बिहार के दरभंगा जिले में विपसी गांव में जन्मे विद्यापति (1350 -1450) हिंदी के आदि गीतकार माने जाते हैं |ये तिरहुत के राजा शिव सिंह और कीर्मति सिंह के दरबारी कवि थे| ये शैव सम्मप्धुरदाय के कवि हैं | मधुर गीतों के रचयिता होने के कारण इन्हें अभिनव जय देव के नाम से भी जाना जाता है| विद्यापति महान पंडित थे उन्होंने अपनी रचनाएँ संस्कृत, अवहट्ट और मैथिली भाषा में लिखी | हिंदी साहित्य में विद्यापति की अक्षुण्ण कीर्ति का आधार उनके तीन ग्रन्थ हैं-कीर्तिलता (अवहट्ट)(महाराजकुमार वीर सिंह एवं कीर्ति सिंह के युद्ध एवं सौन्दर्य का वर्णन)इसकी रचना भृंग-भृंगी के संवाद के रूप में हुई है | कीर्तिपताका(अवहट्ट)(राजा शिव सिंह एवं कुच्छ मुस्लिम आक्रमणकारियों के युद्ध का वर्णन) और पदावली(मैथिली) | पदावली के कारण ये मैथिल कोकिल कहलाए | विद्यापति ने नायक-नायिका के वयः संधि, सद्यः स्नात, नख-शिख सौन्दर्य, प्रेम,यौवन, अभिसार, मिलन, विरह, रति-क्रीडा आदि का मार्मिक चित्रण किया है|

  • विद्यापति का जन्म मधुबनी (बिहार) के बिपसी गाँव में हुआ था।
  • इनका जन्म 14वीं -15वीं शदी के मध्य माना जाता है।
  • कुछ विद्वानों के अनुसार- जन्मकाल (1350-1450) माना जाता है।
  • इनके पितामह जयदत्त संत थे। वे योगेश्वर नाम से विख्यात थे।  
  • गुरु का नाम – पंडित हरि मिश्र था।
  • पत्नी का नाम- चंदादेवी (चंपती) देवी था।   
  • ये तिरहुत के राजा शिवसिंह और कीर्ति सिंह के दरबारी कवि थे।
  • राजा शिवसिंह ने विद्यापति को ‘विपसी’ गाँव दान में दिया था। राजा शिवसिंह ने विद्यापति को ‘अभिनव जयदेव’ की उपाधि से विभूषित किया था।   
  • वे ‘शैव’ सम्प्रदाय के कवि थे।

कीर्तिपताका

    • इसमें कवि विद्यापती ने बड़े ही चतुरता से महाराजा शिवसिंह का यशोवर्णन किया है।
    • इस ग्रंथ की रचना दोहा और छन्द में है। कहीं-कहीं पर संस्कृत के श्लोकों का भी प्रयोग किया गया है।
    • कीर्तिपताका ग्रंथ की खण्डित प्रति ही उपलब्ध है, जिसमे बीच के 9 से 29 तक के पृष्ठ अप्राप्य है।
    • इस ग्रंथ के प्रारंभ में अर्धनारीश्वर, चंद्रचूड़ शिव और गणेश की वंदना है।
    • कीर्तिपताका ग्रंथ के 30 वें पृष्ठ से अंत तक शिवसिंह के युद्ध पराक्रम का वर्णन है।
    • डॉ वीरेंद्र श्रीवास्तव लिखते हैं कि- “अतः निर्विवाद रूप से पिछले अंश को विद्यापति-विरचित कीर्तिपताका कहा जा सकता है।” 

कीर्तिलता के महत्वपूर्ण तथ्य:

