जार्ज ग्रियर्सन ने हिंदी क्षेत्र को दो भागोंश्चिमी हिंदी और पूर्वी हिंदी में विभाजित किया है। इन्हीं क्षेत्रों में बोली जाने वाली बोलियों को वे हिंदी की बोलियाँ मानते हैं। ग्रियर्सन पूर्वी हिंदी की उत्पत्ति अर्धमागधी अपभ्रंश  से मानते हैं। वहीं धीरेन्द्र वर्मा (हिंदी साहित्यकोश) के अनुसार पूर्वी हिंदी का विकास मागधी अपभ्रंश से हुआ है।

पूर्वी हिंदी में तीन बोलियाँ-

  1. अवधी 
  2. बघेली 
  3.  छत्तीसगढ़ी

जार्ज ग्रियर्सन मूल रूप से इनमें दो ही बोलियों- awadhi (अवधी) और chhattisgarhi (छत्तीसगढ़ी) को मानने के पक्ष में थे। bagheli boli (बघेली बोली) को उन्होंने जनमत को ध्यान में रखते हुए ही बोली स्वीकार किया। जार्ज ग्रियर्सन के अनुसार पूर्वी हिंदी बोलने वालों की कुल संख्या 24511647 है।


हिंदी की बोलियाँ  श्रृंखला के अंतर्गत पूर्वी हिंदी की तीनों बोलियों का परिचय, अन्य नाम, उपबोलियाँ, क्षेत्र तथा विशेषताएँ आदि नीचे दिया जा रहा है-


पूर्वी हिंदी की बोलियाँ

1. अवधी

अवधी पूर्वी हिंदी की प्रमुख बोली है जो अवध प्रदेश के अन्तर्गत बोली जाती है। ऐसा माना जाता है कि अयोध्या से अवध शब्द विकसित हुआ और इसी के आधार पर इस बोली को अवधी कहा गया।

जार्ज ग्रियर्सन ने इसे अर्धमागधी अपभ्रंश से उद्भूत माना है।

डॉ॰ बाबूराम सक्सेना इसमें पालि से अधिक समानता पाते हैं।

डॉ॰ भोलानाथ तिवारी इसे ‘कौसली’ से उद्भूत मानते हैं।

अवधी प्रायः नागरी लिपि में लिखी जाती है परन्तु मध्यकाल में कैथी और फारसी लिपि में भी इसे लिखा जाता रहा है। जार्ज ग्रियर्सन ने अवधी बोलने वालों की संख्या एक करोड़ साढ़े इकसठ लाख बताई है। 1971 की जनगणना के अनुसार अवधी बोलने वालों की संख्या 136259 है।

अवधी बोली में साहित्य रचना व्यापक मात्रा में हुई है। अवधी की प्रथम रचना मुल्ला दाऊद कृति ‘चंदायन’ को मानी जाता है। तुलसीदास कृत ‘रामचरितमानस’ एवं जायसी कृत ‘पद्मावत’ जैसे हिंदी महाकाव्य इसी भाषा में लिखे गए हैं। हिंदी की प्रेमाश्रयी शाखा के लगभग सभी कवियों ने अवधी में ही साहित्य रचना की है।

इनमें प्रमुख हैं- जायसी, मंझन, कुतबन, नूर मुहम्मद आदि।

अवधी के अन्य प्रमुख कवि हैं- लालदास, नाभादास, अग्रदास, सूरजदास, ईश्वरदास, छेमकरन, कासिमशाह और आधुनिक काल में पं. द्वारिका प्रसाद मिश्र।

अवधी बोली के अन्य नाम

अयोध्या कोशल प्रदेश के अन्तर्गत आता है, इसलिए इसे क़ोशली बोली भी कहा जाता है। अवधी को कुछ विद्वान पूर्वी, उत्तरखण्डी अथवा बैसवाड़ी कहने के पक्ष में भी हैं। परन्तु अधिकांश विद्वान अवधी नाम के पक्ष में एकमत हैं।

