प्रस्तावना

प्रत्येक भाषा के दो रूप होते हैं। एक है उसका बोलचाल का रूप और दूसरा है उसका मानक साहित्यिक रूप। प्राचीन भारतीय भाषा के दो रूप थे। बोलचाल के तौर पर वह ‘लौकिक संस्कृत’ कहलाती थी और उसका साहित्यिक रूप “वैदिक संस्कृत’ कहलाता था। वैदिक संस्कृत के रूढ़, जड़ और लौकिक संस्कृत से कट जाने पर पाणिनि, पतंजलि, कात्यायन आदि ने लौकिक संस्कृत का भरोसा किया और क्षेत्रीय अनेकरूपता को हटाते हुए उसे संस्कारित और व्याकरण सम्मत रूप दिया। ईसा पूर्व 500 ईसवी के पास उसका रूप किताबी हो गया और वह जनता की भाषा से कटकर दूर पड़ गयी। जनभाषा संस्कृत की व्याकरणिक जकड़बंदी को अस्वीकार कर नदी की तरह देश-काल भेद से अपना रूप बदलते हुए आगे बढ़ती रही। भाषा वैज्ञानिकों की धारणा है कि ईसा पूर्व 500 ईसवी से लेकर ईसवी सन्‌ 1000 तक का समय ‘मध्यकालीन आर्यभाषा’ का है जिसे दूसरे शब्दों में ‘प्राकृत भाषा’ (पात्रि, प्राकृत, अपश्रंश) कहते हैं। नमिसाधु की दृष्टि में ‘प्राकृत’ का अर्थ है जनता की प्रकृत या अकृत्रिम यानी सहज बोलचाल की भाषा। मार्कण्डेय और हेमचन्द्र ‘संस्कृत’ की प्रकृति और उससे जन्‍मी भाषा को ‘प्राकृत’ कहते हैं। अन्य कई विद्वान प्राकृत से संस्कृत का विकास मानते हैं। भाषा-विकास के नियम की दृष्टि से नमिसाधु की मान्यता अधिक सम्मत है और पूर्वापर संबंध की दृष्टि से मार्कण्डेय और हेमचन्द्र की। प्राकृत भाषा संस्कृत से नहीं, बल्कि अपने समय की जनभाषा का विकसित रूप है। ऐतिहासिक कालक्रम की इष्टि से ईसा पूर्व 500 ईसवी से ईसवी सन्‌ के प्रारंभ तक का काल ‘प्रथम प्राकृत का है जिसे ‘पालि’ कहते हैं। ईसवी सन्‌ के प्रारंभ से लेकर ईसवी सन्‌ 500 तक का काल द्वितीय प्राकृत’ का है, जिसे ‘प्राकृँ’ कहते हैं और ईसवी सन्‌ 500 से ईसा की दसवीं शताब्दी का काल ‘तृतीय प्राकृत’ का है, जिसे ‘अपभ्रंश’ कहते हैं। अपअंश के शिष्ट और साहित्यिक रूप के रूढ़ होते-होते आधुनिक देशी आर्य भाषाएं उससे मिलने लगीं। अपअंश का सन्‌ 1000 ईसवी के बाद का रूप देशभाषा मिश्रित अपअंश का है, जिसे “उत्तरवर्ती’, “आगे बढ़ी हुई अपभ्रंश’ या ‘अवहड्ड’ कहते हैं। चन्द्रधर शर्मा गुलेरी इसी को पुरानी हिंदी’ कहते हैं। लेकिन पुरानी हिंदी, पुरानी गुजराती, पुरानी बंगला और पुरानी मराठी का विकास वहाँ से शुरू होता है, जहाँ से ये ‘अवहड्ड’ का प्रभाव खत्म करते हुए वह स्वयं अपनी भाषाई शक्ल लेना शुरू करती हैं। हिंदी का आरंभ भी यहीं से होता है।

