यह कहानी 1932 में हंस पत्रिका में प्रकाशित हुई थी | यह पारिवारिक पृष्ठभूमि और दाम्पत्य संबंधों पर आधारित है |वस्तुतः कहानी एक अत्यंत सीधे-सरल पति की पत्नी की शिकायतों का पिटारा है, जो उसे अपने पति से हैं|कहानी की नायिका “मैं” अपने पति के सीधेपन से बहुत परेशान है | इसके बाद भी पत्नी उससे प्रगाढ़ प्रेम करती है| उससे पलभर का वियोग भी असह्य है| वह स्वयं नहीं जानती कि वह अपने बुद्धू पति के किस गुण पर मुग्ध है| कहानी में लेखक ने दाम्पत्य जीवन की समरसता को दर्शाया है| कहानी का नायक पति है| यद्यपि वह कोई काम ढंग से नहीं करता है | हर समय पति की आलोचना का शिकार बनता है| लेकिन वह रुढियों तथा परपराओं को तोड़ने के लिए अडिग हो जाता है|बेटी के विवाह में व्रत आदि को ढकोंसला बताता हुआ भोजन इत्यादि करता है|
कहानी सहज, सरल, प्रवाहमयी भाषा में लिखी हुई हैजिसमें तत्सम, तद्भव, देशज, विदेशज शब्दों के प्रयोग ने रोचकता में वृद्धि की है| शैली वर्णात्मक, आत्मकथात्मक, व्यंग्यात्मक और विचारात्मक है जो कथ्य को गतिशीलता प्रदान करती है |
कहानी का उद्देश्य गृहस्थ जीवन में प्रेम, साहचर्य, एकता और निर्वहन का भाव बनाए रखना है| इनके आभाव में सम्बन्ध बिखर जाते हैं| कहानी में छोटी-छोटी घटनाओं प्रसंगों द्वारा पति के सीधेपन, दब्बूपन, बुद्धूपन, सरलता, दयालुता आदि गुणों-अवगुणों को दर्शाया गया है|