संक्षिप्त परिचय

 

नाम जैनेन्द्र कुमार।
जन्म 1905 ई. में।
जन्म स्थान अलीगढ़ का कौड़ियागंज नामक कस्बा।
मृत्यु 24 दिसम्बर, 1988 ई०।
प्रमुख रचनाएँ प्रस्तुत प्रश्न, जड़ की बात, परख, फाँसी, ये और वे,
भाषा मूलतः चिंतन की भाषा।
शैली विचारात्मक, विवरणात्मक, रचनात्मक, भावात्मक, मनोविश्लेषणात्मक।

जीवन परिचय

 जैनेंद्र कुमार का जन्म अलीगढ़ जिले के कौड़ियागंज नामक कस्बे में सन् 1905 ई० में हुआ था। बचपन में ही इनके पिता का देहांत हो गया। इनका पालन-पोषण इनके मामा तथा माता ने किया। इनकी शिक्षा हस्तिनापुर के गुरुकुल में हुई। यही इनका नामकरण भी हुआ था। इनके घर का नाम आनंदीलाल था। सन 1919 ई०में इन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पंजाब से उत्तीर्ण की।

इनकी उच्च शिक्षा काशी विश्वविद्यालय में हुई। सन् 1921 ई० में इन्होंने पढ़ाई छोड़कर कांग्रेस के असहयोग-आंदोलन में भाग लिया। इसके पश्चात माता से प्रेरणा पाकर वे व्यापार करने लगे। व्यापार में लाभ होने पर भी ये उसमें अधिक दिनों तक टिक न सके। फिर पत्रकारिता की ओर झुके, किंतु इन्हें उसी समय जेल जाना पड़ा। जेल में इन्होंने स्वाध्याय से साहित्य-सृजन का कार्य प्रारंभ किया। इनकी पहली कहानी ‘खेल’ विशाल भारत में सन् 1928 ई० में प्रकाशित हुई थी। तभी से ये निरंतर साहित्य- सृजन में संलग्न थे। ‘परख’ उपन्यास पर अकादमी पुरस्कार प्राप्त हो चुका है। सन् 1988 में इनका देहांत हो गया।

व्यक्तित्व

गांधीजी द्वारा देशव्यापी आंदोलन चलाने पर उनसे प्रभावित हुए और सत्य अहिंसा के सिद्धांतों को अपनाकर गांधीवादी विचार धारा के पोषक बने. उनकी कहानियों में दार्शनिकता झलकती हैं, किन्तु श्रद्धा और तर्क दोनों का मिश्रण हुआ हैं. वे गौतम बुद्ध के करुणावाद से भी प्रभावित हुए हैं. क्रांतिकारी रचनाकार होने के कारण धारा से हटकर इन्होने परम्परागत नैतिक मूल्यों व वर्ज नाओं की उपेक्षा की हैं.

अतः कही कही ये गांधी दर्शन के व्यवहारिक पहलू से हटकर नजर आते हैं, तभी तो आचार्य नंददुलारे वाजपेयी ने लिखा है कि रचना के क्षेत्र में जैनेन्द्र न तो गांधीवादी है और न आदर्शवादी. ये एकान्तिक भावुक एवं कल्पना जीवी लेखक हैं, जो वास्तवि-कता के प्रकाश में धूमिल दिखाई देते हैं. जहाँ तक जैनेन्द्र कुमार की दार्शनिक दृष्टि का प्रश्न है, वह व्यक्तिवादी है और उसका विश्लेषण उन्होंने मनोवैज्ञानिक धरातल पर किया हैं.

