संक्षिप्त परिचय

  • मन्नू भंडारी को साहित्य जगत में आपका बंटी उपन्यास से प्रसिद्धी मिली ।
  • महाभोज नाटक सबसे पहले उपन्यास के रूप में 1979 में प्रकाशित हुआ था। यह नाटक राजनिति पर आधारित यथार्थपरक है।
  • इसी उपन्यास को नाटक के रूप में 1983 में प्रकाशित किया गया। इसका पहला मंचन राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय दिल्ली के रंग-मंडल द्वारा मार्च 1982 में हुआ था ।
  • हिंदी साहित्य जगत में यह पहली अपने आप में अलग कृति है। जिसे उपन्यास और नाटक दोनों विधाओं में प्रकाशित किया गया।
  • महाभोज नाटक में सरोहा गाँव का जिक्र है। यह गाँव उत्तर प्रदेश पश्चमी भाग में स्थित है।

डॉ० राम चन्द्र तिवारी के शब्दों में- “इसमें महाभोज राजनीतिक अवमूल्यन का नग्र स्वरुप दिखाया गया है।”

नाटक का उद्देश्य :

  • इस नाटक में राजनीति स्वार्थ के लिए नैतिक पतन का चित्रण है।
  • इसमें गरीब और दलितों के आवाज को दबाने का प्रयास किया गया है।
  • चाटुकारिता, पद-लोलुपता, लोकतंत्रीय व्यवस्था और भ्रष्टाचार का दुरुपयोग की झलक है।
  • प्रजातंत्र के चौथे स्तंभकारों (पत्रकारों) का स्वार्थ वश बिकाऊ हो जाते है।
  • गुनाहगारों को बचाने और बेगुनाहों को फ़साने का षड्यंत्र रचा जाता है।

कथानक

महाभोज उपन्यास का ताना-बाना उतर प्रदेश के सरोह गाँव के इर्द-गिर्द बुना गया है।यह गाँव उत्तरप्रदेश के पश्चिमी भाग में स्थित है। गाँव में विधान सभा की एक सीट के लिए चुनाव होने वाला है। कहानी बिसेसर उर्फ़ बिसू की मौत की घटना से शुरू होता है। सरोह गाँव के हरिजन बस्ती में आगजनी की घटना में दर्जनों व्यक्तियों की निर्मम हत्या हो चुकी थी। बिसू के पास इस हत्या काण्ड के प्रमाण थे, जिन्हें वह दिल्ली जाकर सक्षम पदाधिकारियों को सौपना चाहता है और बस्ती के लोगों को न्याय दिलवाना चाहता है। किन्तु राजनितिक षड्यंत्र और जोरावर के षड्यंत्र के कारण बिसू के चाय में दो लोगों को भेजकर जहर मिलवा दिया जाता है, जिसके चलते उसकी मृत्यु हो जाती है। बिसू के मौत के बाद उसका साथी बिंदेश्वरी उर्फ़ बिंदा इस प्रतिशोध को जिंदा रखता है। बिंदा को भी राजनीति और अपराध के जाल में फँसाकर सलाखों के पीछे डाल दिया जाता है। पिछड़ी और वंचित जाती के लोगों के साथ अत्याचार और प्रतिनिधि चरित्रों द्वारा उसका प्रतिरोध इस नाटक को गति प्रदान करता है।   

