अलंकार से तात्पर्य-
अलंकार में ‘अलम्’ और ‘कार’ दो शब्द हैं। ‘अलम्’ का अर्थ है-भूषण सजावट। अर्थात् जो अलंकृत या भूषित करे, वह अलंकार है। स्त्रियाँ अपने साज-श्रृंगार के लिए आभूषणों का प्रयोग करती हैं, अतएव आभूषण ‘अलंकार’ कहलाते हैं। ठीक उसी प्रकार कविता-कामिनी अपने श्रृंगार और सजावट के लिए जिन तत्वों का उपयोग-प्रयोग करती हैं, वे अलंकार कहलाते हैं। अत: हम कह सकते हैं कि काव्य के शोभाकारक धर्म अलंकार हैं। जिस प्रकार हार आदि अलंकार रमणी के नैसर्गिक सौंदर्य में चार-चाँद लगा देते हैं, उसी प्रकार अनुप्रास, यमक और उपमा आदि अलंकार काव्य के सौंदर्य की अभिवृद्धि करते हैं। वस्तुत: अलंकार वाणी के श्रृंगार हैं। इनके दव्ारा अभिव्यक्ति में अस्पष्टता, प्रभावोत्पादकता और चमत्कार आ जाता है।
अलंकार की परिभाषा:-
वे तत्व, जो काव्य की शोभा में वृद्धि करते हैं, अलंकार कहलाते हैं, “अलंकरोति इति अलंकार:” अलंकार का शाब्दिक अर्थ आभूषण या गहना है। काव्य की सुंदरता को बढ़ाने वाले धर्म काव्यांलकार कहलाते हैं। जिस प्रकार कोई कुरुप स्त्री अलंकारों को ग्रहण करके सुंदर नहीं बन जाती, उसी प्रकार रमणीयता के अभाव में अलंकारों को समूह किसी काव्य को प्रभावशाली व सजीव नहीं बना सकता।
काव्यलांकार के भेद
शब्दालंकार
अर्थालंकार
शब्दालंकार
शब्दालंकार की परिभाषा– जहाँ किसी कथन में विशेष शब्द-प्रयोग के कारण चमत्कार अथवा सौंदर्य आ जाता है, वहाँ शब्दालंकार होता हैं। अर्थात् काव्य के धर्म, जो शब्दों के प्रयोग से कविता में चमत्कार उत्पन्न करते हैं और उसके सौंदर्य में वृद्धि करते हैं शब्दालंकार कहलाते हैं,
जैसे:-
1. वह बाँसुरी की धुनि कानि परै, कुल-कानि हियो तजि भाजति है।
उपर्युक्त काव्य-पंक्तियों में कानि शब्द दो बार आया है। पहले शब्द कानि का अर्थ है कान और दूसरे शब्द कानि का अर्थ है मर्यादा। इस प्रकार एक ही शब्द दो अलग-अलग अर्थ देकर चमत्कार उत्पन्न कर रहा है। इस प्रकार का शब्द-प्रयोग ‘शब्दालंकार’ कहलाता हैं।
प्रमुख शब्दालंकार
अनुप्रास
परिभाषा- जहाँ किसी वर्ण अथवा वर्णों के समूह की दो या दो से अधिक आवृति हो, वहाँ अनुप्रास अलंकार होता है। अर्थात् जहाँ वर्णों की आवृत्ति से चमत्कार उत्पन्न हो, वहाँ अनुप्रास अलंकार होता हैं।
उदाहरण–
जैसे:-
- कंकन किंकिन नुपूर धुनि सुनि।
कहत लखन सन राम हृदय गुनि।।
- कल कानन कुंडल मोर पखा, उर पे बनमाल बिराजति है।
इस काव्य-पंक्ति में ‘क’ वर्ण की तीन बार और ‘ब’ वर्ण की दो बार आवृत्ति होने से चमत्कार आ गया है।
- महराज महा महिमा आपकी
स्पष्टीकरण- उक्त वाक्य में ‘म’ वर्ण की आवृति तीन बार हुई है।या जहाँ एक ही व्यंजन वर्ण की आवृत्ति एक या एकाधिक बार होती है। जिसके प्रभाव से काव्य में संगीतात्मक ध्वनि और झंकार उत्पन्न होती हैं।
अनुप्रास के मुख्य भेद
छेकानुप्रास, वृत्यनुप्रास, लाटानुप्रास
छेकानुप्रास
परिभाषा- जब किसी व्यंजन की एक बार निश्चित क्रम से आवृत्ति हो तो छेकानुप्रास अलंकार होता हैं।
जैसे-
करुणा-कलित हृदय में अब विकल रागिनी बजती।
इन हाहाकार स्वरों में वेदना असीमा गरजती।।
यहाँ ‘क’ वर्ण की एक बार आवृत्ति हुई है।
वृत्यनुप्रास
परिभाषा-एक व्यंजन वर्ण की एक ही क्रम से एकाधिक बार आवृत्ति होने पर वृत्यनुप्रास होता है।
उदाहरण-
तरनि-तनुजा-तट तमाल तरुवर बहु छाये।
यहाँ ‘त’ वर्ण की अनेक बार आवृत्ति हुई हैं।
