इसके रचनाकार “कुशलराय” हैं| ग्याहरवीं सदी में रचित यह ग्रन्थ मूलतः दोहों में लिखा गया है| कछवाहा वंश के राजा नल के पुत्र ढोला और पूगल के राजा पिंगल की रूपवती कन्या मारू (मारवाड़ी) की प्रेमकथा है |यह पश्चिमी राजस्थान की अति लोकप्रिय काव्य कृति है | इस राजस्थानी लोककथा में ढोला और मारवाड़ी को याद किया जाता है |यह एक विरह काव्य है जिसकी कहानी इस प्रकार है-
बचपन में ढोला का विवाह मारवाड़ी से हो जाता है | युवा होने पर जब मारवाड़ी ढोला के बारे में जानती है तो उसके विरह में व्याकुल हो जाती है |वह उसका पता करवाने कई संदेशवाहकों को भेजती है लेकिन सभी संदेशवाहकों को मारवाड़ी को सौत मालवणी मरवा देती है |अंत में मारवाड़ी ढाढ़ी की सहायता से ढोला तक पहुँच जाती है और अंत में दोनों का मिलन हो जाता है |
विशेषताएँ-
- इसमें बारहमासा के स्थान पर पावस ऋतू का वर्णन किया गया है |
- इसमें मारवाड़ का वास्तविक जीवन प्रतिबिंबित होता है |
- इसमें राजस्थानी जनजीवन, प्रकृति, समाज, वातावरण, लोकाचार का सजीव वर्णन मिलता है |
- शैली की दृष्टि से यह एक लोकगीत की श्रेणी में आता है |