आधुनिक काल के पाश्चात्य समीक्षकों में टी. एस. ईलियट (1888-1965 ई. ) का नाम अत्यन्त महत्वपूर्ण है। उनका जन्म सेन्ट लुई (अमेरिका) में हुआ, किन्तु शिक्षा पेरिस और लन्दन में हुई। बाद में वे लन्दन में बस गए। वे बीसवीं शती के महान कवियों में गिने जाते है।
न्हें 1948 ई. में साहित्य का नोबल पुरस्कार भी प्राप्त हुआ। ईलियट की सर्वाधिक प्रसिद्ध रचना ’Tradition and Individual Talent’ है जिसमें साहित्य की आधारभूत एवं मौलिक समस्याओं पर प्रभावी ढ़ंग से विचार किया गया है। ईलियट के व्याख्यानों, निबन्धों एवं लेखों में उनके समीक्षा सम्बन्धी विचार बिखरे पङे है। जिनका संकलन निम्न नामों से किया गया है-
- The Sacred World (1920)
- Selected Essays (1917-32)
- The use of poetry and use of criticism (1940)
- Poetry and Drama (1957)
- The Thesis of poetry (1953)
- On poetry and poet (1957)
समीक्षा के क्षेत्र में ईलियट के विचारों ने एक क्रान्ति उत्पन्न कर दी उसके विचारों ने पाश्चात्य समीक्षा को झकझोर दिया। उनके विचार विवादास्पद भी रहे है। ईलियट ने स्वयं को ’क्लासिकवादी’ कहा है। महान कवि के लिए क्लासिक होना अनिवार्य नहीं हैं। महान कवि केवल एक विधा (Form) की पराकाष्ठा तक पहुंच पाता है जबकि क्लासिक कवि एक विधा को ही नहीं अपितु अपने समय की भाषा को पराकाष्ठा तक पहुँचा देता है। ’क्लासिक’ के लिए व्यापक एवं विश्वजनीन होना भी आवश्यक है तथा उसके लिए किसी भी प्रकार की सकीर्णता अग्राह्य है।
टी. एस. ईलियट के काव्य सिद्धान्त
ईलियट ने समीक्षा के क्षेत्र में अनेक सिद्धान्तों पर अपने विचार व्यक्त किए है। यहां हम उसके द्वारा अभिव्यक्त समीक्षा के तीन पक्षों पर प्रकाश डालेंगे-
1. निर्वैयक्तिकता का सिद्धान्त
2. वस्तुनिष्ठ सहसम्बन्ध (समीकरण) का सिद्धान्त
3. परम्परा की अवधारण (सिद्धान्त)
1. निर्वैयक्तिकता का सिद्धान्त
- निर्वैयक्तिकता का अर्थ है- ’कवि के व्यक्तिगत भावों की विशिष्टतार का सामान्यीकरण।
- इस सिद्धान्त की प्रमुख बातें निम्न बिन्दुओं में व्यक्त की जा सकती हैं-
ईलियट ’एजरा पाउण्ड’ से विशेष प्रभावित थे। एजरा पाउण्ड की मान्यता थी कि कवि वैज्ञानिक के समान ही निर्वैयक्तिक (impersonal) और वस्तुनिष्ठ (objective) होता है। उसका कार्य आत्मनिरपेक्ष होता है। ईलियट अनेकता को एकता में बांधने के लिए परम्परा को आवश्यक मानते थे, जो वैयक्तिकता की विरोधी है। साहित्य के जीवन्त विकास के लिए वह परम्परा का योग स्वीकार करते है जिससे आत्मनिष्ठ तत्व नियन्त्रित होकर वस्तुनिष्ठ तत्व प्रमुख हो जाता है। - ईलियट ने वस्तुनिष्ठ साहित्य को महत्व दिया तथा कला को निर्वैयक्तिक घोषित किया। इनका प्रारम्भिक विचार था कि कविता उत्पन्न नहीं की जाती अपितु उत्पन्न हो जाती है, किन्तु बाद में उन्होंने अपने इस विचार को बदलते हुए कहा, ’’मैं उस समय अपनी बात ठीक ढंग से व्यक्त न कर सका था।’’