विशेषताएँ-

  1. अ, इ, उ के ह्रस्व और अतिह्रस्व दो-दो रूप मिलते हैं।’अ’ किसी शब्द के अन्त में नहीं आता। ह्रस्व ए, ओ, पाए जाते हैं। ऐ, औ सामान्य हिन्दी के कारण आ रहे हैं सामान्य अवधी में नहीं हैं।
  2. इसमें ण ध्वनि के स्थान पर न का प्रयोग होता है।
  3. इसमें ड, ढ, शब्द शुरू में आते हैं, मध्य और अन्त में नहीं जबकि ड़ और ढ़ शब्द अन्त में आते है।
  4. इसमें ‘ल’ के स्थान पर ‘ र ‘ का प्रयोग मिलता है। जैसे: अंजुरी, मूसर, फर, हर आदि।
  5. इसमें महाप्राण ध्वनियाँ के रूप में ख, छ, ठ, थ, फ, के स्थान पर घ, झ, ढ, ध, भ का प्रयोग होता है।
  6. इसमें संज्ञा के तीन रूप होते है; जैसे: घोरा, घोरवा, घोरउवा।
  7. इसमें सर्वनाम जे- के लिए जउन, जेकर, जिनकर, से के लिए तउन, तेकर, तिनकर तथा को के लिए कउन, केका, किनकर आदि का प्रयोग होता है।
  8. अवधी के कुछ प्रत्यय विशिष्ट हैं-इया-         डिब्बी > डिबिया, बाछा > बछिया, खाट > खटिया, बिल्ली > बिलइयावा-          रजिस्टर > रजिसटरवा, जगदीश > जगदीसवा

    ई-           बकरा > बकरी

    इनि, इनी-     साँप > साँपिनि, लरिका > लरिकिनी

    आनी-        जेठ > जेठानी

    नी-          मास्टर > मास्टन्नी

  9. अवधी बोली सर्वनाम रूप में भी विशिष्टता लिए हुए है, जैसे-अन्य पुरुष- ऊ, बा, ओ, उइ, ई, इठ, इन येइ, केऊ, कौनो, काहु, ओकर, वहिकर आदि।मध्यम पुरुष- तूं, तैं, तुंह, तोर, तोहार, तोहि, तोहिं, तुहि आदि।उत्तम पुरुष- मैं, मइं, मोर, मोरे, मोरि, म्वार, मोकहं, हम, हमन, हमारा आदि।
  10. इसमें आकारान्त विशेषण बहुत कम है; जैसे: अच्छा, कुँआरा। ऐसे विशेषणों का रूप बहुवचन में एकारान्त और स्त्रीलिंग में ईकारान्त हो जाता है; जैसे: अच्छे, अच्छी, कुआँरे, कुआँरी।
  11. संख्यावाचक कुछ विशेषणों का उच्चारण इस तरह है- दुइ, तीनि, पान, छा, एगारा, सोरा, ओनइस, एकइस, पंचावन, साठि, सवाउ आदि।
  12. कुछ निराले शब्द भी है, जैसे: आँचर (स्तन), अकलंग (एक ओर), कांध (कंधा), खाँचि (टोकरी), गोड़ (पाँव), पातर (पतला), हाँड़ (हड्डी)
  13. अवधी में ‘ए’, ‘ओ’ के ह्रस्व और दीर्घ दोनों रूप तथा स, श, ष के स्थान पर ‘स’ का प्रयोग।
  14. अवधी बोली में ‘ऐ’ का उच्चारण ‘अइ’ और ‘औ’ का उच्चारण ‘अउ’ रूप में होता है, जैसे, ‘ऐसा’ की जगह ‘अइसा’, ‘औरत’ की जगह ‘अउरत’।
    अवधी भाषा के कुछ ध्वनि परिवर्तन निम्नलिखित हैं-                    ण > न-      चरण > चरन, मणि > मनि, गुण > गुनय > ज-      योग > जोग, सुयश > सुजस