वस्तुतः जैनेन्द्र ने जो नया दर्शन अपनाया हैं तथा जिसमें अलौकिकता, मनोविज्ञानता और दर्शन आकर मिल गये हैं. उनके सम्बन्ध में स्वयं जैनेन्द्र ने लिखा है मैं किसी ऐसे व्यक्ति को नहीं जानता जो मात्र लौकिक हो, जो सम्पूर्णता से शारीरिक धरातल पर रहता हो, सबके भीतर ह्रदय है जो सपने देखता है. सबके भीतर आत्मा है, जो जगती हैं जिसे शस्त्र छूता नहीं, आग जलाती नही. सबके भीतर वह है जो अलौकिल है मैं वह स्थल नहीं जानता जो अलौकिक न हो.

इनकी पहली कहानी ख़ेल  1928 में विशाल-भारत में छपी थी।इनकी रचनाओं में दार्शनिक रूप स्पष्ट रूप से झलकता है।इनकी रचनाओं में पात्रों  का अंतःमन और बाह्य रूप दिखाई देता है।इनके प्रथम उपन्यास परख के लिए इन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया।इन्होंने अपनी रचनाओं में कला, दर्शन, मनोविज्ञान, समाज, राष्ट्र और मानवता आदि विषयों पर लिखा है।

कृतियां

जैनेंद्र कुमार ने उपन्यास, कहानी, निबंध, संस्मरण आदि हिंदी गद्य की अन्य विधाओं को समृद्ध किया है। इनकी प्रमुख रचनाएं निम्नलिखित हैं –

उपन्यास परख(1929), सुनीता1935, त्याग-पत्र1937, कल्याणी1939,विवर्त1943  सुखदा1943, व्यतीत1953, जयवर्धन1956

कहानी – फासी1929,  वातायन1930, नीलम देश की राजकन्या1933, एक रात1934 दो चिड़िया1935, पाजेब1942जयसंधि1949

निबंध संग्रह – प्रस्तुत प्रश्न1936, जड़ की बात1945, पूर्वोदय1951, साहित्य का श्रेय और प्रेय1953, मंथन1953, सोच-विचार1953, काम, प्रेम और परिवार1953

अनूदित साहित्य – मंदालिनी (नाटक)1935, प्रेम में भगवान (कहानी-संग्रह)1937, पाप और प्रकाश (नाटक)1953, ।

संस्मरण- ये और वे 1954।

सहलेखन– तपोभूमि (उपन्यास, ऋषभचरण जैन के साथ 1932)

इसके अतिरिक्त इन्होंने कुछ ग्रंथों का संपादन भी किया है।

पुरस्कार और सम्मान 

पद्म भूषण (1971)

साहित्य अकादमी (1979)

भाषा शैली

जैनेंद्र के निबंधों की भाषा मूलतः चिंतन की भाषा है । ये सोचा हुआ न लिखकर सोचते हुए लिखते हैं । इसीलिए इनके विचारों में कहीं कहीं उलझाव आ जाता है । इनकी विचारात्मक शैली में प्रश्न, उत्तर, तर्क, युक्ति, दृष्टांत आदि तत्वों का समावेश उसे गूढ़ता प्रदान करता है ।

शब्द-चयन में जैनेंद्र का दृष्टिकोण उदार है । ये सही बात को सही ढंग से उपयुक्त शब्दावली में कहना चाहते हैं । इनके लिए इन्हें चाहे अंग्रेजी के अंग्रेजी से शब्द लेना पड़े, चाहे उर्दू से, चाहे संस्कृत से तत्सम शब्दों का चयन करना पड़े, चाहे ठेठ घरेलू जीवन के शब्दों को ग्रहण करना हो,

इन्हें इसमें कोई संकोच नहीं होता । वस्तुतः जैनेंद्र की शैली इनके व्यक्तित्व का ही प्रतिरूप है । हिंदी साहित्य के विद्वानों के समक्ष ‘जैनेंद्र ऐसी उलझन है’ जो पहले से ही अधिक गूढ़ है |’ इनके व्यक्तित्व का यह सुलझा हुआ उलझावन इनकी शैली में भी लक्षित होता है।

