(क) अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम्॥1॥

अन्वयः-
अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः तस्य आयुर्विद्यायशोबलम् (इति) चत्वारि वर्धन्ते।

शब्दार्थ-
अभिवादन:-प्रणाम।
उपसेविन:-सेवा करने वाले का।
चत्वारि-चार।
वर्धन्ते-वृद्धि को प्राप्त होते हैं।

सरलार्थ-
प्रणाम करने वाले तथा नित्य वृद्ध लोगों की सेवा करने वाले (व्यक्ति) की आयु, विद्या, यश तथा बल-ये चार वस्तुएँ वृद्धि को प्राप्त होती हैं।

(ख) यं मातापितरौ क्लेशं सहेते सम्भवे नृणाम्।
न तस्य निष्कृतिः शक्या कर्तुं वर्षशतैरपि॥2॥

अन्वयः-
नृणां सम्भवे मातापितरौ यं क्लेशं सहेते, तस्य निष्कृतिः वर्षशतैरपि कर्तुं न शक्या।

शब्दार्थ-
नृणाम्-मनुष्यों का।
सम्भवे-जन्म के समय।
क्लेशं-कष्ट को।
सहेते-सहन करते हैं।

निष्कृतिः-बदला।
शतैः-सैकड़ों। शक्या-की जा सकती।

सरलार्थ:

मनुष्यों के जन्म के अवसर पर माता-पिता जिस कष्ट को सहन करते हैं, उसका बदला सैकड़ों वर्षों में भी नहीं चुकाया जा सकता।

(ग) तयोर्नित्यं प्रियं कुर्यादाचार्यस्य च सर्वदा।
तेष्वेव त्रिषु तुष्टेषु तपः सर्वं समाप्यते॥3॥

अन्वयः-
तयोः आचार्यस्य च नित्यं सर्वदा प्रियं कुर्यात्। तेष्वेव त्रिषु तुष्टेषु तपः सर्वं समाप्यते।।

शब्दार्थ-
तयोः-उन दोनों का।
कुर्यात्-करे।
त्रिषु-तीनों के।
तुष्टेषु-प्रसन्न होने पर।
समाप्यते-पूर्ण होता है।

सरलार्थ-
उन दोनों का (अर्थात् माता व पिता का) तथा गुरु का सदा और नित्य ही प्रिय करना चाहिए। उन तीनों के प्रसन्न हो जाने पर सभी तप सम्पन्न हो जाते हैं।

(घ) सर्वं परवशं दुःखं सर्वमात्मवशं सुखम्।
एतद्विद्यात्समासेन लक्षणं सुखदुःखयोः॥4॥

अन्वयः-
सर्वं परवशं दु:खम्, सर्वम् आत्मवशं सुखम्, एतत् सुखदुःखयोः लक्षणं समासेन विद्यात्।।

शब्दार्थ-
परवशम्-दूसरे के वश में होना।
आत्म-अपने।
समासेन-संक्षेप में।
लक्षणम्-परिभाषा।
विद्यात्-जान लेना चाहिए।

सरलार्थ-
दूसरे के वश में होना ही दुःख है तथा अपने वश में होना ही सुख है। यह सुख-दुःख की परिभाषा संक्षेप में जानना चाहिए।

(ड) यत्कर्म कुर्वतोऽस्य स्यात्परितोषोऽन्तरात्मनः।
तत्प्रयत्नेन कुर्वीत विपरीतं तु वर्जयेत्॥5॥

अन्वयः-
यत् कर्म कुर्वतः अस्य अन्तरात्मनः परितोषः स्यात्, तत् प्रयत्नेन कुर्वीत, विपरीतं तु वर्जयेत्।।

शब्दार्थ-
कुर्वतः-करते हुए।
अन्तरात्मन:-अन्तरात्मा का।
परितोषः-सन्तोष।
कुर्वीत-करना चाहिए।
वर्जयेत्-त्याग कर दे।

सरलार्थ-
जिस कार्य को करते हुए अन्तरात्मा को संतोष होता है, उसे प्रयत्न पूर्वक करना चाहिए, विपरीत का त्याग करना चाहिए।

(च) दृष्टिपूतं न्यसेत्पादं वस्त्रपूतं जलं पिबेत्॥
सत्यपूतां वदेद्वाचं मनः पूतं समाचरेत्॥6॥

अन्वयः-
दृष्टिपूतं यादं न्यसेत्, वस्त्रपूतं जलं पिबेत, सत्यपूतां वाचं वदेत्, मनः पूतं समाचरेत्।।

शब्दार्थ-
दृष्टिपूतम्-दृष्टि के द्वारा पवित्र।
न्यसेत्-रखे।
पिबेत्-पीना चाहिए।
वाचम्-वाणी को।
समाचरेत्-आचरण करना चाहिए।

सरलार्थ-
दृष्टि के द्वारा पवित्र कदम को रखे, वस्त्र से पवित्र जल पीना चाहिए, सत्य से पवित्र वाणी को कहना चाहिए। मन से पवित्र आचरण करना चाहिए।

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