भारत दुर्दशा नाटक नाटक
नाटककार: भारतेंदु हरिश्चंद्र
प्रकाशन: 1880ई o
प्रकार: एक नाट्यरासक
शैली: प्रतीकात्मक व्यंग्यात्मक
कुल अंक: 6
विशेषता: यह नाटक भारत की तत्कालीन यथार्थ दशा से परिचित कराता है
विषय: हिंदी का पहला राजनैतिक नाटक के पात्र
नाटक के पात्र
भारत दुर्दैव : देश के विनाश का मूल आधार, किस्तानी आधा मुसलमानी वेशधारी
भारत: फटे वस्त्र लपेटे हुए में
निर्लज्जता: खुले अंगवाली में
आशा: लड़की के वेश में
सत्यानाश फौजदार
रोग
आलस्य
मदिरा
अंधकार
सभापति: चक्कर दार टोपी पहने चश्मा लगाए छड़ी लिए
बंगाली
महाराष्ट्र
एडिटर: अखबार हाथ में लिए
कवि
पंडित देसी महाशय
देसी महाशय
डिस्लॉयल्टी
भारत भाग्य
नाटक का विषय तत्कालीन भारत की दुर्दशा को दिखाना एवं दुर्दशा के कारणों को कम कर दो दिशा करने वाले करने वालों का यथार्थ चित्रण उपस्थित करना।नाटक का विषय असहनीय अंग्रेजी व्यवस्था का चित्र भारत की सभ्यता का चित्रण देश की दुर्दशा का चित्र
नाटक का सारांश
प्रथम अंक में योगी का लावणी गाने द्वारा भारत के प्राचीन गौरव पारस्परिक फूट और कला के पल्स रूपों के भारत आगमन और भारत में अंग्रेजी राज्य की स्थापना और आर्थिक शोषण तथा दूर व्यवस्था का वर्णन है
दूसरे अंक में दिन भारत बिलख बिलख कर अपनी दुर्दशा का वर्णन कर मूर्छित होता है उसी अवस्था में निकला जाता और आशा उसे उठाकर ले जाती हैं
तीसरे अंक में महादेव सत्यानाश फूट ,संतोष ,लोग-उपेक्षा, स्वार्थपरता, दुर्भिक्ष ,अतिवृष्टि ,अनावृष्टि आदि की सहायता से भारत के धन बल और विद्या तीनों को नष्ट करता है।
चौथी अंक में पूर्व रोग आलस्य मदिरा अनकार आदि की सहायता से भारत की सही-सही दशा को भी नष्ट करने की योजना बनाता है
पांचवी अंक में 7 शब्दों की एक कमेटी बहादुर देव से भारत की रक्षा के उपायों पर विचार करती है उसी समय डिस्लॉयल्टी प्रवेश कर सब को गिरफ्तार कर ले जाती हैं
छठे अंक में भारत-भाग्य मूर्छित भारत को जगाने का प्रयत्न करता है उसे प्राचीन गौरव की समिति दिलाता है अंग्रेजी राज्य में उन्नति की संभावनाओं पर प्रकाश डालता है अब उधर से भी उसकी आशा नष्ट हो जाती है तो अंत में निराश होकर सीने में कटार मार लेता है
भारत दुर्दशा का रचना शिल्प
भारत दुर्दशा के रचना शिल्प कि यह सर्वोपरि विशेषता है कि यह राष्ट्रीय चेतना की अभिव्यक्ति की दृष्टि से जितना महत्वपूर्ण है , उतना ही भाषा के प्रयोग की दृष्टि से निर्विवाद चुकी है। भारतेंदु हरिश्चंद्र भाषा के प्रति एक सजग प्रहरी थे , इसलिए उनके इस नाटक में भी उनकी सजगता पात्रों की भाषा , उनके संस्कार , प्रवृतियां एवं मूल्य चेतना जैसे अनेक स्तरों पर दिखाई देती है। भारत दुर्दशा का गद्य खड़ी बोली में है तो पद्य प्रायः ब्रज भाषा में प्रयुक्त हुआ है। जैसे ब्रज भाषा में –
” रोबहुँ सब मिलके आबहू भारत भाई !
हा – हा भारत दुर्दशा ना देखी जाई। ।”
इस नाटक के भाषा की यह विशेषता भी स्पष्ट है कि भारतेंदु हरिश्चंद्र ने इसमें पद्य रचनाओं को भी खड़ी बोली का आवरण प्रदान किया है –
” कोड़ी – कोड़ी को करूँ मैं सबको मोहताज ,
भूख प्राण निकालूं इनका तो मैं सभ्य राज। ।”
शब्द भंडार की दृष्टि से भी यह नाटक अत्यंत समृद्धशाली है एवं लोक निकट है। इसमें तत्सम -तद्भव तथा देशज – विदेशज में से केवल किसी एक के प्रति आग्रह शीलता नहीं है। फारसी नाटकों की तरह नाही इसमें फारसी शब्दों की भरमार है और ना ही पारंपरिक रंगमंच की तरह संस्कृत निष्ठ है यह पराया ब्रज भाषा में है। नाटक की भाषा मानवता का परिचायक है तो खलनायकों की भाषा में उदंडता का भाव लक्षित होता है। ग़ज़ल उर्दू मैं है जिसमें अरबी फारसी शब्दों का भी व्यवहार हुआ है उदाहरण के लिए
ब्रज भाषा – ” सबके पहिले जेही ईश्वर धन-बल दीन्हो। “
अरबी फारसी – काका , का का सिजदा , रोजग , नयामत।