अपभ्रंश, आधुनिक भाषाओं के उदय से पहले उत्तर भारत में बोलचाल और साहित्य रचना की सबसे जीवंत और प्रमुख भाषा (समय लगभग छठी से 12 वीं शताब्दी)। भाषावैज्ञानिक दृष्टि से अपभ्रंश भारतीय आर्यभाषा के मध्यकाल की अंतिम अवस्था है जो प्राकृत और आधुनिक भाषाओं के बीच की स्थिति है।भारतीय आर्यभाषा की मध्यकालीन अवस्था के अंतिम चरण को ‘अपभ्रंश’ कहा जाता है अर्थात् संस्कृत व्याकरणो और काव्यशास्त्रियों ने अपने ग्रंथों में ‘अपभ्रंश’ और ‘अपभ्रष्ट’ का नाम लिया है। उनकी दृष्टि में संस्कृत से भिन्‍न सभी भाषाएं ‘अपभ्रंश’ या ‘अपभ्रष्ट’ हैं। व्यापक अर्थ में व्याकरण असम्मत, अशुद्ध यानि व्याकरण च्युत बिगड़ी हुई जनभाषा को वे ‘अपभ्रंश’ या ‘अपभ्रष्ट’ कहते हैं।
अपभ्रंश के कवियों ने अपनी भाषा को केवल भासा, देसी भासा अथवा गामेल्ल भासा (ग्रामीण भाषा) कहा है, परंतु संस्कृत के व्याकरणों और अलंकारग्रंथों में उस भाषा के लिए प्रायः अपभ्रंश तथा कहीं-कहीं अपभ्रष्ट संज्ञा का प्रयोग किया गया है। इस प्रकार अपभ्रंश नाम संस्कृत के आचार्यों का दिया हुआ है, जो निष्कर्षतः तिरस्कारसूचक प्रतीत होता है। उद्योतन सूरि (8वीं शताब्दी) ने अपने ग्रंथ ‘कुवल्रयमात्रा’ में ‘अपभ्रंश’ के स्थान पर उसके तद्भव ‘अपभ्रंश’ और महापुराणकार पुष्पदंत (2वीं शताब्दी) ने ‘अवहंस’ को पसंद किया है। इसी प्रकार रामायणकार स्वयंभू (8वीं शताब्दी) ने ‘अवहत्थ’, संदेसरासककार अद्दटमाण (2वीं शताब्दी) ‘अवहट्य’, ज्योतिरीश्वर ठाकुर (4वीं शताब्दी) ने ‘वर्णरत्नाकर’ में ‘अवहठ’ और कीर्तिपताकाकार विदयापति (4वीं शताब्दी) ने ‘अवहट्ट’ का प्रयोग किया है, जो संस्कृत के ‘अपभ्रष्ट’ शब्द के तद्भव हैं।महाभाष्यकार पतंजलि ने जिस प्रकार अपभ्रंश शब्द का प्रयोग किया है उससे पता चलता है कि संस्कृत या साधु शब्द के लोकप्रचलित विविध रूप अपभ्रंश या अपशब्द कहलाते थे। दंडी (सातवीं शती) के कथन से इस तथ्य की पुष्टि होती है। उन्होंने स्पष्ट लिखा है कि शास्त्र अर्थात् व्याकरण शास्त्र में संस्कृत से इतर शब्दों को अपभ्रंश कहा जाता है इस प्रकार पालि-प्राकृत-अपभ्रंश सभी के शब्द अपभ्रंश संज्ञा के अंतर्गत आ जाते हैं, फिर भी पालि प्राकृत को अपभ्रंश नाम नहीं दिया गया।

अपभ्रंश शब्द की व्युत्पत्ति

पतंजलि आदि विद्वानों ने प्राकृत और अपभ्रंश नामों का प्रयोग समान अर्थ में किया है। परन्तु भरतमुनि का नाट्यशास्त्र  प्रथम ऐसी रचना है जिसमें अपभ्रंश का वास्तविक संदर्भ मिलता है (आधुनिक अर्थ में)। वहाँ आभीरों की बोली को, जिसमें -उ का प्रयोग बहुतायत में मिलता है, अपभ्रंश कहा गया है ।
दंडी ने इस बात को स्पष्ट करते हुए आगे कहा है कि काव्य में आभीर आदि बोलियों को अपभ्रंश नाम से याद किया जाता है इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि अपभ्रंश नाम उसी भाषा के लिए प्रसिद्ध हुआ जिसके शब्द संस्कृत से अलग थे और साथ ही जिसका व्याकरण भी मुख्यतः आभीरादि लोक बोलियों पर आधारित था। इसी अर्थ में अपभ्रंश पालि-प्राकृत आदि से विशेष भिन्न थी।

अपभ्रंश के संबंध में प्राचीन अलंकारग्रंथों में दो प्रकार के परस्पर विरोधी मत मिलते हैं। एक ओर काव्यालंकार(रुद्रट) के टीकाकार नमिसाधु (1069 ई.) अपभ्रंश को प्राकृत कहते हैं तो दूसरी ओर भामह (छठी शती), दंडी (सातवीं शती) आदि आचार्य अपभ्रंश का उल्लेख प्राकृत से भिन्न स्वतंत्र काव्यभाषा के रूप में करते हैं।

इस प्रकार अपभ्रंश के शब्दकोश का अधिकांश, यहाँ तक कि 90% प्राकृत से युक्त  है और व्याकरण प्राकृतिक रूपों से अधिक विकसित तथा आधुनिक भाषाओं के निकट है। प्राचीन व्याकरणों के अपभ्रंश संबंधी विचारों के क्रमबद्ध अध्ययन से पता चलता है कि छह सौ वर्षों में अपभ्रंश का क्रमशः विकास हुआ। भरत (तीसरी शर्त) ने इसे शाबर, आभीर, गुर्जर आदि की भाषा  बताया है।  अपभ्रंश के काव्यसमर्थ भाषा होने की पुष्टि भामह और दंडी जैसे आचार्यों द्वारा आगे चलकर सातवीं शती में हो गई। काव्यमीमांसाकार राजशेखर (दसवीं शती) ने अपभ्रंश कवियों को राजसभा में सम्मानपूर्ण स्थान देकर अपभ्रंश के राजसम्मान की ओर संकेत किया तो टीकाकार पुरुषोत्तम (11वीं सदी) ने इसे शिष्टवर्ग की भाषा बतलाया।

