरी 1969 में मंचन हुआ था।
  • यह नाटक धर्मयुग साप्ताहिक पत्रिका 1969 के 3-4 अंको में प्रकाशित हुआ था।
  • यह मध्यवर्गीय पारिवारिक जीवन पर आधारित समस्या प्रधान नाटक है।
  • यह पूर्णता की तलाश का नाटक है। इस नाटक को ‘मील का पतथर’ भी कहा जाता है।
  • रंगमंच की दृष्टि से आधे-अधूरे नाटक को प्रयोगशील नाटक कहा जाता है।
  • इस नाटक की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि एक ही पुरुष चार-चार पुरुषों की भूमिका मात्र वस्त्र परिवर्तन के आधार पर करता है। पुरुष एक (महेन्द्रनाथ) पुरुष दो (सिंघानिया) पुरुष तीन (जगमोहन) पुरुष चार (जुनेजा) के रूप में चित्रित है।

उद्देश्य

  • आधे-अधूरे नाटक के माध्यम से मोहन राकेश ने महानगरों में रहने वाले मध्यवर्गीय जीवन की विसंगतियों एवं विडंबनाओं का चित्रण किया है।
  • भूमंडलीकरण के इस दौर में मध्यवर्गीय परिवार के टूटते-बिखरते रिश्ते, उनका अधुरापन, कुंठा, घुटन इत्यादि को मोहन राकेश ने सावित्री और महेन्द्रनाथ के परिवार के माध्यम से सफलतापूर्वक अभिव्यक्ति किया है।
  • आधे-अधूरे नाटक में पारिवारिक विघटन, स्त्री-पुरुष संबंध, स्त्री जीवन की त्रासदी आदि का प्रभावपूर्ण चित्रण हुआ है।

पात्र परिचय

सावित्री: नाटक की नायिका, महेन्द्रनाथ की पत्नी उम्र 40 वर्ष

पुरुष- 1 महेन्द्रनाथ (सावित्री का पति उम्र 49 वर्ष)

पुरुष- 2 सिंघानिया (सावित्री का बौस, चीफ़ कमिश्नर)

पुरुष- 3 जगमोहन

पुरुष- 4 जुनेजा

बिन्नी: सावित्री की बड़ी बेटी उम्र 20 वर्ष  

अशोक: सावित्री और महेन्द्रनाथ का बेटा

किन्नी: सावित्री की छोटी बेटीउम्र 12,13 वर्ष

मनोज: बिन्नी का पति (मात्र संबादों में उल्लेखनीय)

नाटक का कथानक

मोहन राकेश का आधे-अधूरे नाटक एक मध्यवर्गीय, शहरी परिवार की कहानी है। इस परिवार का हर एक सदस्य अपने आप को अधूरा महसूस करता है। परिवार का हर व्यक्ति अपने को पूर्ण करने की चेष्टा करता है। परिवार में पति-पत्नी, एक बेटा और दो बेटियाँ हैं। पति महेन्द्रनाथ व्यापार में सफल नहीं होता हुआ।

महेन्द्रनाथ बहुत समय से व्यापार में असफल होकर घर पर बेकार बैठ जाते हैं। उसकी पत्नी सावित्री नौकरी करके घर चलाती है। महेंद्रनाथ अपनी पत्नी सावित्री से बहुत प्रेम करते हैं, किन्तु बेरोजगार होने के कारण वह पत्नी सावित्री के कमाई पर पलता हुआ अत्यंत दुखी है। उसकी स्थिति अपने ही परिवार में ‘एक ठप्पा एक रबर की टुकड़े’ की तरह है। सावित्री अपनी अन्नत और बहुमुखी अपेक्षाओं के कारण महेन्द्रनाथ से वितृष्णा करती है। जगमोहन, जुनेजा और सिंघानिया के संपर्क में आती है, किन्तु किसी में भी उसे अपनी भावनाओं की तृप्ति नहीं मिलती है। महेंद्रनाथ और सावित्री की बड़ी बेटी बिन्नी मनोज के साथ भाग जाती है। सावित्री का बेटा अशोक को भी घर के किसी सदस्य से लगाव नहीं होता है। वह भी पिता की तरह ही बेकार है। उसका नौकरी में मन नहीं लगता है। वह भी बदमिजाज और बदजुबान है। उसकी दिलचस्पी केवल अभिनेत्रियों की तस्वीरों और अश्लील पुस्तकों के सहारे बीतता है। छोटी बेटी भी इस वातावरण में बिगड़कर जिद्दी, मुँहफट तथा चिड़चिड़ी हो गई है और उम्र से पहले ही यौन संबंधों में रूचि लेने लगी है। परिवार में तनाव और माता-पिता के संबंधों के कारण उन सब में भी इस तरह की भावना घर कर गई है। इन सभी पात्रों के व्यवहारों में महेन्द्रनाथ और सावित्री के संबंधों का प्रभाव दिखाई पड़ता है। इस तरह इस नाटक में सभी पात्र आधे-अधूरे होने की नियति से अभिशप्त है।

मोहनराकेश एक ऐसे नाटककार थे जिन्होंने जीवन के यथार्थ को अपनी लेखनी के माध्यम से अभिव्यक्त करने का प्रयास किया है। आधे-अधूरे नाटक उसी प्रयास की एक सार्थक कड़ी है। महानगरों में रहने वाले, आर्थिक अभाव के साथ कई तरह के संघर्षों को झेलने वाले मध्यवार्गीय परिवार के जीवन की त्रासदी का इस नाटक में सजीव चित्रण है। अतः इससे स्पष्ट होता है कि यह नाटक संवेदना और शिल्प दोनों धरातलों पर आधुनिक हिन्दी नाट्य की एक सफल रचना है।

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