रिपोर्ताज (Riportaj)
रिपोर्ताज फ्रांसीसी भाषा का शब्द है और अंग्रेजी शब्द ‘रिपोर्ट’ से मिलता-जुलता है। लेकिन ‘Report’ समाचार पत्रों के संवाददाता लिखते हैं, जो तथ्यों का संकलन मात्र होता है, क्योंकि उसका लक्ष्य पाठकों को तथ्यों से परिचित कराना होता है। वास्तविक घटना को ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर देना रिपोर्ट है अर्थात ‘रिपोर्ट’ सूचनात्मक होती है। वहीं ‘Reportaj’ साहित्यिक शैली में लिखा जाता है।
इसका विकास सन 1936 ईस्वी के बाद दितीय विश्व युद्ध के समय पाश्चात्य प्रभाव से हुआ। जीवन की सूचनाओं की कलात्मक अभिव्यक्ति के लिए रिपोतार्ज का जन्म हुआ। रिपोतार्ज पत्रकारिता के क्षेत्र की विधा है। ‘रिपोतार्ज’ शब्द का उद्भव ‘फ्रांसीसी’ भाषा से माना जाता है।
- “इसमें साहित्यिकता, कल्पना, भावुकता, संवेदना का पुट होता है।”
- हिंदी साहित्य कोष के अनुसार- “रिपोर्ट के कलात्मक और साहित्यिक रूप को ही रिपोर्ताज कहते हैं।” रिपोर्ताज में भावना का आवेग होता है।
- बाबू गुलाबराय ने लिखा है- “रिपोर्ट की भांति यह घटना या घटनाओं का वर्णन तो अवश्य होता है किन्तु उसमें लेखक के ह्रदय का निजी उत्साह रहता हाँ जो वस्तुगत सत्य पर बिना किसी प्रकार का आवरण डाले उसको प्रभावमय बना देता है।”
हिंदी में इसे ‘वृत्त-निर्देशन’ या ‘सूचिका’ भी कहा जाता है परंतु वर्तमान में ‘रिपोर्ताज’ नाम ही प्रचलित है। इस विधा का प्रादुर्भाव यूरोप में 1936 ई. के आस-पास द्वितीय विश्वयुद्ध के समय हुआ था। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय ही यूरोप के रचनाकारों ने युद्ध के मोर्चे से साहित्यिक रिपोर्ट तैयार की। इन्हीं रिपोर्टों को ही बाद में रिपोर्ताज कहा गया। ’रिपोर्ताज’ के जनक के रूप में रूसी साहित्यकार इलिया एहरेनवर्ग को स्वीकार किया जाता है।
- “हाल-ताज में ही घटी तथा लेखक द्वारा प्रत्यक्ष देखी गई घटनाओं का अंतरंग अनुभव के साथ किया गया वर्णन रिपोर्ताज है।”
- डॉ. विश्वम्भरनाथ उपाध्याय के अनुसार- “किसी घटना की रिपोर्ट के कलात्मक और साहित्यिक रूप को रिपोर्ताज कहा जाता है।”
- इसी क्रम में उन्होंने आगे लिखा है कि, “बिना कल्पना को अनुभव में बदले सफल रिपोर्ताज नहीं लिखे जा सकते और साथ ही अनुभव को कल्पना में पकाए बिना भी रिपोर्ताज का सफल लेखन नहीं हो सकता।”
- वहीं डॉ. रामविलास शर्मा के अनुसार- “कल्पना के सहारे रिपोर्ताज नहीं लिखी जा सकती… रिपोर्ताज लिखने के लिए जनता से सच्चा प्रेम होना चाहिए।”
- डॉ. विश्वम्भरनाथ उपाध्याय के शब्दों में- “उसका संबंध सिर्फ वर्तमान से होता है किंतु उसका लेखक वर्तमान के उस बिंदु पर होता है, जिसमें भूतकालीन मूल्य और भावनाएं रहती हैं और भविष्य के प्रति उत्कट लालसा भी।”
रिपोतार्ज की परिभाषा
रिपोर्ट के कलात्मक तथा साहित्यिक रूप को रिपोतार्ज कहते हैं। वास्तव में रेखाचित्र की शैली में प्रभावोत्पादक ढंग से लिखे जाने में ही रिपोतार्ज की सार्थकता है। आंखों देखी और कानों सुनी घटनाओं पर भी रिपोतार्ज लिखा जा सकता है। कल्पना के आधार पर रिपोतार्ज नहीं लिखा जा सकता है।
रिपोतार्ज के जनक
हिंदी में रिपोर्ताज का जनक शिवदान सिंह चौहान को माना जाता है। ‘लक्ष्मीपुरा’ जो कि रुपाभ पत्रिका के दिसंबर 1938 में प्रकाशित हुआ था, हिंदी प्रथम रिपोतार्ज माना जाता है।
रिपोर्ताज की विशेषताएं