इसी समय आचार्य हेमचंद्र ने अपभ्रंश का विस्तृत और सोदाहरण व्याकरण सिद्धहेमशबदानुशासनम् लिखकर अपभ्रंश भाषा के गौरवपूर्ण प्रतिष्ठा प्रदान की ।

पश्चिम में हेमचन्द्र, अब्दुल रहमान (2वीं शताब्दी) ने क्रमश: ‘ग्राम्य अपभ्रंश’, ‘अवहट्ट’ का प्रयोग पहले पहल किया तो पूर्व में ज्योतिरीश्वर ठाकुर और विद्यापति (4वीं शताब्दी) ने ‘अवहठ’ या ‘अवहट्ट’ का। व्युत्पत्ति की दृष्टि से ‘अपभ्रंश’ का तद्भव रूप ‘अवहंस’ और ‘अपभ्रष्ट’ का तद्भव रूप ‘अवहट्ट’ है। डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी और डॉ. नामवर सिंह ‘अपभ्रंश/ और आधुनिक आर्यभाषाओं के बीच की कड़ी ‘अवहट्ट’ को मानते हैं। लेकिन डॉ. भोलानाथ तिवारी अपभ्रंश/ और ‘अवहट्ट’ को एक ही भाषा मानते हैं। अब्दुल रहमान और विदयापति के साक्ष्य- देसिल बयना सब जन मिट्ठा। ते तयसन जंपओ अवहट्ट’ से बहुत साफ है कि वे विशुद्ध अपभ्रंश नहीं, बल्कि देशभाषा मिश्रित अपभ्रंश को ‘अवहट्ट’ कह रहे हैं।

इस प्रकार जो भाषा तीसरी शती में आभीर आदि जातियों की लोकबोली थी वह छठी शती से साहित्यिक भाषा बन गई और 11वीं सदी तक जाते-जाते शिष्टवर्ग की भाषा तथा राजभाषा हो गई।

भौगोलिक विस्तार

अपभ्रंश के क्रमशः भौगोलिक विस्तारसूचक उल्लेख भी प्राचीन ग्रंथों में मिलते हैं। भरत के समय (तीसरी सदी ) तक यह पश्चिमोत्तर भारत की बोली थी, परंतु राजशेखर के समय (दसवीं सदी ) तक पंजाब, राजस्थान और गुजरात अर्थात् समूचे पश्चिमी भारत की भाषा हो गई। साथ ही स्वयंभू, पुष्पदंत, धनपाल, कनकामर, सरहपा, कन्हपा आदि की अपभ्रंश रचनाओं से प्रमाणित होता है कि उस समय यह समूचे उत्तर भारत की साहित्यिक भाषा हो गई थी।

अपभ्रंश के भेद

मार्कंडेय (17वीं सदी ) के अनुसार अपभ्रंश के तीन भेद- ‘नागरो ब्राचडश्चोपनागरश्चेति ते त्रय:’ भेद अर्थात्‌ नागर (गुजरात) उपनागर (राजस्थान) ब्राचड (सिंध) मान्य करते हैं।

नमिसाधु (11वीं सदी ) के अनुसार “नागराभीरग्राम्यत्व भेदेन त्रिधोक्त:” उपनागर, आभीर और ग्राम्य

इस प्रकार अपभ्रंश के सभी भेद-उपभेद  पश्चिमी भारत से ही संबद्ध दिखाई पड़ते हैं। प्राप्त रचनाओं के आधार पर विद्वानों ने पूर्वी और दक्षिणी दो अन्य क्षेत्रीय अपभ्रंशों के प्रचलन का अनुमान लगाया है।