लाटानुप्रास
परिभाषा-जहाँ ऐसे शब्द या वाक्य दोहराए जाए जिनका अर्थ तो एक हो, किन्तु अन्वय करने से उनका अभिप्राय भिन्न हो जाए वहाँ लाटानुप्रास होता हैं।
उदाहरण:-
पराधीन जो जन, नहीं स्वर्ग नरक ता हेतु।
पराधीन जो जन नहीं, स्वर्ग नरक ता हेतु।
अर्थात् जो मनुष्य पराधीन हैं उनके लिए स्वर्ग नहीं है, उनके लिए तो नरक ही होता है। (दूसरी पंक्ति जो मनुष्य पराधीन नहीं अर्थात् स्वतंत्र हैं उनके लिए नरक भी स्वर्ग के समान होता है।
यमक
परिभाषा- जहाँ एक शब्द की एक बार आवृत्ति हो, परन्तु अर्थ अलग-अलग निकलता हो, वहाँ यमक अलंकार होता हैं। अर्थात् जब एक ही शब्द दो या दो से अधिक बार आए और उसका अर्थ हर बार भिन्न हो तो वहाँ यमक अलंकार होता है।
उदाहरण-
• कहै कवि बेनी, बेनी ब्याल की चुराई लीनी,
रति-रति सोभा सब रति के सरीर की।
पहली पंक्ति में बेनी शब्द की आवृत्ति दो बार हुई है। पहली बार प्रयुक्त शब्द प्रयुक्त शब्द ‘बेनी’ कवि का नाम है तथा दूसरी बार प्रयुक्त ‘बेनी’ का अर्थ है ‘चोटी’ । इसी प्रकार दूसरी पंक्ति में प्रयुक्त रति शब्द तीन बार प्रयुक्त हुआ है। पहली बार प्रयुक्त रति-रति का अर्थ है ‘रत्ती’ के समान ज़रा-ज़रा सी और दूसरे स्थान पर प्रयुक्त ‘रति’ का अर्थ है- कामदेव की परम सुन्दर पत्नी ‘रति’ । इस प्रकार ‘बेनी’ और ‘रति’ शब्दों की आवृत्ति से चमत्कार उत्पन्न किया गया है।
• काली घटा का घमंड घटा, नभ मंडल तारक वृंद खिले।
उपर्युक्त काव्य-पंक्ति में शरद के आगमन पर उसके सौंदर्य का चित्रण किया गया है। वर्षा बीत गई है, शरद ऋतु आ गई है। काली घटा का घमंड घट गया है। घटा शब्द के दो विभिन्न अर्थ हैं-घटा -काले बादल और घटा-कम हो गया। घटा शब्द ने इस पंक्ति में सौंदर्य उत्पन्न कर दिया हैं।
• कनक-कनक ते सौसौगुनी, मादकता अधिकाय।
या खाय बौराय जग, वा पाये बौराय।
स्पष्टीकरण- यहाँ प्रथम ‘कनक’ का अर्थ धतूरा तथा दूसरे ‘कनक’ का अर्थ सोना हैं, अत: शब्द एक जैसे होने पर भी अर्थ भिन्न-भिन्न होने पर यमक अलंकार होता है।
श्लेष
परिभाषा – जहाँ एक शब्द के अनेक अर्थ निकले, वहाँ श्लेष अलंकार होता हैं। या जहाँ काव्य में प्रयुक्त किए जाने वाले किसी एक शब्द से एकाधिक अर्थ व्यक्त हों जिससे काव्य में चमत्कार उत्पन्न हो जाए। ‘श्लेष’ शब्द का अर्थ है चिपकना। श्लेष अलंकार में एक ही शब्द के से दो अर्थ चिपके हुए होते हैं अर्थात जहाँ एक शब्द एक ही बार प्रयुक्त होने पर दो अर्थ दे वहाँ श्लेष अलंकार होता है।
उदाहरण-
मगन को देखि पट देत बार-बार है। ′
इस काव्य-पंक्ति में ‘पट’ के दो अर्थ हैं:- (क) वस्त्र, (ख) किवाड़।
पहला अर्थ है- वह व्यक्ति किसी याचक को देखकर उसे बार-बार ‘वस्त्र’ देता है और दूसरा अर्थ है- वह व्यक्ति याचक को देखते ही दरवाजा बंद कर लेता है। ।
रहिमन पानी राखिये, बिना पानी सब सून।
पानी गये न ऊबरे मोती, मानुष चून।।
स्पष्टीकरण- यहाँ ‘पानी’ शब्द के तीन अर्थ हैं मोती के रूप में ‘चमक’ मनुष्य के रूप में ‘इज्जत’ तथा चुने के रूप में ‘जल’ हैं।
वक्रोक्ति
परिभाषा – जहाँ बात को टेढ़ा (वक्र) करके कहा जाए अर्थात् वक्ता दव्ारा कहे गये शब्द का अर्थ श्रोता दूसरे किसी रूप में ले अथवा वक्ता दव्ारा कहे गये किसी कथन में प्रत्यक्ष अर्थ के अतिरिक्त किसी भिन्न अर्थ की कल्पना की जाये, वहाँ वक्रोक्ति अलंकार होता हैं।
उदाहरण–
” को तुम? हरि प्यारी! कहा वानर को पुर काम?