 पात्र

      1. दा साहेब: मुख्यमंत्री
      2. सुकुल बाबू: सत्ता प्रतिपक्ष, पूर्व मुख्यमंत्री और सरोह गाँव की विधानसभा सीट के प्रत्याशी
      3. अप्पा साहेब: सत्तारूढ़ पार्टी के अध्यक्ष
      4. पांडे जी: दा साहेब के निजी सचिव
      5. लखनसिंह: सरोहा गाँव की सीट से सत्ताधारी पार्टी का प्रत्याशी, दा साहब का विश्वासपात्र
      6. जमना बहन: दा साहब की पत्नी
      7. एस० पी० सक्सेना: पुलिस अधीक्षक
      8. डी० आई० जी० सिन्हा: यह बड़ा ही स्वार्थी चरित्र है
      9. श्रीमती सिन्हा: डी० आई० जी० की पत्नी
      10. दत्ता बाबू: मशाल समाचार पात्र के संपादक
      11. भवानी: मशाल के सहायक संपादक
      12. महेश: रिसर्च स्कॉलर व सूत्रधार
      13. नरोत्तम: प्रेस रिपोर्टर
      14. मोहन सिंह: पुलिस कोन्स्टेबल
      15. रत्ती: दा साहेब का पी० ए०
      16. हीरा: बिसू के पिता
      17. बिसेसर उर्फ़ बिसू: (मुख्य पात्र) हरिजनों का हमदर्द, जो हरिजन बस्ती में आगजली के सबूत इकठ्ठा करने के कारण मार दिया जाता है।
      18. बिन्देश्वरी प्रसाद उर्फ़ बिंदा: बिसू का अभिन्न मित्र
      19. रुक्मा: बिंदा की पत्नी
      20. जोरावर: स्थानीय बाहुबली और दा साहब का सहयोगी
      21. काशी: सुकुल बाबू ( भूतपूर्व मुख्यमंत्री) का
      22. सदाशिव अत्रे: सत्ताधारी पार्टी के अध्यक्ष
      23. जोरावर: स्थानीय बाहुबली और दा साहब का सहयोगी
      24. लखन सिंह  सरोहा गाँव की सीट से सत्ताधारी पार्टी का प्रत्याशी, दा साहब का विश्वासपात्र
      25. लोचन भैया: सत्ताधारी पार्टी के असंतुष्ट विधायकों के मुखिया
      26. दत्ता बाबू: मशाल समाचार पात्र के संपादक

नाटक में ग्यारह (11) दृश्य 

 

पहला दृश्य:

इस दृश्य में बिसू की माँ अपने बेटे के लाश के पास छाती पीट-पीट कर रो रही है। बाप घुटनों पर सिर झुकाकर बैठा है। चारों तरफ लोग जमा हैं। माहौल में सनसनी और तनाव है। उसकी लाश सड़क के किनारे पुलिया पर पड़ी मिलने से पूरे गाँव में सनसनी फैल गया है। पुलिस सिर्फ खानापूर्ति करती है। हालांकि आए दिन की तुलना में इस बार पुलिस थोड़ा मुश्तैद दिखाती है। गाँव में सभी लोगों को यह यकिन हो गया था कि बिसू की हत्या हुई है। आगजनी  वाली घटना के कारण। बिसेसर की हत्या सिर्फ एक दलित युवक की हत्या नहीं थी। उस लोकतंत्र प्रणाली की हत्या थी, जिसमे ‘शिक्षा’ व ‘समानता’ जैसे अधिकारों को शामिल करने और आदर्श बातें की जाती रही है क्योंकि किसी भी देश या समाज में विकाश की नींव रखने के लिए इस दोनों का होना बेहद जरुरी माना गया है।

दूसरा दृश्य:

शहर का महौल है। यहाँ ‘मशाल’ साप्ताहिक का कार्यालय है। भवानी अपनी मेज पर फैली फ़ाइलों में व्यस्त है। नरोत्तम गाँव से रिपोर्ट लेकर सीधे भवानी के पास पहुँचकर गाँव का सब हाल सुनाता है। बिसेसर हरिजनों का नेता था। गाँव के चुनावी सरगर्मी में ऐसा होना कोई आम बात नहीं है। आगजनी वाली घटना में किसी के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी। किन्तु इस घटना में सब कुछ मुस्तैदी से हो रहा था। पूर्व मंत्री सुकुल बाबू का चुनाव में खम ठोककर खड़ा होना। दोनों के बीच समसामयिक परिस्थितियों के बारे में बात होती है कि आज भी हरिजनों की जिंदगी बदतर ही है। इस आगजनी में नौ लोगों के जल कर मर जाने के बाद भी मामला ठंडा पड़ गया था। जबकि विधानसभा तक बात उठी थी। यहाँ पत्रकारिकता का दो चेहरा दिखाई देता है। जहाँ पर एक ओर नरोत्तम है, जो सही और सत्य पत्रकारिता करने की कोशिश कर रहा है। वहीँ पर दूसरी ओर भवानी है जो पत्र का अधिक बिक्री कैसे और किस माध्यम से हो वैसी पत्रकारिता करता है। नाटक में समसामयिक परिस्थितियों का यथावत जिक्र है, जो कि आज के परिपेक्ष्य में प्रासंगिक है।

