प्रमुख दलित कवि एवं रचनाएँ
कवि | रचनाएँ |
हीरा डोम | अछूत की शिकायत (1914) |
बिहारी लाल हरित | अछूतों का पैगम्बर (1946) चमार हूँ मैं (1975) |
डा. धर्मवीर | हीरामन |
ओम प्रकाश वाल्मिकी | (1) सदियों का संताप (1989) (2) बस्स बहुत हो चुका (1997) (3) अब और नहीं (2002) (4) अखाङे की माटी (5) कभी सोचा है ? (6) ठाकुर का कुआँ। |
मंसाराम विद्रोही | दलित पचासा (1989) |
मलखान सिंह | सुनो ब्राह्मण (1995) |
जयप्रकाश कर्दम | (1) गूंगा नहीं था मैं (1997) (2) आज का रैदास |
सुशीला टाकभोरें | (1) स्वाति बूँद और खारे मोती (1993) (2) तुमने उसे कब पहचाना (3) आज की खुद्दार औरत |
श्यौराज सिंह बैचेन | (1) नई फसल (2) क्रौंचे हूँ मैं। |
कुसुम वियोगी | (1) टुकङे-टुकङे दंश (2) व्यवस्था के विषधर |
दयाशंकर बटोही | यातना की आँखें |
सी. बी. भारती | (1) आक्रोश (2) रूढियाँ (3) सियासत |
सूरजपाल चौहान | (1) प्रयास (2) क्यों विश्वास करूँ (2004) |
दयानंद बटोही | अंधेरे के विरुद्ध |
कंवल भारती | (1) घर की चैखट से बाहर (2) मुक्ति संग्राम अभी बाकी है। (3) तब तुम्हारी निष्ठा क्या होगी ? |
कोदूराम दलित | (1) सियानी गोठ (1967) (2) बहुजन हिताय- बहुजन सुखाय (2000) |
ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविता “घृणा तुम्हें मार सकती है” जहाँ दलित समाज के प्रति सदियों से अपनाये गये घृणित रवैये को बेपर्दा करती है। अस्पृश्यता और जातिगत भेदभाव के कारण अलगाव और अनजानेपन के दंश के साथ-साथ सामाजिक-आर्थिक शोषण और शारीरिक-मानसिक उत्पीडन की मार ने दलितों की निरंतर और इतनी कमर तोडी है कि वे मनुष्य होने का अहसास तक नहीं कर पाते हैं। आजीविका से लेकर अपनी प्रत्येक ज़रूरत के लिए उसे दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है। ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविता ’ठाकुर का कुआँ’ में दलित की इस त्रासदी का चित्रण मिलता है-
“चूल्हा मिट्टी का /मिट्टी तालाब की /तालाब ठाकुर का।
भूख रोटी की /रोटी बाजरे की /बाजरा खेत का /खेत ठाकुर का।
बैल ठाकुर के / हल ठाकुर का /हल की मूठ पर हथेली अपनी।
फ़सल ठाकुर की /कुआँ ठाकुर का/ खेत-खलिहान ठाकुर के।
गली-मुहल्ले ठाकुर के/फिर अपना क्या?/गाँव /देश?…” (ओमप्रकाश वाल्मीकि, सदियों का संताप, पृष्ठ -3)
अपने कविता-संग्रह आक्रोश में डॉ. सी. बी.भारती जी ने सवर्णों एवं अवर्णों के अंतर को स्पष्ट कर दिया है। वे सीधे संवाद की शैली में लिखते हैं –
“तुम जब खेलते थे खिलौने से / मैं भटकता था ढोर-डंगरों के पीछे तब
तुम जब जाते थे पढ़ने स्कूल / मैं अपने भाई बहनों को छाती पर लादे
अपनी झोंपड़ी में भूखा-प्यासा आँसू बहाता था तब
तुम्हारी माँ जब तुम्हें जगाकर / प्यार करती थी, स्कूल भेजती थी
मेरी माँ उस समय तुम्हारे ही खेतों पर ठिठुरती
काँपती मशक्कत करती रहती थी / तुम अपनी माँ की लोरियाँ सुनकर ही सो
पाते थे, उस समय मैं भूखा पेट रहकर / भी खाता था केवल झिड़कियाँ।” (दलित साहित्य, 1999; संपादक: जयप्रकाश कर्दम, पृष्ठ-279)
डॉ. सी.बी भारती की कविता दलित-वर्ग के भीतर समायी कुंठा तथा हीन भावना को समाप्त कर देना चाहती है। उच्च वर्ग के भीतर छिपी असंवेदनशीलता से कवि भली-भाँति अवगत दिखाई पड़ता है, इसी कारण वह यह घोषणा करने पर बाध्य है कि यह परिवर्तन की लहर बहुत शीघ्र ही मठाधीशों के धर्म-मठों को धराशयी कर देगी जो सदियों से उनका शोषण करते रहे हैं –
“घबराओ नहीं/ समय आ रहा है
जब हम भी बढ़ेंगे तुम से
दौड़ने की शर्त/ जीतेंगे बाज़ी
तोड़ेंगे तुम्हारा दर्प
सुनो परिवर्तन की सुगबुगाहट
बदलती हवा का रुख
पहचानो, पहचानो, पहचानो!”
सुशीला टाकभौरे लिखती हैं –
“भक्ति से बड़ा ज्ञान है
अंधी भक्ति से बड़ी जागृति
मंदिर नहीं चाहिए,
विद्यालयों के खटखटाये।”(दलित साहित्य-समस्त परिदृश्य, सं.डॉ. मनोहर भंडारे, स्वराज प्रकाशन, नई दिल्ली, 2013, पृ.105)