‘स्याम’ सलौने स्याम ‘कपि’ ? क्यौ न डरे तक वाम।।”
स्पष्टीकरण- उदाहरण में हरि कृष्ण अर्थ वानर तथा पुन: श्याम (कृष्ण) का अर्थ काला लगाया गया हैं।
अन्य शब्दालंकार
वीप्सा
परिभाषा – जहाँ किसी आकस्मिक भाव को प्रकट करने के लिए एक शब्द को अनेक बार दोहराया जाता हैं, वहाँ वीप्सा अलंकार होता है।
उदाहरण-
अमर्त्य वीर पुत्र हो,
दृढ़ प्रतिज्ञा सोच लो,
प्रशस्त पथ है,
बढ़े चलो बढ़े चलो।
स्पष्टीकरण- यहाँ ‘बढ़े चलो बढ़े चलो’ का प्रयोग हैं।
पुनरुक्ति प्रकाश
परिभाषा – जहाँ भावों को सुशोभित करने के लिए एक शब्द की एक या अधिक बार आवृत्ति हो, वहाँ पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार होता है।
उदाहरण-
हमारा जन्मों जन्मों का साथ है जो हमेशा हमेशा रहेगा।
स्पष्टीकरण- यहाँ ‘जन्मों जन्मों’ तथा ‘हमेशा-हमेशा’ शब्दों की पुनरावृत्ति के कारण पुनरूक्ति प्रकाश अलंकार है।
पुनरुक्तवदाभास
परिभाषा -जहाँ दो शब्दों के अर्थ में पुनरुक्ति का मात्र आभास हो परन्तु वहाँ पुनरुक्ति न होकर ये भिन्न-भिन्न अर्थों में प्रयुक्त हुए हो।
उदाहरण-
सुमन फूल खिल उठे, लाखों मानस के मन में।
स्पष्टीकरण- यहाँ ‘सुमन तथा फूल’ एवं मानस तथा समान अर्थ को वहन करते हुए प्रतीत होते हैं परन्तु यहाँ वे भिन्नार्थ में प्रयुक्त हुए हैं। ‘सुमन’ का अर्थ फूल ‘फूल’ अर्थ खिलना ‘मानस’ का अर्थ मानसरोवर तथा ‘मन’ का अर्थ है मन।
अर्थालंकार
परिभाषा -कवि जब वर्ण्य (जिस वस्तु का वर्णन करना हो) वस्तु के किसी गुण या विशेषता को गहनता से अनुभव करता है तो वह अप्रस्तुत का विधान करता है और अपने कथ्य को प्रभावशाली ढंग से और स्पष्टता के साथ प्रस्तुत करता है। किसी का सुंदर मुख देखकर ‘मुख सुंदर है’ कहने से उसकी विशेषता का आभास नहीं होता। उसके लिए कवि जब कहता है ‘मुख कमल के समान सुंदर है’ अथवा ‘मुख चाँद जैसा लगता है’ तो उसका प्रभाव बढ़ जाता है। इस प्रकार अप्रस्तुत का विधान अर्थालंकार के माध्यम से किया जाता है। इससे अर्थ में समृद्धि उत्पन्न होती है। हजारी प्रसाद दव्वेदी का कहना है कि अर्थालंकार उस वक्तव्य को प्रगाढ़ भाव से अनुभव करने में सहायक होते हैं। अर्थात् जहाँ कथन-विशेष में सौंदर्य अथवा चमत्कार विशिष्ट शब्द-प्रयोग पर आश्रित न होकर अर्थ की विशिष्टता के कारण आया हो, वहां अर्थालंकार होता है।
जैसे:-
‘मखमल के झूल पड़े हाथी -सा टीला’
इस काव्य-पंक्ति में वंसत के आगमन पर उसकी सज-धज और शोभा की सादृश्यता किसी महंत की सवारी के साथ करते हुए चमत्कार उत्पन्न किया गया है।
उपमा अर्थालंकार
परिभाषा -जहाँ किसी वस्तु की तुलना किसी प्रसिद्ध वस्तु से की जाए, वहाँ उपमा अलंकार होता है, या जहाँ दो वस्तुओं में समानता का भाव व्यक्त किया जाता है। अर्थात् अत्यंत सादृश्य के कारण सर्वथा भिन्न होते हुए भी जहाँ एक वस्तु या प्राणी की तुलना दूसरी प्रसिद्ध वस्तु या प्राणी से की जाती है, वहाँ उपमा अलंकार होता है।
उपमा के चार अंग है। उपमेय, उपमान, साधारण धर्म, वाचक शब्द जहाँ ये चारों अंग विद्यमान हो, वहाँ पूर्णापमा अलंकार होता है।
