(विभिन्न वेशभूषा वाले चार बालकवि मञ्च के ऊपर बैठे हुए हैं। नीचे श्रोता हास्य कविता सुनने के लिए उत्सुक हैं और शोर मचा रहे हैं।)

सञ्चालक-शोर करने से बस करो (शोर मत करो)। आज बहुत प्रसन्नता का अवसर है कि इस कवि सम्मेलन में काव्यहन्ता (काव्य को नष्ट करनेवाले) और कालयापक (समय बर्बाद करनेवाले) भारत के श्रेष्ठ हास्य कवि आए हुए हैं। आओ! हम सब तालियों से इन सबका स्वागत करें।

गजाधर-सब नीरस जनों को नमस्कार। तब तक पहले मैं आधुनिक वैद्यों को लक्ष्य करके अपनी कविता सुनाता हूँ हे वैद्यराज! यमराज के भाई, आपको नमस्कार है। यमराज तो प्राणों को ले जाता है, वैद्य प्राणों को और धन को ले जाता है। (सब जोर से हँसते हैं)

कालान्तक-अरे ! वैद्य तो सब जगह हैं, परन्तु वे जनसंख्या कम करने में मेरे जैसे निपुण नहीं हैं। आप सब मेरे भी इस काव्य को सुनिए। चिता को जलती हुई देखकर वैद्य ने आश्चर्य किया कि न मैं गया, न मेरा भाई, यह किसके हाथ की सफाई है। (सब फिर हँसते हैं)

तुन्दिल-(तोंद के ऊपर हाथ फेरते हुए) मैं तुन्दिल हूँ। अरे ! मेरी भी इस कविता को सुनो और जीवन में अपनाओ-दुष्टबुद्धिवाले! दूसरे का अन्न प्राप्त करके शरीर पर दया मत कर। संसार में दूसरे का अन्न दुर्लभ है। शरीर बार-बार मिलता रहता है। (सब फिर जोर से हँसते हैं)

चार्वाक- हाँ, हाँ। शरीर का पोषण हमेशा ही ठीक रहता है। अगर धन नहीं है (व्यक्ति के पास) तब कर्ज लेकर भी पौष्टिक (शरीर को बलवान बनाने वाले) पदार्थों का ही उपभोग करना चाहिए। और चार्वाक कवि कहते हैं जब तक जियो सुख से जियो (जीना चाहिए), कर्ज (उधार) लेकर भी घी पियो (पीना चाहिए)। श्रोतागण- तो कर्ज को कैसे चुकाया जाए? चार्वाक- मेरी बची हुई कविता भी सुनिए घी पीकर, परिश्रम करके लोगों को कर्ज वापस कर देना चाहिए। (काव्य पाठ से प्रेरित होकर एक बालक भी तुरंत कविता की रचना करता है और हँसते हुए सुनाता है-) बालक- अरे सुनिए, सुनिए! मेरी भी कविता को-

“गजाधर कवि और खाने के लोभी तुन्दिल, (प्राण लेने वाले) कालान्तक को तथा वैद्य चार्वाक को मैं प्रणाम करता हूँ।”

[कविता सुनाकर (बालक) ‘हा हा हा’ ऐसा करके हँसता है। दूसरे भी हँसते हैं और सभी घर जाते हैं।]

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