- ‘रिपोतार्ज’ फ्रांसीसी शब्द है। गद्य विधा के रूप में इसका आविर्भाव द्वितीय विश्वयुद्ध के आसपास हुआ।
- ‘रिपोर्ताज’ के जनक के रूप में रूसी साहित्यकार इलिया एहरेनवर्ग को स्वीकार किया जाता है।
- हिन्दी में रिपोतार्ज का जनक शिवदान सिंह चौहान को माना जाता है। रूपाभ पत्रिका के दिसम्बर, 1938 में प्रकाशित ‘लक्ष्मीपुरा’ को हिन्दी का प्रथम रिपोतार्ज माना जाता है।
- रिपोतार्ज शैली में चंडी प्रसाद सिंह लिखित ‘युवराज की यात्रा’ (1897) प्रिंस ऑफ वेल्स की भारत यात्रा का विस्तृत और व्यौरेवार वर्णन है।
- यह आँखों देखी घटनाओं के आधार पर लिखा जाता है। इसलिए इसमें तथ्यों की प्रधानता और कल्पना तत्व कम मात्रा में पाया जाता है।
- यह घटना-प्रधान होने के साथ-साथ कथा तत्व से युक्त होता है। क्योंकि घटना का यथातथ्य वर्णन इसका प्रमुख लक्षण है।
- लेखक को वतुस्थिति और विषय की जानकारी होनी चाहिए।
- लेखक में संवेदनशीलता और सूक्ष्म पर्यवेक्षण-शक्ति आवश्यक है।
- सरसता, प्रवाह और भाव-प्रवणता इसके अनिवार्य गुण हैं।
- सीमित परिधि में अधिक तथ्यों को प्रस्तुत करना इसका लक्ष्य होना चाहिए, परंतु आकार का कोई बंधन नहीं होता। वह छोटा या बड़ा हो सकता है।
- इसमें साहित्यिकता एवं कलात्मकता का समावेश होना चाहिए।
प्रमुख रिपोर्ताज
लेखक | रिपोर्ताज (प्रकाशन वर्ष) |
---|---|
शिवदान सिंह चौहान | लक्ष्मीपुरा (1938 ई०, ‘रूपाभ’ पत्रिका में प्रकाशित होने वाली रिपोर्ट) |
रांगेय राघव | तूफानों के बीच (1946 ई०, हंस’ पत्रिका में बंगाल के अकाल से संबंधित रिपोर्टो का पुस्तकाकार संकलन) |
भदंत आनंद कौसल्यायन | देश की मिट्टी बुलाती है |
शमशेर बहादुर सिंह | प्लाट का मोर्चा (1952 ई०) |
कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ | क्षण बोले कण मुस्काए (1953 ई०) |
शिव सागर मिश्र | वे लड़ेंगे हजारों साल (1966 ई०) |
धर्मवीर भारती | युद्ध यात्रा (1972 ई०) |
फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ | ऋण जल धन जल (1977 ई०), नेपाली क्रांति कथा (1978 ई०), श्रुत-अश्रुत पूर्व (1984 ई०) |
प्रकाश चन्द गुप्त | (1) स्वराज्य भवन, (2) अल्मोड़े का बाजार, (3) बंगाल का अकाल। |
उपेन्द्रनाथ अश्क | पहाड़ों में प्रेममय संगीत |
रामनारायण उपाध्याय | (1) गरीब और अमीर पुस्तकें (1958), (2) नववर्षांक समारोह में। |
विवेकी राय | (1) जुलूस रूका है (1977), (2) बाढ़ ! बाढ़ !! बाढ़ !!! |
डॉ० भगवतशरण उपाध्याय | खून के छींटे |
रामकुमार वर्मा | पेरिस के नोट्स |
कैलाश नारद | धरती के लिए |
जगदीश प्रसाद चतुर्वेदी | चीनियों द्वारा निर्मित काठमाण्डू- ल्हासा सड़क |
निर्मल वर्मा | प्राग : एक स्वप्न |
सती कुमार | क्या हमने कोई षड्यंत्र रचा था? |
श्रीकांत वर्मा | मुक्ति फौज |
कमलेश्वर | क्रान्ति करते हुए आदमी को देखना |
चंडी प्रसाद सिंह | युवराज की यात्रा (1897) |
अन्य
- लक्ष्मीचंद्र जैनकागज की कश्तियां, नये रंग नए ढंग
- शिवसागर मिश्रवे लड़ेंगे हजारों साल (1966)
- धर्मवीर भारतीयुद्ध यात्रा (1972)
- अज्ञेयदेश की मिट्टी बुलाती है
- फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ऋण जल धन जल (1977), नेपाली क्रांति कथा (1978), श्रुत-अश्रुत पूर्व (1984), एकलव्य के नोट्स
- विवेकी रायजुलूस रुका है (1977), बाढ़! बाढ़!! बाढ़!!!
- भागवत शरण उपाध्यायखून के छीटें
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