चाणक्य – बेटा (प्रिय)। जौहरी सेठ चन्दनदास को इस समय देखना (मिलना) चाहता हूँ।
शिष्य – ठीक है (वैसा ही हो) (निकलकर चन्दनदास के साथ प्रवेश करके) इधर-से-इधर से श्रेष्ठी (सेठ जी)! (दोनों घूमत है)
शिष्य – (पास जाकर) आचार्य जी! यह सेठ चन्दनदास है। चन्दनदास – आर्य की विजय हो
चाणक्य – सेठ! तुम्हारा स्वागत है। क्या व्यवहारों का (कारोबार में) लाभ बढ़ रहे हैं?
चन्दनदास – (मन-ही-मन में) अधिक सम्मान शंका के योग्य है। (प्रकट रूप से) और क्या। आर्य की कृपा से मेरा व्यापार अखण्डित है।
चाणक्य – अरे सेठ! प्रसन्न स्वभाव वालों (लोगों) से राजा लोग उपकार के बदले किए गए उपकार को चाहते हैं।
चन्दनदास – आर्य आज्ञा दें, क्या और कितना इस व्यक्ति से आशा करते हैं।
चाणक्य – अरे सेठ! यह चन्द्रगुप्त का राज्य है नन्द का राज्य नहीं। नन्द का राज्य ही धन से प्रेम रखता है।
चन्द्रगुप्त तो आपके सुख से ही (प्रेम रखता है)। चन्दनदास – (खुशी के साथ) आर्य! आभारी हूँ।
चाणक्य – हे सेठ! और वह दुःख का अभाव कैसे उत्पन्न होता है यही आपसे पूछने योग्य है। चन्दनदास – आर्य आज्ञा दीजिए।
चाणक्य — राजा में (के लिए) विरुद्ध व्यवहार वाला न होओ (बनो)। चन्दनदास – आर्य! फिर कौन अभागा राजा के विरुद्ध है ऐसा आर्य समझते हैं।
चाणक्य – सबसे पहले तो आप ही। चन्दनदास – (कानों को छूकर/बन्द करके) क्षमा कीजिए, क्षमा कीजिए। सूखी घासों का आग के साथ कैसा विरोध?
चाणक्य – यह ऐसा विरोध है कि तुम आज भी राजा का बुरा करने वाले अमात्य राक्षस के परिवार को अपने घर में रखते हो।
चन्दनदास – हे आर्य! यह झूठ है। किसी दुष्ट ने आर्य को (गलत) कहा है।
चाणक्य – हे सेठ! आशंका (संदेह) मत करो। डरे हुए भूतपूर्व (पिछले/अपदस्थ) राजपुरुष पुर (नगर) वासियों की इच्छा से भी (उनके) घरों में परिवार जन को रखकर (छोड़कर) दूसरे स्थानों को चले जाते हैं। उससे उन्हें छिपाने का दोष पैदा होता है।
चन्दनदास – निश्चय से ऐसा ही है। उस समय हमारे घर में अमात्य राक्षस का परिवार था।
चाणक्य – पहले ‘झूठ’ अब “था” ये दोनों आपस में विरोधी वचन हैं।
चन्दनदास – आर्य! उस समय हमारे घर में अमात्य राक्षस का परिवार था।
चाणक्य – अब इस समय कहाँ गया है?
चन्दनदास – नहीं जानता हूँ।
चाणक्य – क्यों नहीं जानते हो? हे सेठ! सिर पर डर है, उसका समाधान बहुत दूर है।
चन्दनदास – आर्य! क्यों मुझे डर दिखाते हो? अमात्य राक्षस के परिवार के घर में होने पर भी नहीं समर्पित करता, फिर न होने पर तो बात ही क्या है?
चाणक्य – हे चन्दनदास! यही तुम्हारा निश्चय है?
चन्दनदास – हाँ, यही मेरा निश्चय है।
चाणक्य – (अपने मन में) शाबाश! चन्दनदास शाबाश।
दूसरे की वस्तु को समर्पित करने पर बहुत धन का लाभ सरल होने की स्थिति में दूसरों की वस्तु की सुरक्षा रूपी कठिन कार्य को एक शिवि को छोड़कर तुम्हारे अलावा कौन कर सकता है?
दूसरों की वस्तु को समर्पित करने पर बहुत धन प्राप्त होने की स्थिति में भी दूसरों की वस्तु की सुरक्षा रूपी कठिन कार्य को एक शिवि को छोड़कर तुम्हारे अलावा दूसरा कौन कर सकता है?
चन्दनदास अगर अमात्य राक्षस के परिवार को राजा को समर्पित कर देता, तो राजा उससे प्रसन्न भी होता और बहुत सा धन पारितोषिक के रूप में देता, पर उसने भौतिक लाभ व लोभ को दरकिनार करते हुए अपने प्राणप्रिय मित्र के परिवार की रक्षा को अपना कर्त्तव्य माना और इसे निभाया भी। कवि ने। चन्दनदास के इस कार्य की तुलना राजा शिवि के कार्यों से की है, जिन्होंने अपने शरणागत कपोत की रक्षा के लिए अपने शरीर के अंगों को काटकर दे दिया था। राजा शिवि ने तो सतयुग में ऐसा किया था, पर चन्दनदास ने ऐसा कार्य इस कलियुग में किया है, इसलिए वे और अधिक प्रशंसा के पात्र हैं।