    के > ग-      भक्त > भगत

    ल > र-      मूसल > मूसर , अंजलि > अंजुरी

    ड़ > र-       जोड़ (कर) > जोरि

    व > ब-      वाण > बान, वारि > बारि

    ष > ख-      भाषा > भाखा

  15. अवधी में अल्पप्राण की जगह महाप्राण ध्वनियों का प्रयोग होता है, जैसे- पेड़ की जगह फेड़, पुनः की जगह फुन। 
  16. अवधी बोली में संज्ञा के तीन रूप मिलता है, जैसे- घोर (घोड़ा), घोरवा, घरउना; कुत्ता, कुतवा, कुतउना।
  17.  अवधी बोली के विशेषण मूलरूप में अकारान्त होते हैं, जैसे- छोट, बड़, भल, नीक, खोट, याक् (1), पान (5), पहिल, दूसर, पउन आदि।
  18. अवधी बोली की कुछ क्रिया निम्नलिखित हैं-चलउँ, चलइ, चलउ, चलतिहउँ, चलतिहइ, चलिसिहइ, चले होतिउँ आदि।
  19. अवधी बोली की कुछ सहायक क्रियाएं निम्नलिखित हैं-वर्तमान काल- अहउं, आहि, हहि, आछै।भूतकाल- भा, भए, रहा, रहे, अहा, अहे।भविष्यकाल- होब, होबइ, होयउं, होइहि।
  20. अवधी बोली के विशिष्ट क्रिया विशेषण निम्नलिखित हैं-यहां- इहँ, इहाँ, एठियाँ, हियाँ, इहवाँवहां- उहां, ओठियां, ओठियन, हुआँ, उहवांकहां- कहैं, कहवां, केठियां, केठियन।अन्य क्रिया विशेषण- ऊहाँ, ओइकी, जईसी, अब्बय, ई जून, तब्बइ, आजु, काल्हि, परउँ, फिन आदि।
  21. बोलचाल की आधुनिक अवधी बोली खड़ी बोली से भी प्रभावित है। जबकि मध्यकालीन अवधी में अरबी-फारसी के शब्द अधिक प्रयुक्त होते थे।

2. बघेली

बघेली पूर्वी हिंदी की महत्वपूर्ण बोली है। बघेले राजपूतों की वजह से रीवाँ और आसपास का क्षेत्र बघेलखण्ड कहलाया और बघेलखण्ड की बोली बघेली कहलाई। बघेली और अवधी में इतनी अधिक साम्यता है कि कुछ विद्वान बघेली को अवधी की एक बोली मानते हैं। जार्ज ग्रियर्सन ने भी जनमत को ध्यान में रखकर ही बघेली को स्वतन्त्र बोली स्वीकार किया था।बघेली को ’दक्षिणी अवधी’ भी कहते हैं। इस बोली का क्षेत्र रीवा है। अतः इसे ’रीवाई’ भी कहा जाता है। इसकी सीमावर्ती बोलियाँ है- बुन्दली, अवधी और भोजपुरी।पहले बघेली बोली को कैथी लिपि में लिखा जाता था, परन्तु अब यह देवनागरी लिपि में ही लिखी जाती है। जार्ज ग्रियर्सन के अनुसार बघेली बोलने बालों की संख्या लगभग 50 लाख है। बघेली बोली में कोई साहित्य रचना प्राप्त नहीं हुई है, लेकिन लोक साहित्य पर्याप्त मिलता है।

डा॰ बाबूराम सक्सेना ने ’बघेली’ को ’अवधी’ की ही उपबोली माना है।इसका उद्भव अर्धमागधी अपभ्रंश के ही एक क्षेत्रीय रूप से हुआ है। ’तिरहारी’, ’जुङार’, ’गहोरा’, ’बघेली’, की मुख्य बोलियाँ हैं।
⇐ बघेली के अन्तर्गत सर्वनामों में ’मुझे’ के स्थान पर म्वाँ, मौहीं; ’तुझे’ के स्थान पर त्वाँ, तौही; विशेषण में ’हा’ प्रत्यय लगता है; जैसे- मरकहा, गंजहा, नीकहा, कटहा आदि।
⇒ बघेली में मोर का म्वार, तोर का त्वार, पेट का प्याट, देता का द्यात रूप होता है।

बघेली बोली के अन्य नाम

बघेली के अन्य नाम रीवाँई और बघेलखंडी भी है।

बघेली बोली की उपबोलियाँ

बघेली बोली की प्रमुख उपबोलियाँ निम्नलिखित हैं-
तिरहारी, बुन्देली, गहोरा, जुड़ार, बनाफरी, मरारी, पोंवारी, कुम्भारी, ओझी, गोंडवानी तथा केवरी आदि। डॉ. भगवती प्रसाद शुक्ल ने इसके कुल तीन रूप माने हैं, मानक बघेली, गोंडानी और मिश्रित बघेली।