तीसरा दृश्य:

यहाँ दा साहब के घर और घरेलु दफ्तर का दृश्य है। यहाँ पर लखन इस बात से हैरान है कि बिसू की हत्या कि खबर अखबार में छपी है। हरिजनों के सारे वोट विपक्षी पार्टी सुकुल बाबू को चली जाएगी। इस बात से वह आतंकित है। चुनावी दाव-पेंच और वोट कैसे और किस तरह लालच देकर लिया जाए, इसकी योजना बनाई जाती है। नाटक में चुनावी माहौल को दिखाया गया है।

चौथा दृश्य:

बिसेसर की मौत से आक्रोशित बिंदा। उसके मौत का बदला लेने के लिए तैयार रहता  है। महेश और रुक्मा उसे इस पचड़े में न पड़ने की सलाह देते हैं। बिसेसर की मौत के कारण गाँव में सभी ग्रामीण नारे और जुलुस निकालकर आक्रोस दर्शाते हैं। वहीं सुकुल बाबू गाँव में जनसभा करते हैं। आगामी चुनाव के मधेनजर। जनसभा का अंत सुकुल बाबू और दा साहब के लोगों के बीच मारपीट से होती है।

पाँचवा दृश्य:

राजनीति में किस प्रकार प्रलोभन देकर रैलियों में भीड़ इकठ्ठी की जाती है। इसमें यह तरकीब सुकुल बाबू अपनाते हैं। इस रैली से दा साहब के पार्टी के लोग आगामी चुनाव के मद्देनजर थोड़े चिंतित हो जाते हैं। वैसे भी दा साहब के पार्टी के लोग उनसे बेहद नाराज थे। लखन को सुकुल बाबू के मुकाबले खड़े करने से। दा साहब मामले की पुनः रिपोर्ट बनाने के लिए सक्सेना को कहते हैं। अप्पा साहब से पार्टी के सभी लोग मतभेद को दरकिनार करके पार्टी का साथ देने के लिए कहते हैं।

छठा दृश्य:

मशान का दफ्तर जहाँ महेश और बिंदा नरोत्तम के कहने पर आगजनी की सबूत लेकर जाते हैं। दत्ता बाबू द्वारा ढंग से और मामले की गंभीरता को न समझते हुए बेहद लापरवाही के साथ पेश आते हैं। जिससे वे दोनों गुस्से में वापस चले जाते हैं। नरोत्तम का इस बात से आगबबुला होकर मशाल छोड़ने की बात करता है।

सातवां दृश्य:

गाँव में दा साहब के जन संबोधन की तैयारी जोरों से की जा रही है, जिसमे जोरावर पूरी व्यवस्था का जायज़ा खुद बारीकी से ले रहा है। इस बात से जोरावर खुद को बहुत तिरस्कृत महसूस करता है। इसी बीच काशी जो कि सुकुल बाबू के विरोधी पार्टी का सदस्य है इस मौके का फायदा उठाता है और जोरावर को भड़का कर चुनाव में खड़े होने की राय देता है।

आठवां दृश्य:

