1. एकेन राजहंसेन या शोभा सरसो भवेत्।
न सा बकसहस्रेण परितस्तीरवासिना।।
सरसः – तालाब (नदी) की। भवेत् – हो/होती है। बकसहस्रेण – हज़ारों बगुलों से। परितः – चारों ओर। तीरवासिना – किनारे पर रहने वाले।
हिन्दी अनुवाद
एक राजहंस से जो शोभा तालाब (नदी) की होती है। वह शोभा किनारों पर चारों ओर रहने वाले हजारों बगुलों से नहीं होती है अर्थात् एक विद्वान से संसार अथवा समाज का कल्याण (शोभा) होता है परन्तु उसी समाज में रहने वाले हज़ारों मूों से उसकी शोभा नहीं होती है।
2. भुक्ता मृणालपटली भवता निपीता
न्यम्बूनि यत्र नलिनानि निषेवितानि।
रे राजहंस! वद तस्य सरोवरस्य,
कृत्येन केन भवितासि कृतोपकारः॥
शब्दार्थाः
भुक्ता – खाया है। मृणालपाटली – कमल नाल के समूह। भवता – आपके द्वारा। निपीतानि – भलीभाँति पाए गए। अम्बूनि – जलों को/जल को। नलिनानि – कमल के फूलों को। निषेवितानि – अच्छी तरह से सेवन किया है। कृत्येन – काम से। भविता असि – चुकाओगे। कृतोपकारः – किए गए उपकार/किया गया उपकार।
हिन्दी अनुवाद
जहाँ आपने कमलनाल के समूह को खाया है, जल को अच्छी तरह से पीया है, कमल के फलों को सेवन किया हैं। हे राजहंस! बोलो, उस तालाब (सरोवर) का किस काम से किया गया उपकार चुकाओगे? अर्थात् जिस देश, जाति, धर्म और संस्कृति से हे मानव! तुम्हारा यह जीवन बना (निर्मित) हुआ है उसका बदला किस कार्य से चुका सकोगे? अतः इन सभी के ऋणी रहो और सम्मान करो।
3. तोयैरल्पैरपि करुणया भीमभानौ निदाघे,
मालाकार! व्यरचि भवता या तरोरस्य पुष्टिः।
सा किं शक्या जनयितुमिह प्रावृषेण्येन वारां,
धारासारानपि विकिरता विश्वतो वारिदेन॥
शब्दार्थाः
भीमभानौ – सूर्य के अधिक तपने पर। निदाघे – गर्मी में। तोयैः – जलों से। भवता-आपके द्वारा। करुणया – दया से। तरो: – पेड़ की। व्यरचि – की है। वाराम् – जलों के। प्रावृषेण्येन – वर्षा काल के। विश्वतः – चारों ओर से। धारासारान् – धाराओं के प्रवाहों को। विकिरता – बिखेरते हुए। वारिदेन – बादल से। इह – इस संसार में। जनयितुम् – उत्पन्न करने में/के लिए। शक्या – समर्थ है।
हिन्दी अनुवाद
हे माली! सूर्य के तेज चमकने (तपने) पर गर्मी के समय में थोड़े जल से भी आपने दया के इस पेड़ की जो पुष्टि (बढ़ोतरी) की है। जलों को वर्षा काल के चारों ओर से धाराओं के प्रवाहों को भी बिखरते हुए (बरसाते हुए) बादल से इस संसार में वह (पेड़ की) पुष्टि क्या की जा सकती है? अर्थात् उत्तम और सम्पुष्ट जीवन जीने के लिए सुख अर्थात् सुखयुक्त वस्तुओं की अधिकता भी मानव जीवन को पूर्णतया सक्षम नहीं बनाती है। उसके लिए सुख अथवा दुःख भरे क्षणों की भी आवश्यकता होती है क्योंकि सुख और दुःख दोनों मानव जीवन के ही कंधे हैं और दोनों ही आवश्यक हैं।
4. आपेदिरेऽम्बरपथं परितः पतङ्गाः,
भृङ्गा रसालमुकुलानि समाश्रयन्ते।
सङ्कोचमञ्चति सरस्त्वयि दीनदीनो,
मीनो नु हन्त कतमां गतिमभ्युपैतु॥
शब्दार्थाः
पतङ्गाः – पक्षी गण ने। अम्बरपथम् – आकाश मार्ग को। परितः – चारों ओर से। आपेदिर – प्राप्त कर लिए हैं। रसालमुकुलानि – आम की मंजरियों को। समाश्रयन्ते – आश्रय करते (सहारा लेते) हैं। सर: – सरोवर/तालाब। त्वयि – तुझमें। सङ्कोचम् – शुष्कता (सूखापन)। अञ्चति – आने पर। हन्त – अरे/हाय। दीनदीन: – बेसहारा। कतमां – किस। गतिम् – स्थिति (दशा) को। अभ्युपैतु – प्राप्त हो।
हिन्दी अनुवाद
