भाषा के रूप में अवधी का पहला स्पष्ट उल्लेख अमीर खुसरो की रचना खालिकबारी में मिलता है। रोडा कृत ‘राउलबेल’ व दामोदर पंडित कृत ‘उक्ति-व्यक्ति प्रकरण’ में अवधी के प्रयोग से स्पष्ट होता है कि अवधी एक भाषा के रूप में 13वीं सदी में स्थापित हो चुकी थी।
मूल प्रश्न है कि अवधी के मध्यकाल में एक काव्य-भाषा के रूप में स्थापित होने के पीछे कौन से उत्तरदायी कारक थे, और इसका स्वरूप कैसा था? अवधी की स्थापना के संबंध में पहला सुयोग यह हुआ कि सूफी कवियों ने अपने प्रेमाख्यानों की रचना में इसका प्रयोग किया। मुल्ला दाऊद की ‘चन्दायन’ (लोरकहा) ने एक ही झटके में अवधी को लोकभाषा के स्तर से उठाकर काव्यभाषा के रूप में स्थापित कर दिया। इसी परंपरा में कुतुबन की ‘मृगावती’ और जायसी की ‘पद्मावत’ है।

चन्दायन: शृंगार रस से ओट-प्रोत रचना है जिसमें इसके दोनों पक्षों संयोग-वियोग के मनोरम चित्रण में कवि को पूरी सफलता मिली है।नायिका के नख-शिख वर्णन में कवि ने नए-2 उपमानों के साथ ही पारंपरिक उपमानों का भी उपयोग किया है।वियोग के लिए बारहमासा पद्धति का प्रयोग किया गया है।

मृगावती: चन्दायन की परम्परा में मृगावती की रचना सन् 1503 में हुई । ठेठ अवधी भाषा में रचित इस रचना में  कथ्य और काव्यरूप भी ‘चन्दायन’ जैसा है। इसके रचनाकार कुतुबन दाउद की अपेक्षा अपभ्रंश काव्य परम्परा से कुछ अधिक  प्रभावित दिखाई देते हैं ।अरबी-फारसी के शब्दों  का प्रयोग भी बहुत कम है। इसकी भाषा की प्रमुख विशेषता है ठेठ अवधि का माधुर्य।

कुतुबन: जौनपुर के बादशाह के आश्रित कवि कुतुबन चिश्ती वंश के शेख बुरहान के शिष्य थे। इन्होंने ९०९ हिज़री (सन १४९५-९६) में मृगावती की रचना की जो कि इस काव्य परंपरा का पहला प्रसिद्ध काव्य है। इस में उन्होंने चंद्रनगर नामक राज्य के राजकुमार और कंचनपुर की राजकुमारी मृगावती की प्रेम-कहानी का वर्णन किया है। कहानी के बीच में स्थान-स्थान पर भावात्मक रहस्यवाद की ओर बड़े सुंदर संकेत हैं। रचना की भाषा पूर्वी हिंदी या अवधी है और पूरी रचना में पाँच चौपाइयों के बाद एक दोहे की पद्धति का अनुसरण किया गया है।
मंझन: इनके जीवन के विषय में कुछ ज्ञात नहीं है। रचना के रूप में भी मधुमालती नामक काव्य की एक खंडित प्रति ही प्राप्त हुई है। परंतु यह खंडित प्रति भी इनके रचना-कौशल को पूर्ण रूप से प्रकट करने में समर्थ है। मधुमालती का काव्य सौष्ठव मृगावती की तुलना में श्रेष्ठ और अधिक भावपूर्ण है। कथानक भी अधिक विस्तृत और पेचीदा है। नायक-नायिका के साथ-साथ इसमें कवि ने उपनायक और उपनायिका का भी विधान किया है और उनके माध्यम से निस्वार्थ प्रेम व बंधुत्व का चित्र प्रस्तुत किया है। पशु-पक्षियों में भी प्रेम की पीर दिखाकर मंझन इस में प्रेम की व्यापकता और सा मर्थ्य को प्रस्तुत करने में सफल रहे हैं।
काव्य की भाषा और शैली लगभग मृगावती की ही तरह पर उससे अधिक हृदयग्राही है। विरह और प्रेम की पीर के वर्णन के माध्यम से उस परोक्ष के विरह की ओर संकेत का एक सुंदर उदाहरण दृष्टव्य है:

बिरह अवधि अवगाह अपारा। कोटि माँहि एक परै त पारा॥
बिरह कि जगत अँविरथा जाही। बिरह रूप यह सृष्टि सबाही॥
नैन बिरह अंजन जिन सारा। बिरह रूप दरपन संसारा॥
कोटि माँहि बिरला जग कोई। जाहि सरीर बिरह दुख होई॥

रतन कि सागर सागरहिं, गजमोती गज कोइ।
चंदन कि बन-बन ऊपजै, बिरह कि तन-तन होइ?

सूफी कवियों की अवधी में लोकभाषा की मिठास है, लोकजीवन के शब्दों का सुंदर प्रयोग किया गया है। इसके अतिरिक्त बिंब योजना व अप्रस्तुत योजना ने इस भाषा को चरम स्तर तक पहुँचा दिया।
इसी प्रकार, मध्यकाल में अवधी के विकास हेतु एक और सुयोग हुआ। भक्तिकाल की रामभक्ति काव्यधारा वस्तुतः अवधी में ही पुष्पित-पल्लवित हुई। तुलसी की कृतियों में अवधी ने नए आयामों को छुआ। तुलसी आदि की अवधी सूफियों की अवधी से अलग है। यहाँ तत्सम शब्दों का प्रचुर प्रयोग किया गया है। तुलसी के हाथों में पड़कर यह भाषा नाद सौंदर्य व आलंकारिता से युक्त हुई। शुक्ल ने तुलसी को अनुप्रास का बादशाह इसी संदर्भ में कहा।
तुलसी के बाद विशाल रामकाव्य परंपरा काव्यभाषा के स्तर पर धीरे-धीरे अवधी से दूर होकर ब्रजभाषा के साथ जुड़ने लगी।

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