उदाहरण- “पीपर पात सरिस मन डोला” ।
स्पष्टीकरण– मन उपमेय, पीपर पात उपमान, डोला साधारण धर्म तथा सरिस वाचक शब्द हैं।
• उपमेय– जिस वस्तु या व्यक्ति की उपमा या तुलना की जाए उसे उपमेय कहते हैं। उपमा (तुलना) करने योग्य होने के कारण इसे उपमेय कहा जाता है। उपमेय को प्रस्तुत या वर्ण्य भी कहते हैं।
• उदाहरण- ‘मुख चन्द्रमा के समान सुंदर है।’
• इस वाक्य में मुख की सुंदरता देखकर उसे उपमा देने योग्य माना गया। अत: मुख को उपमेय कहा जाता है।
• उपमान- वह प्रसिद्ध वस्तु या प्राणी जिसके साथ उपमेय की तुलना की जाती है, उसे उपमान कहते हैं। इसे अप्रस्तुत या अवर्ण्य भी कहा जाता है। ऊपर दिए हुए उदाहरण में चंद्रमा उपमान है।
• साधारण धर्म– वह समान गुण जो उपमेय और उपमान में समान रूप से पाया जाता है। साधारण धर्म कहलाता है। प्रस्तुत उदाहरण में सुंदर साधारण धर्म है।
• वाचक शब्द– जिन शब्दों के दव्ारा उपमेय और उपमान में पाया जाने वाला समान प्रसंग प्रकट किया जाता है अर्थात् जिन शब्दों की सहायता से उपमा अलंकार की पहचान होती है। जैसा, समान, भाँति, तुल्य, ज्यों, सम, सा, सी, सरिस आदि शब्द वाचक शब्द होते हैं।
अन्य उदाहरण में -हाय फूल -सी कोमल बच्ची हुई राख की थी ढेरी।
तीन प्रकार की उपमा
पूर्णोपमा और लप्तोपमा, मालोपमा
1 पूर्णोपमा-जहाँ उपमा के चारों अंग-उपमेय, उपमान, साधारण धर्म व वाचक शब्द-विद्यमान हों।
उदाहरण-
′ प्रात नभ था बहुत नीला शंख जैसे ′ ।
उपर्युक्त काव्य-पंक्ति में प्रात: कालीन नभ उपमेय है, शंख उपमान है, नीला साधारण धर्म है और जैसे वाचक शब्द हैं। यहाँ उपमा के चारों अंग उपस्थित हैं; अतएव यहाँ पूर्णोपमा अलंकार है।
लीन गगन-सा शांत हृदय था हो रहा।
यहाँ उपमेय (हृदय) उपमान (नील गगन) साधारण धर्म (शांत) वाचक शब्द (सा) ये चारों अंग विद्यमान हैं। अत: यहाँ पूर्णोपमा अलंकार हैं।
2 लुप्तोपमा- उपमा का दूसरा भेद लुप्तोपमा कहलाता है। इसमें उपमा के अंगों- उपमेय, उपमान, साधारण धर्म व वाचक शब्द में से एक या दो अंग विद्यमान न हों, वहाँ लुप्तोपमा अलंकार होता है।
उदाहरण:-
‘मखमल के झूल पड़े, हाथी-सा टीला’ ।
उपर्युक्त काव्य-पंक्ति में टीला उपमेय है, मखमल के झूल पड़े हाथी उपमान है, सा वाचक है; किन्तु इसमें साधारण धर्म नहीं है। वह छिपा हुआ है। यहाँ विशाल जैसा कोई साधारण धर्म लुप्त है; अतएव इस प्रकार की उपमा का प्रयोग लुप्तोपमा अलंकार कहलाता है।
3 मालोपमा- जहाँ एक उपमेय के लिए अनेक उपमान (या उपमानों की माला) प्रस्तुत की जाए वहाँ मालोपमा अलंकार होता हैं।
उदाहरण:-
′ काम-सा रूप, प्रताप दिनेश-सा
सेम-सा शील है राम महीप का ′ ।
उपर्युक्त उदाहरण में राम उपमेय है, किन्तु उपमान, साधारण धर्म और वाचक तीन हैं- इस प्रकार जहाँ उपमेय एक और उपमान अनेक हों, वहाँ मालोपमा अलंकार होता हैं। ‘मालोपमा’ होते हुए भी यह पूर्णोपमा है क्योंकि यहाँ उपमा के चारों तत्व विद्यमान हैं।
रुपक
