मुफ्त का यश मुन्शी प्रेमचंद द्वारा रचित है।यह अगस्त में हंस पत्रिका में प्रकाशित हुई है हुई थी।यह कहानी मनोविश्लेषणात्मक आधार पर रची गई व्यंग्यप्रधान कहानी है।कहानी का शीर्षक विषयवस्तु से संबद्ध तथा जिज्ञासावर्धक है।कहानी का नायक स्वयं लेखक हैं, जो वर्णात्मक शैली में लोगों के विचारों, भावनाओं और क्रियाकलापों की यथार्थ अभिव्यक्ति करता है।लेखक के क्षेत्र के जिला अधिकारी इतिहास और पुराने सिक्कों की खोज के शौकीन व्यक्ति हैं।एक दिन वह लेखक को मिलने के लिए बुलाते है, जिससे सबको लगता है कि लेखक से उनकी मित्रता है। फिर क्या था, लोग उनकी मित्रता का लाभ लेने के लिए उनके चक्कर काटने लगते है।लेखक के बचपन का सहपाठी बलदेव अपने पुत्र को झूठे मुकदमे से छुड़ाने के लिए जिलाधिकारी से सिफारिश कराने को कहता है। लेखक कुछ नहीं करता पर मित्र का बेटा रिहा हो जाता है। वह इसका श्रेय लेखक को देता है।लेखक को लगता है कि मुफ्त में यश मिल रहा है, तो स्वीकार करने में क्या जाता है | यहाँ लेखक ने यश पाने की मानवीय प्रवृत्ति के साथ साथ समकालीन लेखकों की मनोवृत्ति पर भी व्यंग्य किया है।कहानी की भाषा सहज, सरल और शैली वर्णनात्मक के साथ विचारात्मक, व्यंग्यात्मक और विश्लेषणात्मक है।कहानी का मुख्य पात्र बनकर लेखक वे सब बातें, विचार आरोप कह-लगा देता है जो वह स्वयं कह नहीं पाता।यही इस कहानी का शिल्प है।कहानी का उद्देश्य यह है कि व्यक्ति को अपने विवेक से निर्णय करना चाहिए। जितना हम दूसरों से सलाह लेंगे उतना ही उसका अलग अलग प्रभाव होगा।समाज में मुफ्त के सलाहकारों की कमी नहीं है | यह कहानी प्रेमचंद की अन्य कहानियों से हटकर हल्की-फुल्की हास्य व्यंग्य प्रधान कहानी है।

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