आर्यभाषाओं का ऐतिहासिक विकास

प्राचीन आर्य भाषाएँ :- इनका समय लगता 2000 ईसा पूर्व से 500 ईसा पूर्व तक माना गया है के अंतर्गत दो स्थितियां शामिल हैं- वैदिक संस्कृति (2000 से1000 ईसा पूर्व) लौकिक संस्कृत (1000 ईसा पूर्व से 500 ई० पू०)

मध्यकालीन आर्य  भाषाएं :- इनका का समय 500 ईसा पूर्व से एक ईस्वी  सन तक माना गया है| इस भाग के अंतर्गत चार चरण मिलते हैं- पालि (500 ई० से  सन के आरंभ तक) प्राकृत (ईस्वी  सन से आरम्भ से 500 ईस्वी) और अपभ्रंश तथा अवहट्ट (500 ई० से 1100 ई० तक)

आधुनिक आर्य भाषाएँ:- इनका समय लगभग 1100 ईसवी से अभी तक माना जाता है| इनमें हिंदी बांग्ला उड़िया असमी मराठी गुजराती पंजाबी तथा सिंधी जैसी भाषाएं शामिल हैं

हिंदी की विकास यात्रा को तीन चरणों में बांटा जाता है:-

प्राचीन हिंदी  (1100 ई०  से 1350 ई०  लगभग)

मध्यकालीन हिंदी (1350 ई०  से 1850 ई० लगभग)

आधुनिक हिंदी (1850  से अभी तक)

पालि (500 ई० से  सन के आरंभ तक)

नामकरण– पालि (ग्राम) से , पाटलिपुत्र ( मगध की भाषा), पंक्ति से ( बुद्ध के वचनों की पंक्तियाँ ), पालने वाली भाषा

प्राकृत:- ईस्वी  सन से आरम्भ से 500 ईस्वी

अध्ययन के लिए आधारभूत सामग्री = बौद्ध तथा जैन साहित्य

प्राकृत के भेद-

पैशाची/भूतभाषा– क्षेत्र- पश्चिमोत्तर पंजाब, अफगानिस्तान, चीनी , तुर्किस्तान ( न का ण हो जाता है )

अर्धमागधी/ जैन अर्धमागधी- अहिक जैन साहित्य होने के कारण ( क का ग हो जाता है )

मागधी- बिहारी हिंदी का आधार बनी

शौरसेनी- मधुरा के आसपास ( इसी से पश्चिमी हिंदी की ब्रजभाषा,कौरवी, हरियाणवी का विकास)

महाराष्ट्री/ प्रकृष्ट प्राकृत (80% ललित साहित्य इसी में)

अपभ्रंश:- (500 ई० से 1100 ई० तक)

बुद्ध, रासो तथा विशेषकर जैन साहित्य की रचनाओं में अपभ्रंश का प्रयोग

प्रमुख रचनाएँ – महापुराण, जसहर चरिउ,णय्कुमार चरिउ, जिनदत्त कहा , भविस्य कहा, पाहुड दोहा आदि |

लौकिक साहित्य के निम्न वर्ग इसी भाषा का प्रयोग करते हैं

परसर्गों का स्वतंत्र विकास शुरू , संयुक्त व्यंजन के स्थान पर द्वित्व का प्रयोग, उकारबहुलता, दो वचन मिलने लगे,

शब्दभंडार में सबसे अधिक शब्द तद्भव फिर देशज से

भेद –    मार्कण्डेय के अनुसार थीं भेद –      नागर ( गुजरात में),उपनागर (राजस्थान में),व्राचड (सिंध प्रदेश में)

        ड़ा० तगारे के अनुसार-    पूर्वी अपभ्रंश (मध्यप्रदेश के पूर्वी भाग में ) साहित्य- सरहपा, कण्हपा आदि सिद्ध साहित्य , पश्चिमी अपभ्रंश ( गुजरात, राजस्थान) कालिदास के नाटकों में निम्न वर्ग की भाषा, दक्षिणी अपभ्रंश (बरार आदि के क्षेत्र में )  

अवहट्ट :- इस भाषा का काल 9वीं से 11वीं शताब्दी स्वीकार किया गया है | यद्यपि साहित्यिक दृष्टि से यह भाषा चौदहवीं शताब्दी तक दिखाई देता है |

                        प्रमुख रचनाएं- संदेशरासक , कीर्तिलता, वर्ण रत्नाकर, प्राकृत पैंगल, बाहुबलि रास

                        विशेषताएँ– क्षतिपूरक दीर्घीकरण , स्वतंत्र रूप से परसर्ग का प्रयोग,

पुरानी  हिंदी

समय तेहरवीं-चौहदवी शताब्दी, पहली बार हिंदी तथा उसकी बोलियों का स्वतंत्र से प्रयोग होने लगा |

इसे चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने पुरानी हिंदी नाम दिया | आचार्य द्विवेदी= उत्तरकालीन अपभ्रंश , पं० वासुदेवशरण अग्रवाल= उदीयमान हिंदी विशेषताएं -1.   सभी शब्द  स्वरांत 2. उकारबहुलता 3.क्षतिपूर्ति दीर्घिकरण ( पुत्र=पुत्त=पूत ) हि से सभी कारकों का काम चलाया जाता था ( राजा गरबहि बोले नाहीं ) शब्दकोष में विदेशी (

डा भोलानाथ तिवारी के अनुसार हिंदू शब्द का प्राचीनतम प्रयोग सातवीं सातवीं सदी के अंतिम चरण में निशीथ चूर्णी में प्रथम बार मिला है ।
सिंधु शब्द का प्रथम प्रयोग ऋग्वेद में सामान्य रूप से नदी सप्तसिंधु वह नदी विशेष तथा आस पास के प्रदेश के लिए हुआ है ।
संस्कृत के सिंधु का ईरानी में हिंदू हो गया जो सिंधु नदी के आस पास के प्रदेश के अर्थ में प्रयुक्त हुआ ।
ग्रीक के लोगों ने सिंधू नदी को इंदोस तथा यहाँ के निवासियों को इन्दुई तथा प्रदेश को इन्दिके अथवा इंदिका का नाम से संबोधित किया । इंदिका शब्द अंग्रेज़ी में इण्डिया हो गया । dr. भोलानाथ तिवारी के अनुसार खुसरो में हिंदी शब्द का प्रयोग भारतीय मुसलमानों के लिए किया है और हिंदवी शब्द का मध्य देशीय भाषा के लिए प्रयोग किया है। उन्नीसवीं सदी मध्य के पूर्व तक हिंदी का प्रयोग उर्दू या रेख्ता समानार्थी रूप में चल रहा था उर्दू मूलतः तुर्की का शब्द है जिसका अर्थ है शाही शिविर या खेमा । रेख्ता का फ़ारसी में अर्थ हुआ “गिरा हुआ” या “गिराकर बनाया हुआ ढेर” । भारत में रेख्ता का प्रयोग पहले छंद अथवा संगीत के क्षेत्र में हुआ । उन्नीसवीं सदी के मध्य तक रेख्ता का प्रयोग उर्दू के लिए होता रहा ।

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