परिभाषा – जब उपमेय में उपमान में कोई भेद अर्थात् जब उपमेय पर उपमान का आरोप कर दिया अर्थात् जहाँ गुण की अत्यंत समानता के कारण उपमेय में ही उपमान का अभेद आरोप कर दिया गया हो, वहाँ रूपक अलंकार होता हैं। रूपक में उपमेय और उपमान दोनों की एकरूपता दिखाई जाती है। दूसरे शब्दों में उपमेय का उपमान के साथ अभेद दिखाया जाता हैं।
• उदाहरण–चरण कमल बन्दौ हरिराई।
स्पष्टीकरण- यहाँ चरण (उपमेय) पर कमल (उपमान) का आरोप किया गया हैं।
• उदित उदयगिरि-मंच पर, रघुवर बाल-पतंग।
विकसे संत-सरोज सब, हरषे लोचन-भृंग।।
प्रस्तुत दोहे में उदयगिरि पर ‘मंच’ का, रघुवर पर ‘बाल-पतंग’ (सूर्य) का, संतो पर ‘सरोज’ का एवं लोचनों पर ‘भृंगों’ (भौरों) का अभेद आरोप होने से रूपक अलंकार है।
• विषय-वारि मन-मीन भिन्न नहिं होत कबहूँ पल एक।
• इस काव्य-पंक्ति में विषय पर ‘वारि’ का और मन पर ‘मीन’ (मछली) का अभेद आरोप होने से रूपक का सौंदर्य है।
• ‘मन-सागर, मनसा लहरि, बूड़े-बहे अनेक।’
• प्रस्तुत पंक्ति में मन पर सागर का और मनसा (इच्छा) पर लहर का आरोप होने से रूपक अलंकार है।
• शशि -मुख पर घूँघट डाले अंचल में दीप छिपाए।
यहाँ मुख उपमेय में शशि उपमान का अरोप होने से रूपक अलंकार का चमत्कार है।
रूपक अलंकार के दो भेद
निरंग रूपक, सांग रूपक
निरंग रूपक–आज तो इस भवन-गगन में मुख चंद्र द्योतित है। यहाँ भवन उपमेय पर गगन उपमान तथा मुख उपमेय पर चंद्र उपमान का आरोप हुआ हैं।
सांग रूपक–यहाँ उपमेय पर उपमान का अंग सहित आरोप होता है।
उदाहरण-
उदित उदयगिरि मंच पर रघुवर बाल पंतग।
बिकसे संत ससेज सब हर्षित लोचन भृंग।।
कवि ने शिव धनुष के भंग के अवसर पर श्रीराम के मंच पर आगमन का दृश्य चित्रित किया है। कवि कहना चाहता है कि मंच पर राम को देखकर संतजन को अत्यंत हर्ष हुआ। उदय पर्वत पर मंच, सूर्य पर भगवान राम, संत और सरोज (कमल) नेत्र और भौरे का अभेद भाव दिखाते हुए सांगोपांग वर्णन किया गया है। यह सांग रूपक का सुंदर उदाहरण है।
अन्वय अर्थालंकार
परिभाषा – जहाँ उपमेय को ही उपमान बना दिया जाये अथवा जहाँ उपमेय के समान कोई अन्य उपमान न मिले वहाँ अन्वय अलंकार होता है।
उदाहरण-
अब यद्यपि दुर्बल भारत हैं
पर भारत के सम भारत है।।
स्पष्टीकरण- भारत (उपमेय) के लिए कोई उपमान नहीं दिखाई देता है इसलिए भारत (उपमेय) को ही भारत (उपमान) बिना दिया गया हैं।
व्यतिरेक अर्थालंकार
परिभाषा – जहाँ उपमेय को उपमान से श्रेष्ठ बताकर उपमान का अनादर किया जाये, वहाँ प्रतीत अलंकार होता है।
उदाहरण-
राधा मुख को चन्द्र सा, कहते हैं मतिरंक।
निष्कलंक हैं वह सदा, उसमें प्रकट कलंक।
स्पष्टीकरण- यहाँ राधा के मुख (उपमेय) को चन्द्रमा (उपमान) से श्रेष्ठ मानकर चन्द्रमा (उपमान) का अनादर यह कह कर दिया गया है कि उसमें ग्रहण लगता है और राधा के मुख पर नहीं।
प्रतीप अर्थालंकार
परिभाषा-जहाँ उपमान की उपमेय से समानता की जाये। यह उपमा के बिल्कुल विपरीत अलंकार है। जहाँ प्रसिद्ध उपमान को उपमेय मान लिया जाता है। इस प्रकार उपमेय को उपमान की अपेक्षा अधिक महत्व दिया जाता हैं।
उदाहरण-
मुख से विश्व प्रकाशित होता,
तब क्या काम चन्द्रमा का?