डॉ. हरमन याकोबी क्षेत्रीय आधार पर अपभ्रंश के चार भेद-पूर्वी, पश्चिमी, उत्तरी, दक्षिणी– करते हैं। डॉ. तगारे इनमें से उत्तरी अपभ्रंश को नहीं मानते। कारण, उसमें रचनाएं नगण्य हैं। शेष तीन- पूर्वी, पश्चिमी, दक्षिणी को वे मानते हैं। याकोबी की पूर्वी अपभ्रंश की धारणा का आधार ‘प्राकृत पैंगलम’ और प. हरप्रसाद शास्त्री संपादित बौद्ध सिद्धों की रचनाएं हैं, लेकिन ज्यूलब्लाख, एस.एन. घोषाल, पं. रामचन्द्र शुक्ल से लेकर नामवर सिंह यह मानते हैं कि सिद्धों की साहित्यिक भाषा पूर्वी अपभ्रंश (मागधी) न होकर शौरसेनी (पश्चिमी) अपभ्रंश है। अपश्रंश की शिष्ट स्वीकृतकाव्यभाषा शौरसेनी थी, इस बात का स्वीकार ‘शेष शौरसेनीवत’ कह कर हेमचन्द्र कहते हैं। हाँ, ध्वनि के स्तर पर उसमें कुछ क्षेत्रीय अंतर अवश्य था। रामचन्द्र शुक्ल का कहना है कि सिद्धों ने भरसक ‘उसी सर्वमान्य व्यापक काव्य भाषा में लिखा है जो उस समय गुजरात, राजपूताना और ब्रजमंडल से लेकर बिहार तक लिखने-पढ़ने की शिष्टभाषा थी।’ पर मगध में रहने के कारण सिद्धों की भाषा में कुछ पूर्वी प्रयोग भी, जैसे- भइले, सुतेत्रि, बूड़िलि आदि मिले हुए हैं। सिद्ध कण्हपा के दोहे टकसाली शौरसेनी में हैं, पर चर्या गीतों की भाषा में पूरबी बोली (पुरानी बिहारी) की गहरी छाप है। डॉ. नामवर सिंह शुक्त्न जी की इसी बात को अपने शब्दों में विकसित करते हुए कहते हैं कि “यदि पूर्वी अपभ्रंश का अर्थ पूर्वी ग्रंथों की साहित्यिक भाषा है तो निश्चय ही पूर्वी अपभ्रंश नाम की कोई चीज नहीं है। लेकिन यदि पूर्वी अपश्रंश का तात्पर्य मागधी अपभ्रंश से है, जो कि आधुनिक पूर्वी बोलियों का मूलस्रोत है, तो निश्चय ही उसका अस्तित्व था। दर असल साहित्य की भाषा में पश्चिम और पूरब का भेद प्राकृतकाल से चला आ रहा है और अपभ्रंश युग में उसके मिट जाने का कोई तर्कसंगत ऐतिहासिक कारण नहीं है।

इस प्रकार स्पष्ट है कि अपभ्रंश के दो क्षेत्रीय भेद थे- पश्चिमी और पूर्वी। ‘पश्चिमी अपभ्रंश परिनिष्ठित’ थी और पूर्वी अपभ्रंश उसकी विभाषा मात्र थी।”

डॉ. भोलानाथ तिवारी आधुनिक आर्य भाषाओं की व्युत्पत्ति की दृष्टि से अपभ्रंश के सात-केकय, टक्‍क, ब्राचड, महाराष्ट्री, शौरसेनी, मागधी, अर्थमागधी- रूप मानते हैं। पं. किशोरी दास वाजपेयी इनके साथ खड़ी बोली के मद्दे नजर ‘कौरवी अपभ्रंश’ को जोड़ते हैं।

विशेषताएँ

अपभ्रंश भाषा का ढाँचा लगभग वही है जिसका विवरण हेमचंद्र के सिद्धहेमशबदानुशासनम् के आठवें अध्याय के चतुर्थ पाद में मिलता है। ध्वनिपरिर्वान की जिन प्रवृत्त्त्तियो के द्वारा संस्कृत शब्दों के तद्भव रूप प्राकृत में प्रचलित थे, वही प्रवृतियाँ अधिकांशतः अपभ्रंश शब्दसमूह में भी दिखाई पड़ती है, जैसे अनादि और असंयुक्त क, ग, च, ज, त, द, प, य और व का लोप तथा इनके स्थान पर उद्वृत स्वर अ अथवा य श्रुति का प्रयोग। इसी प्रकार प्राकृत की तरह (क्त, क्व, द्व) आदि संयुक्त व्यंजनों के स्थान पर अपभ्रंश में भी क्त, क्क, द्द आदि द्वित्तव्यंजन होते थे। परंतु अपभ्रंश में क्रमशः समीतवर्ती उद्वृत स्वरों को मिलाकर एक स्वर करने और द्वित्तव्यंजन को सरल करके एक व्यंजन सुरक्षित रखने की प्रवृत्ति बढ़ती गई। इसी प्रकार अपभ्रंश में प्राकृत से कुछ और विशिष्ट ध्वनिपरिवर्तन हुए। अपभ्रंश कारकरचना में विभक्तियाँ प्राकृत की अपेक्षा अधिक घिसी हुई मिलती हैं, जैसे तृतीया एकवचन में एण की जगह एं और षष्ठी एकवचन में स्स के स्थान पर ह। इसके अतिरिक्त अपभ्रंश निर्विभक्तिक संज्ञा रूपों से भी कारकरचना की गई। सहुं, केहिं, तेहिं, देसि, तणेण, केरअ, मज्झि आदि परसर्ग भी प्रयुक्त हुए। कृदंतज क्रियाओं के प्रयोग की प्रवृत्ति बढ़ी और संयुक्त क्रियाओं के निर्माण का आरंभ हुआ। संक्षेप में अपभ्रंश ने नए सुबंतों और तिङंतों की सृष्टि की।

