आज का जो दौर है लोग बिक रहे हर और हैं
कहीं चीखें कहीं किलकारियां कहीं वाहनों का शोर है
हर किसी को सिर्फ अपने स्वार्थ की प्रतिपूर्ति की अपेक्षा है
निस्वार्थियों को टोलियाँ जा रहीं किस और हैं
कहीं आते जीवन की सुबह कहीं मौत के अँधेरे का छोर है
कहीं जात पात कहीं आमिर गरीब कहीं जिन्दा जलती लाशों का धुँआं
मानवता के विकास के पतंग की विकास से विनाश की और खींचती जाती डोर है
इस अत्याचार अन्याय निर्दयता की घनी अँधेरी रात के बाद
प्रेम त्याग करुना सद्भाव एकता और विश्वास की आने वाली भोर है
चाँद सिक्के या कुछ तुच्छ चीजें बहुत हैं आज किसी का ईमान खरीदने के लिए किसी का
बिक रही हैं सरे आम अन्तरात्माए, पड़ रही खुद पर नियंत्रण की डोरी कमजोर है
तर्क वितर्क कुतर्क व अंधविश्वास के अंतर को समझ पाने में हो रहे असमर्थ तथाकथित महानुभाव
हर संसारी इच्छाग्रस्त है पर इन पाखंडियों को दाड़ी में दिखता नहीं इनको चोर है
क्यों समाज का सुशिक्षित सभ्य आदर्श वर्ग आज मौन है देख अत्याचारों की पराकाष्टा को देखकर
क्यों सहानुभूति प्रेम त्याग संघर्ष संयम शील के सिद्धांत के गुणों की अपेक्षा जीतते धोखेबाज मक्कार व मुंहजोर हैं
कहे कुमार दुनिया को जन्नत बनाकर प्रकृति ने सजाया संवारा सहेजा पूरी सिद्दत से
इंसान अपने अहम और श्रेष्टता में कर इस जन्नत की उपेक्षा चला अपने अंतिम छोर है
बिगड़ा नहीं है अभी भी ज्यादा कुछ मनुष्य की प्रकृति के समक्ष समर्पण करने की मात्र देर है
विकास उत्थान बहुत जरुरी है जीवन में ये माना
पर मानब का हर बुराई को विकास से जोड़ने पर ही जोर् है
चलो बसाएं एक बेगमपुर शहर हर और
फिर देखना कितनी उंचाई पर उडती इस जीवन की डोर है
पा जाएगें हर मंजिल सभी गर सहमती बन जाए शांति के सिद्धांत पर
क्योंकि इन दुखों के समुद्र के आगे ही तो सुखों के सोंदर्य तट का विस्तृत छोर है…..
द्वारा- सुखविन्द्र