बघेली बोली का क्षेत्र

जार्ज ग्रियर्सन ने बघेलखण्ड एजेंसी (रीवाँ, कोठी, सोहावल), चांग भखार का कुछ भाग, जिला मण्डल का कुछ भाग, दक्षिणी मिर्जापर कुछ भाग तथा जबलपुर का कुछ भाग बघेली का क्षेत्र मानते हैं। परंतु सामान्यतः रीवाँ, दमोह, शहडोल, सतना, मैहर, जबलपुर, नागौर कोठी, माँडला, बालाघाट, बाँदा, फतेहपुर, मिर्जापुर तथा हमीरपुर (कुछ भाग) जिले बघेली का क्षेत्र माने जाते हैं।बघेली क्षेत्र के उत्तर में अवधी तथा भोजपुरी, पुरब में छत्तीसगढ़ी, दक्षिण में मराठी तथा दक्षिणी-पश्चिम में बुन्देली क्षेत्र पङते हैं।यह बोली मध्य प्रदेश के दमोह, जबलपुर, माॅडला, बालाघाट, उत्तर प्रदेश के बाँदा, फतेहपुर, हमीरपुरइत्यादि जिलों के कुछ भागों में प्रचलित है।

बघेली बोली की प्रमुख विशेषताएँ

बघेली की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं।
1. बघेली बोली में अवधी बोली का हस्व प्रयुक्त होता है, जैसे-

ओ > ब-     तोर > त्वार, मोर > म्बार

ओ > वा-     होस > हवास

ए > य-      पेट > प्याट, देत > द्यात

व > ब-      गवा > गबाव > म-      चरावै > चरामै

ग + ह > घ-  जगह > जाघा
2. बघेली में संज्ञा तथा विशेषण के रूप तीन तरह से चलते है, जैसे-लरिका, लरिकवा, लरिकौना।
छोटा, छोटवा, छोटकौना।
3. बघेली में सर्वनाम के रूप विशिष्ट हैं, जैसे- मँय, म्वारे, म्यहि, म्वार, हम्ह, हम्हार, तँय, तयां, त्वार, त्वारे, तुम्हार, वहि, वहिकर, या, य, उन्हा, वा, यहि, कोऊ, कोन्हों, कउन, जेन्ह, जेन, जौन, तौन आदि।
4. बघेली में चलतआँ, चलतआ, चलौं, चलस, चली, चलत्ये हैं, चलत अहे, चलेन्, चलिन आदि क्रिया का प्रयोग होता है।
5. बघेली बोली में भूतकालीन सहायक क्रिया में एकवचन में ‘रहा’ और बहुवचन में ‘ता-ते’ प्रत्यय जुड़ते हैं, जैसे- रहे, रहने हुते।
6. बघेली में इहँवाँ, उहँवाँ, एहै कैत, एहै कयोत, तेहै मुँह, केहै केत आदि क्रियाविशेषण का प्रयोग होते हैं।

7. बघेली बोली में कारक का प्रयोग विशिष्टता लिए हुआ है-

  • कर्ता कारक में किसी परसर्ग का प्रयोग नहीं होता है।
  • कर्म में- का, ला का प्रयोग
  • सम्बन्ध में- केर, के का प्रयोग होता है।
  • अवधी की अपेक्षा इसमें छत्तीसगढ़ी की तरह ‘व’ के स्थान पर ‘ब’ का प्रयोग होता है; जैसे: आबा (आवा)।
  • कारकचिहों में क, के बदले (का के, कहा को) तथा ते, के लिए (से के, तार) आदि का प्रयोग होता है।
  • सर्वनामों के रूप में म्वा, मोहि (मुझे), त्वा, तोहि (तुझे), वाहि (उसको), याहि (इसको) के लिए प्रयोग होता है।
  • इसमें विशेषणों का निर्माण प्रायः ‘हा’ प्रत्यय जोडंकर होता है; जैसै- अधिकहा, नीकहा।
  • इसमें क्रियारूपों में भिन्नताएँ हैं, जैसे: चरामै का (चराने को), देखि कै (देखकर) आदि।

8. कृदन्त रूपों का निर्माण निम्नवत्‌ होता है-

  • वर्तमानकालिक कृदन्त बनाने के लिए क्रिया में ‘त’ जुड़ता है, जैसे- चलत, देखत, आउत।
  • भूतकालिक कृदन्त बनाने के लिए क्रिया में आ, ई प्रत्यय जुड़ते हैं, जैसे- चला, चली।
  • पूर्वकालिक कृदन्त बनाने हेतु ‘कै’, कइ प्रत्यय का योग होता है, जैसे- चलकै, खाकइ।
  • क्रियार्थक संज्ञा बनाने के लिए ‘ब’ प्रत्यय जुड़ता है, जैसे- चलब, देब, आदि।