निर्वैयक्तिकता के प्रकार
” निर्वैयक्तिकता के दो रूप होते है- एक वह जो ’कुशल शिल्पी मात्र’ के लिए होती है और दूसरी वह जो प्रौढ़ कलाकार के द्वारा अधिकाधिक उपलब्ध की जाती है। दूसरे प्रकार निर्वैयक्तिकता उस प्रौढ़ कवि की होती है जो अपने उत्कट और व्यक्तिगत अनुभवों के माध्यम से सामान्य सत्य को व्यक्त करने में समर्थ होता है।’’कवि अपनी तीव्र संवेदना एवं ग्रहण क्षमता से अन्य लोगों की अनुभूतियों को इस प्रकार ग्रहण करता है कि वे अनुभूतियां उसकी निजी अनुभूतियां प्रतीत होती है। इन अनुभूतियों को वह इस प्रकार व्यक्त करता है कि वह मत सभी का ग्राह्य हो जाता है। भारतीय काव्यशास्त्र में इसी को ’साधारणकीरण’ सिद्धान्त भी व्यक्त करता है।
इन्होंने दो प्रकार निर्वैयक्तिकता स्वीकार की है- प्राकृतिक और विशिष्ट। प्राकृतिक निर्वैयक्तिकता प्रमुख शिल्पी या कलाकार से सम्बद्ध होती है, जबकि विशिष्ट निर्वैयक्तिकता प्रौढ़ कलाकारों द्वारा उपलब्ध की जाती है।इन्होंने ’कविता के तीन स्वर’ नामक भाषण में काव्य के तीन स्वर माने है। प्रथम स्वर वह है जिसमें कवि स्वयं से बात करता है, द्वितीय स्वर वह है जिसमें श्रोताओं से बात करता है और तृतीय स्वर वह है जिसमें वह स्वयं न बोलकर अपने पात्रों के माध्यम से बोलता है। प्रथम प्रकार के स्वर में कवि का लक्ष्य अपने भार से छुटकारा पाना है, क्योंकि बिना कहे वह रह नहीं सकता।दूसरे स्वर में कविता किसी सामाजिक उद्देश्य के लिए लिखी जाती है। मनोरंजक, उपदेशात्मक, व्यंग्यपरक साहित्य इसी कोटि में आता है। तीसरे स्वर के अन्तर्गत नाटक आते है। प्रथम स्वर वाली कविताएं कवि की अचेतावस्था से उद्भूत होती है, जबकि दूसरे और तीसरे स्वर वाली कविताओं में वह पूर्ण सजग व्यक्तित्व से कृति का निर्माण करता है।
2. वस्तुनिष्ठ सहसम्बन्ध (समीकरण) का सिद्धान्त
भाव सम्प्रेषण के लिए वस्तुनिष्ठ सह-सम्बन्ध (Objective Co-relation) आवश्यक है।सरल शब्दों में यदि कहें तो ईलियट के इस वस्तुनिष्ठ समीकरण को विभाव विधान कहा जा सकता है। विभावों का चयन इस रूप में किया जाए कि सहृदय सामाजिक के चित्त में नाटककार के मानस-भाव जाग्रत हो जाए।अमूर्त भावों, संवेगों , विचारो एवं अनुभूतियों के सम्प्रेषण हेतु कवि को ऐसी वस्तुस्थिति एवं घटना का विन्यास करना चाहिए जिससे उसके भाव वस्तुओं में पर्यवसित होकर पाठक या श्रोता के हृदय में उसी भाव को जाग्रत कर सके।कवि अपने भावों के मूर्तिकरण के प्रति जितना सजग और सक्षम होगा। सम्प्रेषण में उसे उतनी ही सफलता मिलेगी। कवि अपनी संवेदनाओं और अनुभूतियों की अभिव्यक्ति के लिए मूर्त विधान से काम लेकर अमूर्त को मूर्त कर देता है। परिणामतः इन प्रतीकों से ठीक वहीं भावनाएं श्रोता या पाठक के मन में जाग्रत होती हैं जो कवि के मन में जाग्रत हुई थी। काव्य की सफलता इसी में है कि भावनाओं और उनके मूर्त विधान में पूर्ण सामंजस्य एवं एकरूपता हो।
