चञ्चल नामक कोई शिकारी था। वह पक्षियों और पशुओं आदि को पकड़ कर अपनी जीविका का निर्वाह करता था। एक बार वह जंगल में जाल फैलाकर घर आ गया। दूसरे दिन प्रातःकाल जब चञ्चल वन में गया, तब उसने देखा कि उसके द्वारा फैलाए गए जाल में दुर्भाग्य से एक बाघ बँधा हुआ था। उसने सोचा-‘बाघ मुझे खा जाएगा। अत: भाग जाना चाहिए’। बाघ ने निवेदन किया- अरे मानव! तुम्हारा कल्याण होवे। यदि तुम मुझे छुड़ा दोगे तो मैं तुम्हें नहीं मारूँगा।’
तब उस शिकारी ने बाघ को जाल से बाहर निकाल दिया। बाघ थका हुआ था। उसने कहा-‘हे मानव! मैं प्यासा हूँ। नदी से जल लाकर मेरी प्यास बुझाओ।’ बाघ ने जल पीकर पुनः शिकारी से कहा-‘मेरी प्यास बुझ गई है। इस समय मैं भूखा हूँ। अब मैं तुम्हें खाऊँगा।’ चञ्चल ने कहा-‘मैंने तुम्हारे लिए धर्म का आचरण (व्यवहार) किया है। तुमने झूठ बोला है। तुम मुझे खाना चाहते हो।’
बाघ ने कहा-‘अरे मूर्ख! भूखे (प्राणी) के लिए कुछ भी अनुचित नहीं होता है। सभी स्वार्थ चाहते हैं। चञ्चल ने नदी के जल से पूछा। नदी के जल ने कहा-‘ऐसा ही होता है। लोग मेरे जल में स्नान करते हैं, कपड़े धोते हैं तथा मलमूत्र आदि का त्याग करके वापस लौट जाते हैं। वस्तुतः सभी स्वार्थ चाहते हैं।
चञ्चल ने वृक्ष के पास जाकर पूछा। वृक्ष कहने लगा-‘मनुष्य हमारी छाया में आराम करते हैं, हमारे फल खाते हैं। फिर कुल्हाड़ों से प्रहार करके हमें सदा कष्ट देते हैं। जहाँ कहीं भी काट डालते हैं। सभी स्वार्थ चाहते हैं।
पास में बेर की झाड़ियों के पीछे छिपी हुई एक लोमड़ी इस बात को सुन रही थी। वह अचानक चञ्चल के पास जाकर कहने लगी-“क्या बातचीत है? मुझे भी बताइए।” वह कहने लगा-“अरे, मौसी! तुम ठीक समय पर आई हो। मैंने इस बाघ के प्राणों की रक्षा की है, परन्तु यह मुझे ही खाना चाहता है।” इसके बाद उसने लोमड़ी को सम्पूर्ण कथा बता दी।
लोमड़ी ने चञ्चल से कहा-अच्छा। तुम जाल फैलाओ। फिर उसने बाघ से कहा-तुम किस प्रकार इस जाल में बँधे थे-यह मैं अपने सामने देखना चाहती हैं। बाघ उस घटना को दिखाने के लिए उस जाल में घुस गया। लोमडी ने फिर कहा-अब बार-बार उछलकूद करके दिखाओ। उसने वैसा ही आचरण किया। लगातार उछलकूद से वह थक गया। जाल में बँधा हुआ वह बाघ निढाल होता हुआ असहाय होकर वहाँ गिर पड़ा तथा प्राणों की भीख माँगने लगा। लोमड़ी ने बाघ से कहा-‘तुमने सच कहा था। सभी स्वार्थ चाहते हैं।