अपभ्रंश साहित्य

अपभ्रंश साहित्य की प्राप्त रचनाओं का अधिकांश जैन काव्य है अर्थात् रचनाकार जैन थे और प्रबंध तथा मुक्तक सभी काव्यों की वस्तु जैन दर्शन तथा पुराणों से प्रेरित है।

सबसे प्राचीन और श्रेष्ठ कवि स्वयंभू (नौंवी सदी ) हैं जिन्होंने राम कथा को लेकर पउम-चरिउ तथा महाभारत की रचना की है।

दूसरे महाकवि पुष्पदंत (दसवीं सदी) हैं जिन्होंने महापुराण नामक विशाल काव्य लिखा । इसमें राम और कृष्ण की भी कथा सम्मिलित है। इसके अतिरिक्त पुष्पदंत ने णयकुमारचरिउ और जसहरचरिउ जैसे छोटे-छोटे दो चरितकाव्यों की भी रचना की है।

तीसरे लोकप्रिय कवि धनपाल (दसवीं सदी) हैं जिनकी भविस्सयत्त कहा श्रुतपंचमी के अवसर पर कही जानेवाली लोकप्रचलित प्राचीन कथा है।

कनकामर मुनि (11वीं सदी) का करकंडुचरिउ भी उल्लेखनीय चरितकाव्य है।

भाषा-

अपभ्रंश का अपना दुलारा छंद दोहा है। उसी प्रकार अपभ्रंश को दोहाबंध कहा जाता है।

फुटकल दोहों में अनेक ललित अपभ्रंश रचनाएँ हुई हैं-

इंदु (आठवीं शती) का परमात्मप्रकाश योगसार,

रामसिंह (दसवीं शती) का पाहुड दोहा

देवसेन (दसवीं शती) का सावयधम्म दोहा आदि जैन मुनियों की ज्ञानोपदेशपरक रचनाएँ अधिकाशंतः दोहा में हैं। प्रबंधचिंतामणि तथा हेमचंद्ररचित व्याकरण के अपभ्रंश दोहों से पता चलता है कि शृंगार और शौर्य के  मुक्तक भी काफी संख्या में लिखे गए हैं। कुछ रासक काव्य भी लिखे गए हैं जिनमें कुछ तो उपदेश रसायन रास की तरह नितांत धार्मिक हैं, परंतु अद्दहमाण (अब्दुल रहमान) (13वीं सदी) के संदेशरासक की तरह शृंगार के काव्य भी लिखे गए हैं।

जैनों के अतिरिक्त बौद्ध सिद्धों ने भी अपभ्रंश में रचना की है जिनमें सरहपा, कन्हपा आदि के दोहाकोश महत्त्वपूर्ण हैं। अपभ्रंश गद्य के भी नमूने मिलते हैं।

नवीन खोजों से जो सामग्री सामने आ रही है, उससे पता चलता है कि अपभ्रंश का साहित्य अत्यंत समृद्ध है। 150 के आसपास अपभ्रंश ग्रंथ प्राप्त हो चुके हैं जिनमें से लगभग पचास प्रकाशित हैं।

अपभ्रंश भाषा का व्याकरणिक ढाँचा संस्कृत पालि-प्राकृत की तुलना में संक्षिप्त और सरल बन गया। ध्वनियों की संख्या कुछ कम हो गयी। कुछ ध्वनियों का लोप हो गया तो कुछ नयी ध्वनियाँ भी शामिल हो गयीं। अनेक ध्वनियों में परिवर्तन हो गया। जैसे- मां; य/ज; व/ब; ष्ण/न्ह; न/ण; श,ष,स/स,या श, क्ष/क्ख,च्छ, ऋ/रि, रु, र आदि। लोप, आगम, वर्ण विपर्यय, ख ध, छ, झ, थ, ध, फ, भ आदि महाप्राण वर्णों का ह’ में रूपांतरण, संयुक्‍त वर्णों के स्थान पर द्वतीकरण और क्षतिपूरक दीर्घीकरण, स्वराघात के स्थान पर बलाघात की प्रवृत्ति अपभ्रंश में पालि-प्राकृत से बहुत बढ़ गयी। अपभ्रंश की प्रवृत्ति उकारबहुला है। इसके साथ उसमें वियोगात्मक प्रवृत्ति की बढ़ोत्तरी हो चली। विभक्ति के स्थान पर स्वतंत्र परसर्ग सामने आए। नपुंसक लिंग तथा दविवचन समाप्त हो गये। संज्ञा, सर्वनाम,विशेषण, क्रिया के रूपों की संख्या संस्कृत की तुलना में एक चौथाई रह गयी। अपभ्रंश ने अपने सर्वनाम विकसित किये और क्रिया का झुकाव तिडन्त से कृदंतीय हो गया। अपने उत्तरवर्ती काल में अपभ्रंश पूर्ववर्ती रूप से इतनी अलग और दूर जा पड़ी कि वह पुरानी हिंदी के विकास का मार्ग प्रशस्त करने में प्रत्यक्ष सहायक सिद्ध हुई।