3. परम्परा की अवधारणा (सिद्धान्त)
परम्परा से ईलियट का तात्पर्य उन सभी स्वाभाविक कार्यों, रीति-रिवाजों, तर्कों से है जो एक स्थान में रहने वाले समुदाय के व्यक्तियों के रक्त सम्बन्ध को व्यक्त करते है।
ये परम्परा का महत्वपूर्ण तत्व इतिहास बोध को स्वीकारते है। परम्परा से उनका अभिप्राय न तो अन्धानुकरण से है और न ही प्राचीन रूढ़ियों के मूक अनुमोदन से है। वे परम्परा से प्राप्त ज्ञान का अर्जन और उसके विकास के पक्षधर है।इनके अनुसार परम्परा प्राचीन काल के साहित्य, धारणाओं का सम्यक् बोध है। यही परम्परा का गत्यात्मक स्वरूप है।इनके अनुसार परम्परा का सम्बन्ध संस्कृति से होता है। संस्कृति में किसी जाति या समुदाय के जीवन, कला, दर्शन, साहित्य आदि के उत्कृष्ट अंश सन्निहित रहते हैं तथा उसमें एक प्रकार की निरन्तरता रहती है। वस्तुतः अतीत के आलोक में ही वर्तमान के स्वरूप का सम्यक् अध्ययन किया जा सकता है। इस प्रकार अतीत ही वर्तमान की दिशा-निर्दिष्ट करता है।इनका मत है कि संस्कृति धर्म से भिन्न है यद्यपि वह धर्म द्वारा नियन्त्रित होती है। संस्कृति के निर्माण में कला और साहित्य का योग वे स्वीकारते है तथा यह भी मानते हैं कि कलाकार को सांस्कृतिक परम्परा का पूर्ण बोध होना चाहिए।इनका परम्परा सिद्धान्त न तो रूढ़िपालन है और न मौलिकता का विरोधी है। रूढ़िपालन से साहित्य का विकास अवरुद्ध हो जाता है।
परम्परा की अवधारणा (सिद्धान्त)
✔️ परम्परा गतिशील चेतना तथा गतिशील सर्जनात्मक सम्भावनाओं की समष्टि है। वह हमें नवीन का मूल्यांकन करने की कसौटी प्रदान करती है तथा प्राचीनता के विकास के साथ-साथ मौलिकता का सृजन करती है।अतीत को वर्तमान में देखना रूढ़िवादिता नहीं मौलिकता है। वर्तमान कला का मूल्यांकन अतीत के परिप्रेक्ष्य में ही सम्भव है।परम्परा का सबसे बङा लाभ यह है कि हमें यह ज्ञात होता है कि मौलिकता लाने के लिए हमें क्या करना चाहिए।कवि और कलाकार को परम्परा की जानकारी होने पर अपने कृतित्व का मूल्यांकन करने में सहायता मिलती है।परम्परावादी होने का अर्थ है कला तथा साहित्य की पूर्ववर्ती धाराओं से अवगत होकर कला एवं साहित्य की रचना करना।परम्परा अतीत को वर्तमान से जोङकर ज्ञान का विस्तार करती है।निर्विवाद रूप से ईलियट के काव्य सिद्धान्तों ने समीक्षा का महान उपकार किया है तथा विचार करने के लिए नए आयाम प्रदान किए है।