रासो परम्परा के आरम्भिक ग्रंथों में ख़ुमान रासो का नाम सर्वोपरि है।इसका सर्वप्रथम उल्लेख शिव सिंह सेंगर की कृति “शिव सिंह सरोज” में मिलता है । इसके रचयिता दलपति विजय हैं। रामचंद्र शुक्ल इसे नवीं सदी की रचना मानते हैं ।इसमें राजस्थान के चितौड नरेश खुमण (ख़ुमान) द्वितीय के युद्धों का शिव वर्णन किया गया है ।इस ग्रंथ की प्रामाणिक हस्तलिपि पूना संग्रहालय में सुरक्षित है।यह पाँच हज़ार छंदों का एक विशाल ग्रंथ है ।इसमें समकालीन राजाओं के आपसी विवादों के बाद हुए एकता के साथ अब्बासिया वंश आलमामू ख़लीफ़ा ओर ख़ुमान के साथ हुए युद्ध का चित्रण मिलता है।इस कृति का प्रमुख प्रतिपाद्य विषय खुमार का चित्रांकन करना है ओर उसके चरित्र के दो प्रस्थान बिंदु हैं- एक युद्ध ओर दूसरा प्रेम ।खुमाण के प्रेम को दर्शाने के लिए कृतिकार ने विवाह, नायिका भेद, षडऋतुवर्णन का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। इसमें शृनगार ओर वीर दोनों रस प्रधान रहे हैं ।इसमें दोहा सवैया,कवित्त आदि विविध छंदों का सुचारु प्रयोग हुआ है।इसकी भाषा राजस्थानी हिंदी है।इसका भाषा सौंदर्य भाषा शैली की दृष्टि से यह सरल ओर सफल काव्य माना जाता है। इसकी सरल, सहज भाषा शैली का उदाहरण दृष्टव्य है-
“पिउ चितौड न आविऊ, सावण पहली तीज ।
जावे वाट विरहिणी खिण खिण अणवै खीज ।।
संदेसो पिऊ साहिबा प, पाछो फिरिय न देह ।
पंछी घाल्या पिंजरे, छूटण रो संदेह ।।”