ऊपर बने हुए चित्र को देखो। यह चित्र किसी पाठशाला का है। यह सामान्य विद्यालय नहीं है। यह महाराष्ट्र की पहली कन्या पाठशाला है। एक अध्यापिका घर से पुस्तकें लेकर चलती है। मार्ग में कोई उसके ऊपर धूल और कोई पत्थर के टुकड़े फेंकता है। परन्तु वह अपने दृढ़ निश्चय से विचलित नहीं होती है। अपने विद्यालय में लड़कियों से हँसी मजाक के साथ बात करती हुई वह पढ़ाने में लगी होती है। उसका अपना अध्ययन भी साथ ही चलता है। कौन है यह महिला? क्या तुम सब इस महिला को जानते हो? यह ही महाराष्ट्र की पहली महिला शिक्षिका सावित्री बाई फुले है।
3 जनवरी, सन् 1831 में महाराष्ट्र के नायगांव नामक स्थान पर सावित्री का जन्म हुआ। उसकी माता लक्ष्मीबाई तथा पिता खंडोजी नामक हुए हैं। नौ वर्ष की अवस्था में वह ज्योतिबा फुले महोदय के साथ ब्याही गई। उस समय वह भी तेरह वर्ष का ही था। क्योंकि वह स्त्री शिक्षा का प्रबल समर्थक था अतः सावित्री के मन में स्थित पढ़ने की इच्छा को बल प्राप्त हुआ। इससे बढ़कर उसने आग्रहपूर्वक अंग्रेजी भाषा का भी अध्ययन किया।
1848 ईस्वी सन् में पुणे नगर में सावित्री ने ज्योतिबा महोदय के साथ कन्याओं के लिए प्रदेश के प्रथम विद्यालय को आरम्भ किया। तब वह केवल सत्रह वर्ष की थी। ईस्वी सन् 1851 में छुआछूत के कारण अपमानित समुदाय की बालिकाओं के लिए पृथक् उसके द्वारा दूसरा विद्यालय प्रारम्भ किया गया।
सावित्री ने सामाजिक कुरीतियों (समाज में फैले बुरे रिवाजों, परंपराओं) का प्रबल विरोध किया। विधवाओं के शिर को मूंडने की प्रथा को दूर करने के लिए वह साक्षात् नाई लोगों से मिली। (इसके) फलस्वरूप कुछ नाइयों ने इस रिवाज़ में सहभागिता का त्याग कर दिया। एक बार सावित्री ने मार्ग में देखा कि कुएँ के पास फटे पुराने वस्त्रों में ढकी हुई तथाकथित नीच जाति की कुछ स्त्रियाँ जल पीने के लिए याचना कर रही थीं। उच्च वर्ग वाले उनका मज़ाक उड़ाते हुए कुएँ से जल निकालने के लिए मना कर रहे थे।
सावित्री इस अपमान को सहन न कर सकी। वह उन स्त्रियों को अपने घर ले गई और तालाब को दिखाकर उसने कहा कि (तुम) इच्छा के अनुसार जल ले जाओ। यह तालाब सार्वजनिक है। इससे जल लेने में जाति का बन्धन नहीं है। उसने मनुष्यों की समानता और स्वतन्त्रता के पक्ष का सदा तथा पूर्ण रूप से समर्थन किया।
‘महिला सेवामण्डल’ व ‘शिशुहत्या प्रतिबन्ध गृह’ इत्यादि संस्थाओं की स्थापना में फुले दम्पति (पति-पत्नी) का योगदान महत्त्वपूर्ण है। सत्य शोधक-मण्डल की गतिविधियों में भी सावित्री अत्यधिक सक्रिय थी। इस मण्डल का उद्देश्य था सताए गए समुदायों का अपने अधिकारों के प्रति जागरण।
सावित्री ने अनेक संस्थाओं को प्रशासन कौशल के द्वारा चलाया। अकाल के समय तथा प्लेग (रोग) के समय उसने पीड़ित लोगों की बिना थके निरन्तर सेवा की। सहायता-सामग्री की व्यवस्था के लिए उसने पूर्णरूपेण प्रयत्न किया। महारोग के प्रसार के समय सेवा में लगी हुई वह स्वयं असाध्य रोग से ग्रस्त होकर सन् 1897 में मृत्यु को प्राप्त हो गई। . साहित्य रचना के द्वारा भी सावित्री महान् है। उसके दो काव्यसंकलन हैं-‘काव्य फुले’ तथा ‘सुबोधरत्नाकर’। भारतदेश में महिलाओं की उन्नति को गहराई से समझने के लिए सावित्री महोदया के जीवन चरित का अवश्य अध्ययन करना चाहिए।