3. छत्तीसगढ़ी

छत्तीसगढ़ी पूर्वी हिंदी की महत्वपूर्ण बोली है, इसका भी विकास अर्धमागधी अपभ्रंश के दक्षिणी रूप से हुआ है। इस बोली पर नेपाली, बंगला तथा उड़िया का प्रभाव भी पड़ा है। छत्तीसगढ़ी बोली मुख्य रूप से नागरी लिपि में लिखी जाती है परन्तु इसकी दो उपबोलियों,-भुलिया तथा कलंगा के लिए उड़िया लिपि का प्रयोग किया जाता है। जार्ज ग्रियर्सन ने इसके बोलने वालों की संख्या 33 लाख बताई है। 1961 की जनगणना के अनुसार इसके बोलने वालों की संख्या 2962038 थी। साहित्य की रचना छत्तीसगढ़ी बोली में नहीं हुई, किन्तु लोक-साहित्य पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है।

छत्तीसगढ़ की बोली ’छत्तीसगढ़ी’ कहलाती है। इसे ’लरिया’ या ’खल्टाही’ भी कहते है।
इसका विकास अर्धमागधी अपभ्रंश के दक्षिणी रूप में हुआ है।
इसकी मुख्य उपबोलियाँसरगुजिया, सदरी, बैगानी, बिंझवाली आदि है।

  • छत्तीसगढ़ी के कुछ शब्दों में महाप्राणीकरण की प्रवृत्ति है, जैसे- इलाका-इलाखा।
  • इसमें अघोषीकरण पाया जाता है; जैसे- शराब-शराप, बंदगी-बंदगी, खराब-खराप आदि।
  • छत्तीसगढ़ी में ’स’ के स्थान पर ’छ’ तथा ’छ’ के स्थान पर ’स’ बोलने की प्रवृत्ति है; जैसे- सीतापुर-छीतापुर, छेना-सेना आदि।
छत्तीसगढ़ी बोली के अन्य नाम

छत्तीसगढ़ी बोली का मुख्य क्षेत्र छत्तीसगढ़ होने के कारण इसे छत्तीसगढ़ी कहते हैं। बालाघाट के लोग इसे खल्हाटी अथवा खलोटी भी कहते हैं। पूर्वी सम्भलपुर के पास इसे ‘लरिया’ नाम से जाना जाता है। कुछ भागो में इसे खल्ताही भी कहा जाता है।

छत्तीसगढ़ी बोली की उपबोलियाँ

छत्तीसगढ़ी की प्रमुख उपबोलियाँ निम्नलिखित हैं-
सुरगुजिया, कलंगा, भुलिआ, सतनामी, काँकेरी, सदरी कोरवा, बैगानी, बिंझवाली, बिलासपुरी तथा हलबी। इनमें से ‘हलबी’ का प्रयोग बस्तर जिले में होता है। जार्ज ग्रियर्सन इसे मराठी की एक उपभाषा मानते हैं, परंतु सुनीति कुमार चटर्जी के अनुसार यह छत्तीसगढ़ी की एक उपबोली है।

छत्तीसगढ़ी बोली का क्षेत्र

छत्तीसगढ़ी बोली निम्नलिखित क्षेत्रों में बोली जाती है- सरगुजा, कोरिया, विलासपुर, रायगढ, खैरागढ़, रायपुर, दुर्ग, नन्दगाँव, काँकेर, रायपुर, बिलासपुर, सम्भलपुर जिले के पश्चिमी भाग, काँकेर, नंदगाँव, खैरागढ़, चुइखदान, कवर्धा, सुरगुजा, बालाघाट के पूर्वी भाग, सारंगढ़, जशपुर, बस्तर एवं बिहार के कुछ भागों में बोली जाती है।

