आदिकाल (1050-1375)(महारोज भोज से लेकर हम्मीर देव से पीछे तक)
इस काल के विभिन्न नाम
- चरण काल- गिर्यसन
- प्रारम्भिक काल- मिश्र बंधु
- वीर गाथा काल- आचार्य शुक्ल (12 ग्रंथों (विजयपाल रासो,खुम्माण रासो ,कीर्तिलता आदि) आधार पर)
- आदिकाल- आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी (इस मत को व्यापक स्वीकृति
आचार्य शुक्ल हिंदी का आरम्भ तो सिद्धों की रचनाओं से स्वीकार करते हैं | परन्तु वे वास्तविक हिंदी का प्रारम्भ 993 ई० से मानते हैं| लेकिन शिक्ल ने नाथ तथा जैन साहित्य की उपेक्षा की है |नाथों-जोगियों और सिद्धों के साहित्य की भाषा का ढांचा साधुक्कड़ी या कुछ खडी बोली लिए राजस्थानी था | जनता की भाषा में साहित्य, पंडित परम्परा को चुनौती देता है |
भाषा को विशिष्ट बनाने वाली मूलतः तीन प्रवृत्तियां हैं-1. क्षतिपूरक दीर्घीकरण 2. परसर्गों की बहुलता 3. तत्सम शब्दों का प्रचलन
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपभ्रंश को एक स्वतंत्र भाषा स्वीकार किया है |अपरोक्ष रूप से सातवीं सदी को आरम्भ अवश्य मानते हैं | परन्तु वे वास्तविक हिंदी की शुरुआत भक्तिकाल से मानते हैं | वे दसवीं से चौदहवीं सदी तक को आदिकाल मानते हैं | इसे वे अपभ्रंश के आगे का काल मानते हैं | इसी अपभ्रंश के पूर्वरूप को पुरानी हिंदी कहते हैं | राहुल सांकृत्यायन ने उत्तर अपभ्रंश की रचनाओं को हिंदी की रचना मानते हैं | सरहपा या पुष्य में से कौन पहले कवि कौन है ? यही अभी भी विवाद का विषय है |
डिंगल- पिंगल भाषा का प्रयोग (डिंगल-चारण कवियों ने रासो ग्रंथों में जिस अपभ्रंश ओर राजस्थानी मिश्रित भाषा का प्रयोग किया है , इसी प्रकार अपभ्रंश ओर ब्रजभाषा के मेल से बनी भाषा को पिंगल कहा जाता है ।
विविध छंदों का प्रयोग – पृथ्वीराज रासो को “ “छंदों का अजायबघर” कहा जाता है ।
प्रथम कवि
राहुल सांकृत्यायन- सरहपाद (सातवीं सदी, चौरासी सिद्धों में से एक
शिवसिंह सेंगर-पुष्य या पुण्ड (सातवीं सदी)
डा० गणपति चंद्रगुप्त- शालिभद्र सूरि
हिंदी की प्रथम रचना
प्रथम कवि सरहपाद की कोई रचना उपलब्ध नहीं है । उसके बाद जैन आचार्य देवसेन कृत “श्रवकाचार” का नाम किया जा सकता है । इसमें 250 दोहों में श्रावक धर्म का वर्णन । इसकी रचना 933 ई० में दोहा छंद में हुई ।
आदिकालीन साहित्य
लौकिक साहित्य