अपभ्रंश और आधुनिक भारतीय भाषाएँ

अपभ्रंश – आधुनिक आर्य भाषा तथा उपभाषा
शौरसेनी-पश्चिमी हिन्दी (ब्रजभाषा, खड़ी बोली, बांगरु, कन्नौजी, बुंदेली), राजस्थानी (मेवाती, मारवाड़ी, मालवी, जयपुरी), गुजराती
अर्धमागधी-पूर्वी हिन्दी (अवधी, बघेली, छत्तीसगढ़ी)
मागधी-बिहारी (भोजपुरी, मैथिली, मगही), बंगला, उड़िया, असमिया
खस-पहाड़ी हिन्दी
पैशाची-लहंदा, पंजाबी
ब्राचड़-सिन्धी
महाराष्ट्री-मराठी

अपभ्रंश, अवहट्ट से ‘पुरानी हिंदी’ का संबंध

पं. चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ विक्रम की सातवीं से ग्यारहवीं, पं. रामचन्द्र शुक्ल और पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी सातवीं से पन्द्रहवीं, डॉ. नामवर सिंह आठवीं से तेरहवीं शताब्दी तक अपभ्रंश का काल मानते हैं और अपभ्रंश से पुरानी (प्रारंभिक) हिंदी का भाषा और साहित्यगत पूर्वापर ऐतिहासिक संबंध मानते हैं। गुलेरी जी का कहना है कि “विक्रम की सातवीं शताब्दी से ग्यारहवीं तक अपभ्रंश की प्रधानता रही और फिर वह पुरानी हिंदी में परिणत हो गई। इसमें देशी भाषा की प्रधानता है। पुरानी अपभ्रंश संस्कृत और प्राकृत से मिलती  है और परवर्ती अपभ्रंश पुरानी हिंदी से। ‘दरअसल शौरसेनी अपभ्रंश की भूमि ही पुरानी हिंदी की भूमि है। अन्तर्वैद, ब्रज, दक्षिणी पंजाब, टक्‍्क, भादानक, मरु, त्रवण, राजपूताना, अवंती, दशपुर सौराष्ट्र तक यह फैली हुई थी। यद्यपि पैशाची, महाराष्ट्री आदि उसके कई भेद थे, लेकिन उनमें शौरसनी अपभ्रंश की प्रधानता थी। पुरानी गुजराती, ‘पुरानी राजस्थानी’ नाम कृत्रिम है। कविता की भाषा प्राय: सब जगह एक ही सी थी। उसे पुरानी हिंदी कहने का औचित्य यही है। हाँ, यह बात अवश्य है उसमें स्थानभेद के कारण प्रांतीय बोलियों की छाप पड़ी है। भाषा के ढाँचे की एकरूपता के कारण अपभ्रंश और पुरानी हिंदी के बीच देशकाल की दृष्टि से कोई स्पष्ट रेखा नहीं खींची जा सकती। हेमचन्द्र (सिद्ध हेम शब्दानुशासन), शाडर्गधर (शाडर्गधर पद्धति) मेरुतुंग (प्रबंध चितांमणि) सोमप्रभाचार्य (कुमारपात्र प्रतिवोध) में कुछ ऐसे उदाहरण संगृहीत हैं, जो अपभ्रंश और पुरानी हिंदी, दोनों के हैं। गुलेरी जी के बाद राहुल सांकृत्यायन ने बौद सिद्धों के साहित्य की खोज की। उन्होंने सरहपाद’ को हिंदी का पहला कवि घोषित करते हुए पुरानी हिंदी का सूत्र बंगाल और बिहार के सीमांत से जोड़ दिया। पं. रामचन्द्र शुक्ल ने पुरानी हिंदी के भाषाई दायरे को और व्यापक बनाया। उन्होंने गुलेरी जी की पिछली अपभ्रंश’ और (पुरानी हिंदी’ को देश भाषा मिश्रित अपभ्रंश’ या ‘प्राकृताभास  हिंदी’ कहना ज्यादा पसंद किया और उसके दायरे में पश्चिम के जैन धर्मोपदेशों को स्वयंभू, पुष्पदंत आदि जैन कवियों और हेमचन्द्र तथा सोमप्रभसूरि, मेरुतुंग, शाडर्गंधर आदि संग्रहकारों को शामिल किया, साथ ही पूरब के बौद्ध-सिद्धों, मिथिल्रा के विदयापति, पश्चिमोत्तर के नाथों को भी शामिल किया। नाथों के साहित्य को पुरानी हिंदी में शामिल करने का ठोस आधार डॉ. पीतांबर दत्त बड़थ्वाल द्वारा ‘गोरखबानी’ का प्रकाशन और अन्य नाथ सिद्धों की पांडुलिपियां थीं। उन्होंने पश्चिम से लेकर पूरब के सिद्धों की काव्य भाषा को मूलत: पछांही माना, लेकिन नाथों की भाषा के बारे में महत्त्वपूर्ण बातें कहीं, जो खड़ी बोली के प्रारंभिक विकास की सूचक हैं। “नाथपंथ के इन योगियों ने परंपरागत साहित्य की भाषा या काव्यभाषा से, जिसका ढाँचा नागर अपभ्रंश या ब्रज का था, अब एक ‘सधुक्कड़ी’ भाषा का सहारा लिया, जिसका ढाँचा कुछ खड़ी बोली लिए राजस्थानी था।” कबीर और दादू की साखियों की भाषा यही है। पंजाब के शेखफरीद, अलीबूशाह कलंदर और दिल्‍ली के खुसरो आदि की भाषा भी यही है।