छत्तीसगढ़ी बोली की विशेषताएँ

छत्तीसगढ़ी की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
1. छत्तीसगढ़ी बोली में ए, ऐ, ओ, औ के ह्रस्व रूपों का भी प्रयोग होता है।
2. छत्तीसगढ़ी में ‘ङ्’ ध्वनि का स्वतन्त्र प्रयोग नहीं होता है।
3. कुछ ध्वनि परिवर्तन विशेष प्रकार के हैं, जैसे-
ष > स्-      वर्षा > बरसा,  भाषा > भासा

ष > ख-      वर्षा > बरखा, भाषा > भाखा

क > ख-      इलाका > इलाखा, बंदकी > बंदखी

त > द-      रास्ता > रसदा

स > छ-      सीता > छीता

छ > स-      छतरी > सतरी

ब > प-      खराब > खराप, शराब > सराप आदि।
4. छत्तीसगढ़ी बोली में संज्ञा से बहुवचन बनाने के लिए ‘मन’, ‘अन’, ‘गंज’, ‘जमा’, ‘जम्मा’, ‘सब्बों’ आदि का प्रयोग किया जाता है, जैसे- मनुख मन (मनुष्यों), नोकरन, लड़कन, जम्मा पुतोमन आदि।
5. छत्तीसगढ़ी में स्त्रीलिंग बनाने के लिए ‘ई’, इया, निन, आइन आदि प्रत्ययों का प्रयोग किया जाता है, जैसे- दुबे > दुबाइन, बाघ > बघानिन
6. छत्तीसगढ़ी बोली के सर्वनाम भी विशिष्ट हैं, जैसे- में, मैं, मोर, तैं,, तुँहार, तुहमन, इया, येकर, एकर, जिन्हकर, कोन्मन्कर, कुछू, कोनो-कोनो (कोई), कुछू-कुछू आदि।

7. छत्तीसगढ़ी बोली में दू, छे, नों, ग्यारा, बारा, तेरा, चउदा, पन्द्रा, कोरी (20) एक कोरी दू (22), एकठो, छेठों, चरगुन (चौगुना) पहिल, दूसर आदि विशेषण प्रयुक्त होते हैं।
8. छत्तीसगढ़ी बोली के सार्वनामिक विशेषण भी अलग तरह के है, जैसे-
इतना-       इतका, अडुक

उतना-       ओतक, उतका, ओडुक

जितना-      जेतना, जतका, जडुक
9. छत्तीसगढ़ी के क्रिया भी विशिष्ट हैं, जैसे- होत, देखत, होते, देखते, देखे, होए, भए, होके, देखके, सोब, देखब आदि।
10. छत्तीसगढ़ी में हवउँ, हवौं, हवस्, हस्, अय्, अयूँ, हौं, औं आदि सहायक क्रिया प्रयुक्त होती है।
11. छत्तीसगढ़ी बोली के क्रिया-विशेषण भी विशिष्ट हैं, जैसे- इहाँ, उहाँ, तिहां, कहूं, जैसन, ओती (उधर), उतका, ओतका, कतको, जेती, अभिच (अभी ही), आगे, पाछू, भलुक (बल्कि), जतका (जितना) सामूँ (सामने) आदि।

  1. ध्वनिगत विशेषताओं में महाप्राणीकरण की प्रवृत्ति पाई जाती है; जैसे: धौड़ (दौड़), कछेरी (कचहरी), झन (जन), जाथै (जात है।)
  2. इसमें ‘स’ के स्थान पर कहीं-कहीं ‘छ’ मिलता है; जैसे: छीता (सीता), छींचन (सींचना)।
  3. कर्म-सम्प्रदान का ‘ला’ परसर्ग और करण-अपादान का ‘ले’ का प्रयोग, जैसे: “ओ ओला कहिस” (उसने उसको कहा)।
  4. इसमें बहुवचन प्रायः ‘मन’ शब्द लगाने से बनता है; जैसे: टूटा मन (लड़के), हम मन (हम लोग) आदि।
  5. इसमें शिष्ट और अशिष्ट प्रयोगों में भी अन्तर होता है; जैसे: हन (शिष्ट), हवन (अशिष्ट)
  6. कर्ता कारक में किसी परसर्ग का प्रयोग नहीं होता है।
  7. कर्म कारक में ला और ल का प्रयोग होता है।
  8. करण कारक में ले और से का प्रयोग होता है।
  9. सम्प्रदान में ला, वर तथा खाति का प्रयोग होता है।
  10. अधिकरण कारक में मां, पर का प्रयोग होता है।
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