  • हरप्रसाद शास्त्री ने नेपाल के राजकीय पुस्तकालय से ‘कीर्तिलता’ की खोज की थी।
  • आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने ‘कीर्तिलता’ की भाषा को ‘पूर्वी अपभ्रंश’ या ‘टकसाली अपभ्रंश’ की संज्ञा दी है।
  • कीर्तिलता विद्यापति की ऐतिहासिक रचना है। इनके प्रिय कवि जयदेव और प्रिय ग्रंथ जयदेव का ‘गीत गोविंद’ था। “माधव सुन-सुन वचन हमार।”
  • आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने कीर्तिलता को ‘भृंग-भृंगी संवाद’ माना है।
  • विद्यापति को आदिकाल और भक्तिकाल का ‘संधि कवि’ कहा जा सकता है।
  • कीर्तिलता में विद्यापति के आश्रयदाता राजाकीर्ति सिंह की वीरता और उदारता आदि गुणों का वर्णन मिलता है।
  • विद्यापति ने कीर्तिलता में स्वयं को राजा कीर्तिसिंह का ‘लेखन कवि’ बतलाया है।
  • डॉ हरप्रसाद शास्त्री ने विद्यापति को ‘पंचदेवोपासक’ माना है।
  • डॉ बच्चन सिंह के अनुसार विद्यापति को भक्तकवि कहना उतना ही मुश्किल है जितना खजुराहो के मंदिरों को आध्यात्मिक कहना।
  • विद्यापति को भक्त मानने वाले विद्वान हजारी प्रसाद द्विवेदी, चैतन्य महाप्रभु तथा  श्यामसुंदर दास हैं।
  • आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने विद्यापति को श्रृंगारी कवि मानते हुए पदावली संदर्भ में लिखा है- “अध्यात्मिकता रंग के चश्मे आजकल बहुत सस्ते हो गए हैं।”
  • अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔंध’ ने उनके काव्य की प्रशंसा करते हुए कहा है की- “गीत गोविंद के रचनाकार जयदेव की मधुर पदावली पढ़कर जैसा अनुभव होता है, वैसा ही विद्यापति की पदावली पढ़कर।”
  • डॉ श्यामसुंदर दास के अनुसार हिन्दी के वैष्णव साहित्य के प्रथम कवि विद्यापति हैं। उनकी रचनाएँ राधा-कृष्ण के पवित्र प्रेम से ओतप्रोत हैं। 
  • विद्यापति ने कीर्तिलता को कहाणी कहा है- “पुरुष कहाणी हौ कत्थौ जसु पत्थावौ पुत्तु।।”
  • कीर्तिलता ‘देसिल बयना’ (अवहट्ठा) में रचित है।

कीर्तिलता का उदाहरण-

देसिल बअना सब जन मिट्ठा |तें तैं सन जंपओ अवहट्टा ||

पदावली का एक उदहारण-

चंदु चरचु पयोधर रे,ग्रिम गज मुकुता हार | भसम भरल जनि संकर रे, सुरसरि जलधार ||

सामर सुंदर ए बाट आएल | ते मोरि लागलि आँखि ||

विद्यापति ने पदावली में उन्होंने राधा-कृष्ण प्रणय-लीलाओं का वर्णन किया गया है| इस सम्बन्ध में इनके आदर्श कवि जयदेव रहे हैं| जयदेव के गीतगोविन्द से प्रभावित होकर उन्होंने पदावली का प्रणयन किया |इसमें इनका श्रृंगारी रूप उभर कर सामने आया है | वैसे तो श्रृंगार के दोनों पक्षों- संयोग का वर्णन इसमें उपलब्ध होता है पर जो तन्मयता संयोग श्रृंगार में दिखाती है वह वियोग में नहीं दिखती |

कुच्छ आलोचक उन्हें भक्त कवि सिद्ध करने का प्रयास करते हैं, परन्तु विद्यापति मूलतः श्रृंगारी कवि ही सिद्ध होते हैं| नारी के अंग विशेष का वर्णन उन्होंने अपने इष्ट शिव से भी बढ़-चढ़कर किया है |

आचार्य राम चन्द्र शुक्ल-“आध्यात्मिक रंग के चश्मे बहुत सस्ते हो गए हैं| उन्हें चढ़ाकर ही जैसे कुछ लोगों ने गीतगोविन्द के पदों को आध्यात्मिक संकेत बताया है| वैसे ही विद्यापति के इन पदों को भी “

बच्चन सिंह ने इन्हें जातीय कवि कहा है |

हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इन्हें-“श्रृंगार रस के सिद्ध वाक् कवि ” कहा है |

निष्कर्षतः- इन्हें कृष्णगीति परम्परा का प्रवर्तक माना जाता है |

रचनाएँ

  • विद्यापति संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, मैथिली, ब्रजबुलि, बांग्ला और हिन्दी के पंडित थे।
  • उनकी निम्न चौदह रचनाएँ मिलती हैं- कीर्तिलता, कीर्तिपताका, गया पत्तलक गंगावाक्यावली, दान वक्यावाली, दुर्गाभक्ति तरंगिणी, पुरुष परीक्षा, प्रमाण भूव पुराण संग्रह, पदावली, भूपरिक्रमा, लिखनावली, विभव सागर, वर्ष कृत्य, शैव सर्वस्वसार।
  • इसमें से कीर्तिलता, कीर्तिपताका अपभ्रंश में है और पदावली हिन्दी (मैथिली ब्रजबुलि) में है। शेष ग्रंथ संस्कृत में है।

उपाधियाँ 

मैथिली कोकिल, अभिनव जयदेव (यह उपाधि राजा शिवसिंह ने दी थी), लेखन कवि, वयः संधि के कवि, दशावधान, कवि कंठहार।

 

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