पक्षियों ने चारों ओर से आकाशमार्ग को प्राप्त कर लिए हैं। भौरे आम की मंजरियों को आश्रय बना लिए हैं। सरोवर तुम्हारे संकुचित होने (सूखने) पर अरे निराश्रित (अनाथ) मछली निश्चय से किस गति को प्राप्त करेगी (करे)। अर्थात् अपने एकमात्र सहारे रूप मित्र के बुरे दिन आने पर भी मछली उसका साथ पक्षियों और भौंरों की तरह नहीं छोड़ती है, वह उसी के साथ अपने प्राण भी दे देती है। अतः वही वास्तव में मित्र मानी जाती है।
5. एक एव खगो मानी वने वसति चातकः।
पिपासितो वा म्रियते याचते वा पुरन्दरम्॥
शब्दार्थाः
मानी – स्वाभिमानी। खगः – पक्षी। चातकः – चकोर (चकना)। पिपासितः – प्यासा। पुरन्दरम् – इन्द्र को (से)। म्रियते – मर जाता है। कुर्यात् – करे/कर सकता है। इदानीम् – इस संसार में। शिविना – शिवि के। विना – बिना।
हिन्दी अनुवाद
एक ही स्वाभिमानी पक्षी चातक (चकोर) वन में रहता है जो या तो प्यासा ही मर जाता है या फिर इन्द्र से (अपने लिए) वर्षा जल की याचना करता है। अर्थात् चकोर पक्षी की तरह संसार में स्वाभिमानी व्यक्ति भी अपने सम्मान व निर्धारित मर्यादा के साथ जीते हैं। नियमों से विरुद्ध अथवा अमर्यादित जीवन जीने की अपेक्षा वे मरना अधिक पसन्द करते हैं।
6. आश्वास्य पर्वतकुलं तपनोष्णतप्त
मुद्दामदावविधुराणि च काननानि।
नानानदीनदशतानि च पूरयित्वा,
रिक्तोऽसि यजलद! सैव तवोत्तमा श्रीः॥
शब्दार्थाः
आश्वास्य – तृप्त करके। पर्वतकुलम् – पर्वतों के समूह को। तपनोष्णतप्तम् – सूर्य की गर्मी से तपे हुए को। उद्दामदावविधुराणि – ऊँचे वृक्षों से रहित। काननानि – वनों को। नानानदी – अनेक नदियों (को)। नदशतानि – सैकड़ों नदा (को)। पूरयित्वा – भर (पूर्ण) करके। रिक्तः असि – खाली हो। जलद! – हे बादल! उत्तमा – सबसे उत्तम। श्री: – शोभा। तव – तुम्हारी।
हिन्दी अनुवाद
सूर्य की गर्मी से तपे हुए पर्वतों के समूह को तृप्त करक और ऊँचे वृक्षों (लकड़ियों) से रहित वनों को (तृप्त करके) तथा अनेक नदियों और सैकड़ों नदों (नालों) को जल से पूर्ण (भर) करके भी हे बादल! यदि तुम खाली हो तो तुम्हारी वही उत्तम शोभा है अर्थात् श्रेष्ठ महादानी की तरह सबको अपने जलों से तृप्त करके भी तुम अपनी उदारता के कारण सदैव अतृप्त रहते हो यह तुम्हारी महान उदारता है।
7. रे रे चातक! सावधानमनसा मित्र क्षणं श्रूयता-
मम्भोदा बहवो हि सन्ति गगने सर्वेऽपि नैतादृशाः।
केचिद् वृष्टिभिरार्द्रयन्ति वसुधां गर्जन्ति केचिद् वृथा,
यं यं पश्यसि तस्य तस्य पुरतो मा ब्रूहि दीनं वचः॥
शब्दार्थाः
चातक! – चकोर!। क्षणम् – क्षण भर। गगने – आकाश में। अम्भोदा: – बादल। बहवः – बहुत से। एतादृशाः – ऐसे। केचित् – कुछ। धरिणीम् – धरती को। वृष्टिमिः – वर्षा से। आर्द्रयन्ति – भिगोते हैं। वृथा – बेकार में। पुरतः – आगे। दीनं वचः – दुःख भरी वाणी के। मा – मत। ब्रूहि – बोलो।
हिन्दी अनुवाद
हे मित्र चकोर पक्षी! सावधान मन से क्षणभर (तनिक) सुनो। आकाश में निश्चय से बहुत से बादल हैं, परन्तु सभी ऐसे (एक जैसे) नहीं हैं। उनमें से कुछ धरती को बारिशों से भिगो देते हैं और कुछ बेकार में गरजते (ही) हैं, तुम जिस-जिस को (सम्पन्न) देखते हो उस-उस के आगे अपने दुःख भरे वचनों को मत बोलो। अर्थात् सभी के आगे अपने दुःख को प्रकट करके हाथ फैलाना उचित नहीं होता। इससे अपना अपमान होता है और सभी उदार भी नहीं होते हैं। अतः सभी के आगे रोना और माँगना उचित नहीं है।