प. हजारी प्रसाद द्विवेदी और डॉ. नामवर सिंह की धारणा अपश्रंश और पुरानी हिंदी के संदर्भ में कुछ अलग है। द्विवेदी जी का कहना है कि ‘भाषा की दृष्टि से हेमचन्द्राचार्य द्वारा परिभाषित परिनिष्ठित अपभ्रंश के साथ पुरानी हिंदी- जिसमें ब्रज, अवधी, बुंदली, बधेली आदि की गणना की जाती है, घनिष्ठ संबंध तो है, परंतु निकट का संबंध नहीं कह सकते। उससे तो आधुनिक गुजराती और राजस्थानी अवश्य विकसित है, लेकिन हिंदी की बोलियों के विकास से उसका ‘परोक्ष संबंध’ एक पीढ़ी पहले का संबंध है।

असल में हेमचन्द्र ने दो प्रकार की अपभ्रंश भाषा का जिक्र किया है। एक-परिनिष्ठित अपभ्रंश, जिसका उन्होंने स्वयं व्याकरण लिखा है और दूसरी है “ग्राम्य अपभ्रंश’। यह पहली से अधिक आगे बढ़ी हुई (एडवांस्ड) है। इसी कारण उन्होंने पहले प्रकार की काव्य भाषा वाली जैन, सिद्ध यहाँ तक कि नाथों के साहित्य को हिंदी साहित्य के इतिहास की ‘प्रस्तावना’ में शामिल करते हुए “ग्राम्य अपभ्रंश’ की सूचक धनपाल, जोइंदु, रामसिंह, अब्दुल रहमान, विद्यापति की रचनाओं और ‘प्राकृत पैंगलम’ के उदाहत अधिकांश पदयों को आधुनिक देशी भाषाओं के विकास का प्रत्यक्ष कारण माना है। उनकी स्थापना है कि “साहित्य की दृष्टि से यह काल बहुत कुछ अपभंश काल का ही बढ़ाव है, पर भाषा की इष्टि से यह परिनिण्ठित अपभ्रंश से आगे बढ़ी हुई भाषा की सूचना लेकर आता है। इसमें भावी हिंदी भाषा और उसके काव्यरूप अंकुरित हुए हैं।” इसी के कारण उन्हें हिंदी साहित्य के इतिहास के प्रथम चरण का नाम ‘आदिकाल’ अधिक उपयुक्त लगता है। डॉ. नामवर सिंह की मूल स्थापनाएं यही हैं; लेकिन वे द्विवेदी जी की मान्यता को जैनों की कुछ और परवर्ती रचनाओं, उक्ति व्यक्तिप्रकरण आदि को जोड़कर अधिक व्यापक और सघन बनाते हैं।

आधुनिक भाषा वैज्ञानिक अपभ्रंश और हिंदी के संबंध को व्युत्पत्ति मूल्रक दृष्टि से देखते हैं। वे आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं का उद्भव विभिन्‍न क्षेत्रीय अपभ्रशों से मानते हैं। डॉ. भोलानाथ तिवारी की दृष्टि में ‘शौरसेनी’ अपभ्रंश से पश्चिमी हिंदी, राजस्थानी, गुजराती और पहाड़ी का, ‘मागधी’ से बिहारी, बंगाली, उडिया, असमिया का, अर्ध मागधी’ से पूर्वी हिंदी का, केकय’ से लरहंदा, ‘टक्क’ से पंजाबी, ‘ब्राचड’ से सिंधी और ‘महाराष्ट्री’ अपभ्रंश से मराठी का विकास हुआ। वे कहते हैं कि हिंदी भाषा और उसकी बोलियों का उद्भव अपभ्रंश के शौरसेनी, मागधी और अर्ध मागधी रूपों से हुआ है। पं. किशोरीदास वाजपेयी शौरसेनी अपभ्रंश से इतर ‘कौरवी अपभ्रंश’ को इसमें जोड़ते हैं जिससे खड़ी बोली का विकास हुआ। कारण कि खड़ी बोली ‘आकारांत’ है और पश्चिमी हिंदी “ओकारांत’। इसलिए दोनों की जननी भाषाएं एक नहीं हो सकती।