अपने विचारों को व्यक्त करने के लिए इन्होंने विचारात्मक, विवरणात्मक, रचनात्मक, भावात्मक, मनोविश्लेषणात्मक, आदि शैलियों का प्रयोग किया है ।

भाषा शैली की विशेषताएँ 

भाषागत विशेषताएं – जैनेंद्र जी की भाषा में ओज है, प्रवाह है और चमत्कार है। इनकी भाषा में अंग्रेजीपन बहुत अधिक मात्रा में है। कहीं-कहीं तो ऐसा लगने लगता है जैसे पहले अंग्रेजी के वाक्य बनाकर फिर अंग्रेजी शब्दों के स्थान पर हिंदी के पर्यायवाची शब्द रख दिए गए हैं। जैनेंद्र जी के निबंधों की भाषा मूलतः चिंतन की भाषा है। वे सोचा हुआ न लिखकर सोचते हुए लिखते हैं। इस कारण विचारों में कहीं-कहीं उलझन सी आ जाती है।

शैलीगत विशेषताएं – जैनेंद्र जी की शैली अनेक रूपधारिणी है। प्रायः प्रत्येक रचना में उसका नया रूप है। इन्होंने सामान्यरूप से अपने कथा साहित्य में व्याख्यात्मक और विवरणात्मक शैली का प्रयोग किया है।

विचारात्मक शैली – यहां विचारों की प्रधानता है, विचारात्मक शैली का प्रयोग हुआ है। इनके निबंधों में विचारात्मक शैली अपनायी गयी है, जिसमें प्रश्न, उत्तर, तर्क-व्यक्ति, दृष्टांत तथा व्यंग आदि अनेक रूपों का प्रयोग किया गया है।

व्यवहारिक शैली – इस शैली का प्रयोग कथा-साहित्य एवं उपन्यास-लेखन में किया गया है। इसकी भाषा पूर्णतया व्यवहारिक सरस और सरल है।

व्यंग्यात्मक शैली – इन्होंने कथा- साहित्य व्यंग-प्रधान शैली का अच्छा उदाहरण दिया है, जहां इन्होंने हास्य-व्यंग शैली का मुक्त भाव से प्रयोग किया है।

जैनेन्द्र की कहानी कला

मनोवैज्ञानिक कहानीकार जैनेन्द्र कहानी के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं. वे कहानी को मानव मन में उथल पुथल मचाने वाली समस्याओं की दिशा में समाधान का एक प्रयत्न मानते हैं. इस सन्दर्भ में उनका एक कथन दृष्टव्य है कहानी तो भूख है जो निरंतर समाधान पाने की कोशिश करती हैं. हमारे अपने सवाल होते हैं, शंकाएं होती है और हम ही उनका उत्तर समाधान खोजने का निरंतर प्रयास करते रहते हैं, हमारे प्रयोग होते रहते हैं.

उदाहरणों एवं मिसालों की खोज होती रहती है, कहानी उस खोज के प्रयत्नों का एक उदाहरण हैं. वह एक निश्चित उत्तर ही नहीं देती, पर यह अलबत्ता कहती है कि उसे रास्ते मिले. वह सूचक होती है, कुछ सूझा देती है और पाठक अपनी चिंतन प्रक्रिया से उस सूझ को ले लेते हैं. इस कथन से स्पष्ट है कि जैनेन्द्र मानवतावादी एवं जीवनवादी कहानीकार हैं.

वे अपने आस पास के जनजीवन से ही कहानी की वस्तु संकलित करते हैं. उन्होंने ऐतिहासिक, पौराणिक घटनाओं एवं पात्रों को लेकर भी कहानियाँ लिखी है, परन्तु उनकी संवेदना धरातल सदैव लौकिक ही रहा हैं. पात्रों एवं घटना के चयन में उनकी दृष्टि सदैव जीवन जगत से सम्बद्ध रही हैं. उनकी कहानी कला की विशेषताएं निम्न हैं.

