संस्कृत के उत्तरकालीन ग्रंथों में आचार्यों को तीन श्रेणियों निर्धारित की गई है, जिनका वर्णन इस प्रकार है-

द्भावक आचार्य-इसके अंतर्गत उन विद्वानों को रखा गया है जिन्होंने किसी सिद्धांत की उद्भावना की अथवा विवेचना की। जैसे आचार्य वामन, आचार्य अभिनव गुप्त आदि।

व्याख्याता आचार्य-इसके अंतर्गत वे आचार्य आते हैं जिन्होंने नवीन सिद्धांतों का अनुसंधान न करके पूर्व निर्धारित सिद्धांतों का खंडन मंडन अथवा उनकी विशद व्याख्या की |जैसे मम्मट, पंडित विश्वनाथ और पंडित जगन्नाथ।

कवि, शिक्षक आचार्य– ये न तो सिद्धांत के उद्भाव व विवेचना से संबंधित थे और ना ही उसके विकास से, बल्कि सिद्धांतों को जन सामान्य अथवा नए आचार्यों के लिए सहज व साध्य बनाने के लिए प्रस्तुत थे।इन आचार्यों मेँ जयदेव अपेक्षित तथा भानुदास मिश्र का प्रमुख स्थान रहा है।

रीतिकालीन कवियों का आचार्यत्व

रीतिकाल में आचार्य कर्म का बहुत कम निर्वाह हुआ है।रीतिकालीन कवियों ने लक्षण ग्रंथ लिखकर काव्यांगों का निरूपण किया। निस्संदेह राजाश्रय , पारंपरिक प्रतियोगिता की भावना और इच्छित ऐश्वर्य हेतु आश्रयदाता की प्रशंसा करने की प्रवृति ही इस प्रबलता का मुख्य कारण थी। इसलिए कवियों ने लक्षण ग्रंथ और लक्ष्य ग्रंथों दोनों ही प्रकार के ग्रंथ लिखकर इस कर्त्तव्य का निर्वाह किया।

रीतिकालीन कवि अथवा ग्रंथकार दरबारी आवश्यकताओं के अनुरूप ही कवि कर्म से जुड़े हुए थे।उन्हें आचार्य नहीं कहा जा सकता है क्योंकि इन्होंने किसी मौलिक सिद्धांत की विवेचना नहीं की और ना ही किसी सिद्धांत का खंडन मंडन किया। जबकि आचार्य का अर्थ होता है उद्भावना अथवा विवेचन करने वाला।

रीतिकालीन आश्रयदाताओं का उद्देश्य मनोविनोद का था ना कि काव्यशास्त्र के विकास का। ये कविता को काव्यशास्त्रीय ढंग से मात्र सुनना और उसके उससे मनोरंजन प्राप्त करना चाहते थे। यही कारण है कि रीतिकालीन रचनाकारों ने अपने मुक्तकों के सहारे इनकी कामोत्तेजना को और उद्दीप्त किया तथा धन अर्जित किया।

रीति ग्रंथकारों को संस्कृत के आचार्यों के समक्ष नहीं रखा जा सकता। उन्होंने सरस उदाहरण एवं व्याख्या के द्वारा काव्यांगों को सहज आस्वादन योग्य बनाने का कार्य किया। इसलिए यदि उन्हें किसी नाम से संबोधित करने की बात की जाए तो कभी शिक्षक, आचार्य कहा जा सकता है।

हालांकि डॉक्टर बच्चन सिंह ने इन्हें आचार्यत्व और कवित्व दोनों ही श्रेणियों में उत्कृष्ट नहीं माना। उन्होंने कहा कि आचार्यत्व के मोह ने इस इन निसर्ग सिद्ध कवियों की कविताओं के पांव में लौह श्रृंखला का कार्य किया।

डॉक्टर नरेंद्र इनके सरस उदाहरण और कविता रचना को ही आचार्य को प्रभावित करने वाले कारणों के रूप में देखते हैं।

आचार्य शुक्ल भी इन्हें आचार्याय नहीं मानते, परंतु उनकी कविता की भावप्रवणता और सहजता को उत्कृष्ट मानते हैं।

हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भी इन रचनाकारों के वर्ग को निर्धारित करते हुए इन्हें उत्तरकालीन संस्कृत साहित्य की सामग्री से ही प्रेरित माना है।यह उचित है कि विधि, रचनाकार, ग्रंथकार मौलिक उदभाषक नहीं थे परंतु इन के आचार्यत्व को कुछ महत्वपूर्ण क्षेत्र के लिए महत्वपूर्ण माना जा सकता है।

आचार्यत्व के लिए जिस सूक्ष्म विवेचनशक्ति की आवश्यकता होती है, उसका अभाव इन कवियों में था।

काव्यांगों का विस्तृत विवेचन, तर्क द्वारा खंडन-मंडन एवं नवीन सिद्धांत का प्रतिपादन भी हिंदी नीतिग्रंथों में नहीं हुआ। एक दोहे में अपर्याप्त लक्षण देखकर वे उसके उदाहरण देने में प्रवृत्त हो जाते थे। परिणामतः अलंकारादि के स्वरूप का ठीक ठीक बोध नहीं होता। कहीं कहीं तो उदाहरण भी गलत दिए हैं।

इन्होने शृंगार रस के विवेचन में ही रुचि ली। अन्य रसों की प्रायः उपेक्षा की गयी। इस प्रकार उनकी रीति विवेचन एकांगी, एकपक्षीय अधूरा है।

शब्द शक्ति एवं दृश्य काव्य अर्थात नाटक का विवेचन भी इन्होंने बहुत कम किया है। भिखारी दास एवं प्रताप शाही ने शब्दशक्तियों जो थोड़ा बहुत विवेचन किया है, उसमें भी विसंगति दिखाई पड़ती है।

हिंदी के इन रीतिग्रंथकारों में मौलिक दृष्टि का अभाव था।संस्कृत काव्य शास्त्र के अनुकरण पर उन्होंने अपनी रीतिग्रंथ का निर्माण किया।

डॉक्टर नरेंद्र का मत है- “हिंदी के रीति आचार्य निश्चित ही किसी नवीन सिद्धांत का आविष्कार नहीं कर सके। ऐसे व्यापक आधारभूत सिद्धांत का जो काव्य चिंतन को एक नई दिशा प्रदान करता है, संपूर्ण रीतिकाल में अभाव है।

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का कथम है- इन्होंने शास्त्रीय मत को एक श्रेष्ठ और अपने मत को गौण मान लिया। इसलिए स्वाधीन चिंतन के प्रति एक अवज्ञा का भाव आ गया। 

Scroll to Top