यह प्रेमचंद जी एक चर्चित कहानी है | यह मानसरोवर पत्रिका में 1931 में प्रकाशित हुई थी | सन 1981 में प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक सत्यजीत राय ने इस पर फिल्म बनाई | इस कहानी में तत्युगीन वर्णाश्रमधर्मी समाज व्यवस्था के अंतर्गत दलितों के प्रति अमानवीय व्यवहार को दर्शाया गया है | कहानी का नायक दलित दुखी है | उसकी पत्नी झुरिया उससे बेटी के विवाह का शुभमुहूर्त निकलवाने पंडित घासीराम के घर भेजती है | पंडित घासीराम दुखी से एक लकड़ी की गाँठ चीरने के लिए कहते हैं| भूखा-प्यासा दुखी गाँठ चीरने के साथ-साथ मृत्यु को प्राप्त होता है| पंडित घासीराम और उनकी पत्नी दुखी से अमानवीय व्यवहार करते हैं|दुखी के मरने पर कोई भी वर्ग उसकी लाश उठाने को तैयार नहीं होता |यह घटना दलित चेतना को नविन आयाम इति है|दुखी की मौत के पीछे घडीराम की अमानवीयता तो है ही , साथ ही धार्मिक और सामाजिक व्यवस्था और भय भी है जिसके कारण दुखी अपनी बेटी का विवाह सुझवाने के लिए घासीराम के पास जाता है |लेखक पंडित घासीराम द्वारा दुखी की लाश खिंचवाकर उसकी ‘सद्गति’ कराकर सामाजिक व्यवस्था पर गहरा कटाक्ष करता है |कहानी का पात्र चिखुरी गोंड क्रान्ति का सूत्रधार है|दुखी द्वारा तोड़ी जाने वाली लकड़ी की गाँठ युगों-युगों से चली आ रही रुढियों का प्रतीक है |
कहानी की संवाद-योजना, पात्र-योजना और शिल्प-विधान कसे-बंधे हैं |
कहानी में इस बात का स्पष्ट संकेत दिया गया है कि जातीय व्यवस्था का यह अमानवीय चक्र समाप्त हो और किसी भी व्यक्ति को सेवा और निष्ठा का ऐसा पुरस्कार न मिले , ऐसी “सद्गति” तो बिलकुल नहीं कि लाश गिद्द, गीदड़,,कुत्ते और कौए न नोंचे |
कहानी का उद्देश्य सामाजिक विसंगतियों, सडी -गली परम्पराओं और रुढियों को तोड़ना है |