स्पष्टीकरण- यहा चन्द्रमा (उपमान) की मुख (उपमेय) से समानता की गई हैं।
भ्रांतिमान अर्थालंकार
परिभाषा- इसमें वर्ष्य-वस्तु के साम्य रखने के कारण किसी वस्तु को कुछ और ही मान लिया जाता है, भ्रम का स्वरूप निश्चयात्मक होता है, अर्थात जहाँ अत्यधिक समानता के कारण उपमेय में किसी अन्य वस्तु का भ्रम हो जाए वहाँ भ्राँतिमान अलंकार होता है।
उदाहरण-
काले बादलों से केश उसके बिलोक जब,
मोर नाचते हैं वह फूली न समाती है।
स्पष्टीकरण- यहाँ केश (उपमेय) में बादल (उपमान) का भ्रम हुआ है।
संदेह अर्थालंकार
परिभाषा – उपमेय और उपमान को जब समानता हो और निश्चय न हो पाये कि वास्तव में क्या है अर्थात् वस्तुस्थिति का निर्धारण न हो सके तो वहाँ संदेह अलंकार होता है।
उदाहरण-
भीम थे या था क्रोध कठोर?
गिरा थी उनकी कै घनछोर?
स्पष्टीकरण- उक्त उदाहरण में (उपमेय) और क्रोध कठोर (उपमान) में घनिष्ट समानता के कारण वस्तुस्थिति का निर्धारण नहीं हो सकता हैं।
उत्प्रेक्षा अर्थालंकार
परिभाषा – जहाँ उपमेय में उपमान की संभावना दिखाई दे अर्थात् जहाँ उपमेय में उपमान की संभावना अथवा कल्पना कर ली गई हो, अर्थात् जहाँ उपमेय में उपमान की संभावना अथवा कल्पना कर ली गई हो, वहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार होता है। मनु, जनु, मानो इत्यादि इसके वाचक शब्द हैं।
उदाहरण–
चमचमात चंचल नयन, बिच घूँघट पट छीन।
मनहु सुरसरिता विमल, जल उछरत जुग मीन।।
यहाँ झीने घूँघट में सुरसरिता के निर्मल जल की और चंचल नयनों में दो उछलती हुई मछलियों की अपूर्व संभावना की गई है। उत्प्रेक्षा का यह सुन्दर उदाहरण है।
सोहत औढे पीतु पटु, स्याम सलोने गात।
मनो नीलमणि सैल पर, आतप परयो प्रभात।।
स्पष्टीकरण- यहाँ पीले वस्त्र (उपमेय) में सूर्य की धूप (उपमान) की संभावना व्यक्त की गई है। मानो दव्ारा संभावना व्यक्त की गई है।
दृष्टांत अर्थालंकार
परिभाषा – जहाँ उपमेय और उपमान बिम्ब प्रतिबिम्ब रूप से चित्रित हों, वहाँ दृष्टांत अलंकार होता है।
उदाहरण-
बूंद आघात सहै गिरि कैसे।
खल के बचन संत सह जैसे।
स्पष्टीकरण– यहाँ खल (उपमेय) तथा बूंद (उपमान) एवं संत (उपमेय) तथा गिरि (उपमान) बिम्ब -प्रतिबिम्ब रूप से चित्रित हुए हैं।
विशेषोक्ति अर्थालंकार
परिभाषा – विभावना का उल्टा विशेषोक्ति अलंकार होता है अर्थात जहाँ प्रबल कारण होते हुए भी कार्य की सिद्धि न हो, वहाँ विशेषाक्ति अलंकार होता हैं।
उदाहरण-
देखो दो-दो मेघ बरसते,
मैं प्यासी की प्यासी।
स्पष्टीकरण- यहाँ दो-दो मेघ बरसते हुए भी (प्रबल कारण होते हुए भी) नायिका की प्यास (कार्य की सिद्धि) नहीं बुझ पा रही है।
विभावना अर्थालंकार
परिभाषा – जहाँ कारण के बिना ही कार्य सिद्धि हो जाये, वहाँ विभावना अलंकार होता है।
उदाहरण-
बिनु पद चलै, सुनै बिनु काना।
कर बिनु, करम, करै विधि नाना।
स्पष्टीकरण- यहाँ पांव के न होते हुए भी चलने तथा हाथ न होते हुए भी कर्म करने (कारण न होते हुए भी) की बात कही गई हैं।
असंगति अर्थालंकार
परिभाषा – जहाँ कारण कहीं और हो परन्तु उसका कार्य वहाँ न होकर कहीं और हो, वहाँ असंगति अलंकार हैं।
उदाहरण-
दृग उरझत, टूटत कुटुम, जुरत चतुर चित प्रीति।
परमि गांठि दुरजन हिये, दई नई यह रीति।।
स्पष्टीकरण – यहाँ दृग उरझत (प्रेम होना) दिखाया गया है परन्तु उसका कार्य (परिवार टूटना, दुर्जनों के हृदय पर गांठ पड़ना) कहीं और होते हुए दिखाया गया है।
उल्लेख अर्थालंकार