एस०पी० सक्सेना बिसू की मौत की पुनः तहकीकात करने गाँव आता है। समूचे गाँव में खलबली मची हुई है। सक्सेना एक-एक कर के सबकी गवाही लेता है। बिंदा ने साफ-साफ जोरावर का नाम बताया और आगजनी के पीछे भी उसी के हाथ होने के कारण वो बिसू के जान का दुश्मन था। आगजनी के सभी सबूत बिसू ने इकठ्ठे किए हुए थे। जिसमे जोरावर की संलिप्तता थी। पोस्टमार्टम के रिपोर्ट में भी जहर से मौत की बात पता चली थी।

नौवा दृश्य:

अचानक सक्सेना के रेस्ट हाउस पर रात को महेश आता है। बिंदा की गवाही के कारण उसकी पिटाई की बात बताता है और जिन लड़कों ने बिसू को जहर दी थी उनके बारे में बताता है। उन दोनों को पकड़ लीजिए वही एकमात्र सबूत हैं नहीं तो बिंदा ही उसे मार डालेगा। दोनों लड़के टिटहरी गाँव के हैं बिंदा भी वही गया है।

दसवां दृश्य:

सक्सेना के रिपोर्ट में जोरावर को साफ़-साफ़ हत्यारा घोषित किया गया। जोरावर के चुनाव में खड़े होने से होने वाले नुकसान से दा साहब हैरान हो जाते है। जोरावर को सक्सेना की रिपोर्ट से धमकाते हैं और वह चुनाव में खड़े होने के फैसले को बदल देता है। दा साहब इस मामले में बिंदा को बिसू का हत्यारा बताते हैं कि रुक्मा के साथ संबंध को बिंदा बर्दाश्त नहीं कर पाया। चोरी छुपे उसने इस कार्य को अंजाम दिया। दा साहब ने डी०आई०जी० को कहा कि सक्सेना को सस्पेंड करो और बिंदा को गिरफ़्तार करो। इस दृश्य में राजनीति में व्याप्त शक्ति का दुरुपयोग साफ़ दिखाई देता है। ईमानदारी का कोई वजूद नहीं यह भी साफ़ दिखाई देता है।

ग्यारहवां दृश्य:

जोरावर के घे पर जश्न का माहौल है जहाँ उसके बिसू के हत्या के मामले से साफ़ बाहर निकल जाने की ख़ुशी में नाचने वालीं को बुलाया गया है। दूसरी तरफ सिन्हा आई० जी० के प्रमोशन और शादी की पच्चीसवीं सालगिरह का जश्न मना रहे है। उधर थाने में बिंदा को मार-मार के बिसू से खून का इकरार करवाने में लगे है। महाभोज नाटक में कभी दृश्य दा साहब के घर का दिखाया जाता है तो कभी थाने में पिटता हुआ बिंदा का। एक तरफ दा साहब बिंदा को फँसा कर दुनिया के सुख और आराम फरमा रहे वही बेकसूर बिंदा दर्द से कराह रहा है। पुनः जोरावर के घर का दृश्य है, सिन्हा का पार्टी का दृश्य है और दा साहब के खाने पीने का दृश्य आता है या सभी महाभोज चलते रहता है। फिर थाने का दृश्य आता है बिंदा कराह रहा होता है महेश वहाँ जाकर भी कुछ नहीं कर पाता है और नाटक समाप्त हो जाता है।

निष्कर्ष

अतः यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि मन्नू भंडारी का महाभोज नाटक  अपने नाम को पुरी तरह से सार्थकता प्रदान करता है। महाभोज अथार्त बड़ा भोज, बड़ा आयोजन जिसमे खाने के लिए बड़े-बड़े लोग आमंत्रित किए जाते हैं। किन्तु यहाँ पर बड़ा भोज किसी खाने को लेकर नहीं बल्कि व्यक्ति वर्ग की अस्मिता से जुड़ा है। इस नाटक में मन्नू भंडारी ने राजनीति के सिर्फ एक रूप को ही नहीं दर्शाया है, अपितु अपने प्रयासों के माध्यम से उन्होंने ऐसी चीजों को भी उजागर किया है जो सहज नहीं है।

Scroll to Top