भाषा वैज्ञानिकों का मानना है ध्वनि, रूप और शब्द भण्डार की दृष्टि से पुरानी हिंदी सीधे अपभ्रंश की उत्तराधिकारी है। सर्वनाम, परसर्ग, क्रिया, विशेषण में वह अपभ्रंश के दायरे को और विकसित करती हुई धीरे-धीरे अपना स्वतंत्र रूप बनाती है। पुरानी हिंदी की प्रारंभिक अवस्था में तद्भव और देशज रूपों के प्रति विशेष आग्रह का कारण भी अपभ्रंश है।

पं. चन्द्रधर शर्मा गुलेरी और रामचंद्र शुक्ल अपभ्रंश से पुरानी हिंदी के साहित्यिक और काव्यरूप संबंध को स्वीकारते हैं, लेकिन एक तो यह सामग्री इधर-उधर बिखरी है, दूसरे उसकी मात्रा बहुत कम है। शुक्ल जी ने सिद्धों-नाथों की विषय वस्तु और काव्य रूप को नामदेव, कबीर आदि निर्गुणिया संतों से जोड़ा। पं. हजारीप्रसाद द्विवेदी ऐसे विद्वान हैं जिन्होंने अपभ्रंश और पुरानी हिन्दी के साहित्यिक संबंध पर व्यवस्थित रूप से और काफी विस्तार से विचार किया। द्विवेदी जी का कहना है कि अपभ्रंश साहित्य में दोहा, पदड़िया और गेय पदबंध विशेष प्रचलित थे। दोहा या दूहा अपभ्रंश  का सबसे प्रचलित लाडला छंद रहा है। मुक्तक काव्य का वह सारथी था। उसके उपयोग में बड़ी विविधता थी। पूरबी बौद्ध-सिद्धो और पश्चिम के देवसेन, जोइंदु, रामसिंह जैन मुनियों के धार्मिक उपदेशों का वाहन था, जो हिंदी के संत कवियों की साखियों, की प्रेरणा बना। दूसरी बात, इन दोहों का उपयोग श्रृंगार और प्रेमचर्या में हुआ, जिनकी परंपरा में ‘ढोला मारुरा दोहा’ से लेकर बिहारी, मतिराम आदि की सतसइयों का विकास हुआ। इनका उपयोग युद्ध के संदर्भ में हुआ जिसकी परंपरा विशेष रूप से राजस्थानी में आगे बढ़ी। इस प्रकार दोहों का उपयोग व्यावहारिक शिक्षा और नीति की बातों में हुआ जिसका निर्वाह आगे तुलसी, रहीम और बिहारी ने किया। दूसरा पडड़िया बंध है जो प्रबंध, चरित, कथा काव्य के लिए रूढ़ था। पश्चिम के जैन कवियों ने उसे धत्ता या कड़वक के साथ लिखा तो पूरब में सरहपा आदि ने चौपाई दोहा बंध की पद्धति अपनाई। संतों की रमैनियों, सूफी कवियों के प्रेमाख्यानों और तुलसी के रामचरित मानस में यही परंपरा आगे बढ़ी। अपभ्रंश का तीसरा बंध गेय पदबंध था जो जनता के देशी गीतों और रागों से जुड़ा था। इसकी प्रकृति कथात्मक और गैरकथात्मक दोनों थी। रासक, रास, रासो, चॉँचर, फागु, लीला पद, चर्यापद गेयपदबंध है। पृथ्वीराज रासों से रासो की तथा विद्यापति, कबीर, सूर, तुलसी आदि से गेय पदबंध की परंपरा आगे चली।

छंदों के विकास की इष्टि से अपभ्रंश काव्य बहुत समृद्ध है। मात्रिक छंदों की ओर उसका विशेष झुकाव है और उसमें तुक मिलाने की अपनी खूबी है। दोहा अपभ्रंश का अपना मात्रिक छंद है। गुलेरी जी संस्कृत और प्राकृत से अपअंश के पार्थक्य का आधार इसे ही मानते हैं। बाद में पं. रामचंद्र शुक्ल और दविवेदी जी ने भी इसका अनुमोदन किया। चौपाई, दोहा, उल्लाला, रूपमाला के साथ छप्पय, जिसके राजा चंदवरदाई हैं, कुंडलिया, वीर (आल्हा), अहीर (सोरठा), हरिगीतिका, गीतिका, तोमर, त्राटक आदि छंद अपभंश के अपने मांत्रिक छंद है। पुरानी हिंदी ने अपभ्रंश की समृद्ध छंद विरासत को और समृद्ध किया। हिंदी की ब्रजभाषा (कवित्त और सवैया), अवधी (बरवै) ने अपने छंद भी विकसित किये। हजारी प्रसाद द्विवेदी का यह कहना सही है कि साहित्य परंपरा की दृष्टि से हिंदी में अपभ्रंश के सभी काव्य रूपों की परंपरा, अधिकांश ज्यों के त्यों और कुछ थोड़ा बदतर सुरक्षित है।

उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि हिन्दी भाषा का उद्भव, अपभ्रंश के शौरसेनी, अर्धमागधी और मागधी रूपों से हुआ है।

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