परिभाषा -जहाँ एक व्यक्ति या अनेक व्यक्तियों के दव्ारा अलग-अलग प्रकार से प्रस्तुत का वर्णन किया जाए। अर्थात जहाँ किसी वस्तु के अनेक रूपों का वर्णन या उल्लेख किया गया हों, वहाँ उल्लेख अलंकार होता है।
उदाहरण-
रूप-लेखा, गुन-जाति-जुगति बिनु निरालंब कित धावै।
सब निधि अगम विचारहि तातै सूर सगुन-पद गावै।
स्पष्टीकरण- यहाँ ईश्वर के विभिन्न रूपों का वर्णन किया गया है।
संसुष्टि अर्थालंकार
परिभाषा – जहाँ दो या दो से अधिक अलंकार तिल और चावल के समान परस्पर मिले हुए दिखाये जायें, वहाँ संसुष्टि अलंकार होता है।
उदाहरण-
सोहत जनु जुग जलज सनाला।
ससिहि सभीत देत जय माला।
स्पष्टीकरण- यहाँ उपमा, उत्प्रेक्षा तथा अनुप्रास अलंकारों को तिल-चावल की भांति परस्पर मिले हुए दिखाया गया है।
दीपक अर्थालंकार
परिभाषा – जिस प्रकार एक स्थान पर रखा हुआ दीपक अनेक वस्तुओं को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार कोई एक वस्तु, व्यक्ति या क्रिया जब प्रस्तुत और अप्रस्तुत में एक ही धर्म (गुण) को प्रकाशित करती है तब दीपक अलंकार होता है।
उदाहरण-
रहिमन पानी राखिए, बिनुपानी सब सून।
पानी गए न ऊबरे, मोती मानुस चून।।
स्पष्टीकरण- यहाँ मानुष (मनुष्य) से पानी बनाए रखने का आग्रह किया गया हैं। इसलिए मनुष्य प्रस्तुत है मोती तथा चून अप्रस्तुत हैं। प्रस्तुत मनुष्य और अप्रस्तुत मोती तथा चुन का एक ही साधारण धर्म (पानी रखना) प्रकट किया गया है।
व्याज स्तुति अर्थालंकार
परिभाषा – जहाँ प्रशंसा के बहाने निंदा तथा निदां के बहाने प्रशंसा की जाती है, वहाँ व्याज स्तुति अलंकार होता हैं
उदाहरण-
राज-भोग से तृप्त न होकर मानो वे इस बार।
हाथ पसार रहे हैं जाकर जिसके-जिसके दव्ार।।
छोड़कर जिन कुल और समाज।
स्पष्टीकरण- यशोधरा की इस उक्ति में महाबुद्ध के प्रति ‘हाथ पसार रहे हैं जाकर जिसके-जिसके दव्ार’ कहकर निदां की प्रतीति होती है। परन्तु वास्तव में उनके राज भोग का त्याग कर लोकसेवा भाव की स्तुति की गई है।
अपन्हुति अलंकार
परिभाषा -अपन्हुति का शाब्दिक अर्थ है- ‘छिपाना’ या ‘मना करना’ । जहाँ प्रस्तुत वस्तु (उपमेय) का निषेध करके किसी दूसरी अप्रस्तुत वस्तु (उपमान) की प्रतिष्ठा की जाए, वहाँ अपन्हुति अलंकार होता है।
उदाहरण-
नहिं सखि! राधा-बदन यह, है पूनो का चाँद।
स्पष्टीकरण- यहाँ राधा के मुख का निषेध करके उसे चाँद बताया गया है।
अर्थान्तरन्यास अलंकार
परिभाषा -जहाँ सामान्य कथन द्वारा विशेष का एवं विशेष कथन दव्ारा सामान्य कथन का समर्थन किया जाए, वहाँ अर्थांतरन्यास अलंकार होता है।
उदाहरण-
जो रहीम उत्तम प्रकृति का करि सकत कुसंग।
चंदन विषव्यापत नहीं, लपटे रहत भुजंग।।
स्पष्टीकरण- यहाँ पूर्वाद्ध में सामान्य कथन प्रस्तुत किया गया है उत्तरार्द्ध में उसका समर्थन किया गया है।
विरोधाभास अलंकार
परिभाषा -जहाँ कारण के विरूद्ध कार्य की कल्पना हो। यहाँ कथनीय में वास्तव में विरोध नहीं होता, किन्तु विरोध-सा प्रतीत होता है।
उदाहरण-
या अनुरागी चित्त की, गति समुझै नहिं कोय।
ज्यों-ज्यों बूड़ै स्याम रंग, त्यों-त्यों उज्जवल होय।।
स्पष्टीकरण- यहाँ श्याम रंग में डूबने पर अधिकाधिक उज्जवल होने में विरोधाभास अलंकार हैं।
स्वभावोक्ति अलंकार
परिभाषा -जहाँ किसी स्थान, व्यक्ति या वस्तु के स्वभाव का चमत्कारपूर्वक वर्णन किया जाए।
उदाहरण-
भोजन करतहिं चपल चित्त, इत-उत अवसर पाय।
भागि चलत किलकात मुख, दधि ओदन लपटाय।।
स्पष्टीकरण- बाल श्रीराम के भोजन करते समय का स्वाभाविक चित्रण इस दोहे में देखने को मिलता हैं। उनकी चपलता, इधर-उधर भागना, किलकारी मारना और मुख का दही-भात से सना होना आकर्षक है।