मनोवैज्ञानिकता

कहानी का शिल्प मनोविज्ञान से सम्बद्ध है. पूर्ववर्ती व अन्य समकालीन कथाकारों में भी मनोवैज्ञानिक विश्लेषण का गुण मिलता हैं. किन्तु वहां स्थूल रूप ही दिखाई देता हैं. जैनेन्द्र की दृष्टि सूक्षम मनोविश्लेषण पर अधिक रही हैं.

जैनेन्द्र ने अंतर में होने वाले मंथन, पीड़ा और उसकी घुमड़न के अज्ञात कारणों का पता लगाया है और एक सह्रदय मनोवैज्ञानिक कहानीकार के रूप में उनका चित्रण कर हिंदी कहानी को नूतन दिशा एवं दृष्टि प्रदान की हैं. जैनेन्द्र की कहानियों का कथानक अल्प ही रहा है, पर उसमें मानवमन के रहस्यों का उद्घाटन एवं आंतरिक विश्लेषण का आग्रह ही प्रमुख रहा हैं.

उनकी कहानियों में भूमिका तथा उपसंहार हेतु अवकाश नहीं रहा है और न ही प्रासंगिक कथाओं के लिए कोई स्थान है. कहानी को एक्य एवं प्रवाहमय रखने के विषय में  वे कहते हैं. मैं समझता हूँ कि कहानी को एक्य प्रदान करने वाला, संघटित करने वाला जो भाव है, उस पर उसका ध्यान केन्द्रित रहे.

यदि ऐसा हो तो कहानी से सब अवयव दुरुस्त रहेंगे और सारी कहानी में एक्य तथा प्रवाह बना रहेगा. जिसे चरम उत्कर्ष कहते हैं. उसकी ओर कहानी बही जा रही है, यह बात स्वयं ही आ जायेगी.

दार्शनिकता

जैनेन्द्र की कहानियों का दूसरा सशक्त पहलू है दार्शनिकता. अधुना कहानी में जहाँ यथार्थवादी दृष्टिकोण अधिक रहा हैं, वहां जैनेन्द्र ने मानव की अलौकिक आत्मा को विषय का आधार बनाया हैं. जिसमें ईश्वर का निवास है, आत्मा में अंतर्लीन उस अनंत की सहज प्रेरणा से उनकी कहानियों में विद्यमान दार्शनिकता ने कहानी जगत में जिस मौलिकता एवं क्रांति को जन्म दिया हैं, वह आलोचकों को रास नहीं आया हैं.

उनकी दार्शनिकता पौराणिक कहानियों में अधिक झलकती हैं. उसमें कल्पना के साथ धर्म, नीति एवं विविध मानव आदर्शों की प्रतिष्ठा की गई हैं. ये कहानियाँ भारतीय संस्कृति के उज्ज्वल पक्षों को उद्घाटित करती हैं. इससे उनकी गम्भीर चिंतन शैली व्यक्त हुई हैं.

जैनेन्द्र की कहानियों का शिल्प भी मौलिक है, भाव भाषा अद्वितीय है. जैसे जाह्नवी कहानी का कथानक अन्त र्मन्थन भी टिका हैं. जाह्नवी अपनी प्रेम पीड़ा को दो नैना मत खाइयों पिय मिलन की आस में व्यक्त करती हैं. इस तरह उनकी कहानी कला उत्कृष्ट एवं अनुकरणीय हैं.

जैनेन्द्र कुमार की मृत्यु 

गांधी के विचारों से बेहद प्रभावित रहे जैनेन्द्र कुमार जी ने अपनी जीवन शैली अहिंसावादी बनाई. दर्शन में इनकी रूचि तथा ज्ञान कई रचनाओं में देखने को मिलता हैं. लम्बे समय तक इन्होने दिल्ली में रहते हुए साहित्य लेखन किया और 24 दिसम्बर, 1988 ई. को इनका देहावसान हो गया.

Scroll to Top