यथासंख्य अलंकार
परिभाषा -जहाँ जिस क्रम से कुछ वस्तुओं का वर्णन किया जाता है, उसी क्रम से उनसे संबंधित विशेषताओं का भी वर्णन किया जाए। इसे क्रम अलंकार भी कहते हैं।
उदाहरण-
नीचे जल था ऊपर हिम था,
एक तरल था एक सघन।
स्पष्टीकरण- यहाँ जल और बर्फ का उल्लेख करके उसकी विशेषताओं का-तरलता और सघनता-का उसी क्रम में वर्णन किया गया है।
परिसंख्य अंलकार
परिभाषा -जहाँ किसी वस्तु के दोषपूर्ण स्थानों में स्थिति का निषेध करके सुरक्षित स्थानों में उसकी विद्यमानता का उल्लेख किया जाता है।
उदाहरण-
नृपति राम के राज में, हैं न सूल दुख मूल।
लखियत चित्रनु में लिखे, संकर के कर सूल।।
दो अन्य अलंकार-अतिशयोक्ति व अन्योक्ति अलंकार
अतिशयोक्ति
परिभाषा -जहाँ किसी वस्तु, पदार्थ अथवा कथन (उपमेय) का वर्णन लोक-सीमा से बढ़ाकर प्रस्तुत किया जाए अर्थात जहाँ किसी वस्तु का बढ़ा चढ़ाकर वर्णन किया जाये, वहाँ अतिशयोक्ति अलंकार होता हैं।
उदाहरण-
भूप सहस दस एकहिं बारा। लगे उठावन टरत न टारा।।
स्पष्टीकरण- धनुर्भंग के समय दस हजार राजा एक साथ ही उस धनुष (शिव-धनुष) को उठाने लगे, पर वह तनिक भी अपनी जगह से नहीं हिला। यहाँ लोक-सीमा से अधिक बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन किया गया है, अतएव अतिशयोक्ति अलंकार है।
चंचला स्नान कर आए, चंद्रिका पर्व में जैसे।।
उस पावन तन की शोभा, आलोक मधुर थी ऐसे।।
स्पष्टीकरण- नायिका के रूप-सौंदर्य का यहाँ अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन किया गया है।
हनुमान की पूंछ में लगन न पाई आग,
लंका सगरी जरि गई, गये निशाचर भाग।।
स्पष्टीकरण- यहाँ लंकन दहन का वर्णन बहुत बढ़ा चढ़ाकर किया गया है।
अन्योक्ति
परिभाषा – अन्य पर कही गई बात अन्योक्ति कही जाती है अर्थात् जहाँ अप्रस्तुत (उपमान) दव्ारा प्रस्तुत (उपमेय) का वर्णन किया जाए तो वहाँ अन्योक्ति अलंकार होता है।
उदाहरण-
नहिं पराग नहिं मधुर मधु नहिं विकास इहि काल।
अली कली ही सौं विंध्यो, आगे कौन हवाल।।
स्पष्टीकरण- यहाँ भंवरे और कलि (प्रस्तुत) के माध्यम से राजा जयसिंह (अप्रस्तुत) का बोध कराया गया है।
समासोक्ति अर्थालंकार
परिभाषा – जहाँ उपमेय का वर्णन इस प्रकार किया जाय कि उसमें अप्रस्तुत का भी ज्ञान हो, या परन्तु व्यंजना से अप्रस्तुत की अभिव्यक्ति हो तब समासोक्ति अलंकार होता है।
उदाहरण-
कुमुदिनि प्रमुदित भाई सांस,
कलानिधि जाये।
स्पष्टीकरण- यहाँ शाम को चन्द्रमा के उदय होने से कुमुदिनियों के खिलने की बात (प्रस्तुत) का बोध किसी नवोढ़; को अपने पति के शाम को घर पर आने (अप्रस्तुत) के माध्यम से कराया गया हैं।
मानवीकरण
परिभाषा –जहाँ अचेतन वस्तु का चेतन अथवा प्राणवान जीव (मनुष्य) के समान वर्णन किया जाए। जब प्रकृति के पदार्थों पर मानवीय क्रियाकलापों का आरोप कर दिया जाये अथवा प्रकृति के पदार्थों को मानव की भांति कार्य करते हुए दिखाया जाये, वहाँ मानवीकरण अलंकार होता है।
उदाहरण-
बीती विभावरी जाग री।
अंबर पनघट में डुबो रही तारा घट उषां नागरी।
स्पष्टीकरण- ‘उषां’ पर ‘नागरी’ का आरोप होने के कारण मानवीकरण अलंकार है।
प्रकृति के यौवन का श्रृंगार,
करेंगे कभी न बासी फूल।
स्पष्टीकरण- यहाँ प्रकृति को ऐसी नवयुवती के रूप में चित्रित किया गया है जो अपनी युवावस्था को स्वच्छ और ताजे फूलों से सजाती है।
विशेषण-विपर्यय अलंकार
परिभाषा –जहाँ किसी वस्तु का विशेषण उससे संबंधित दूसरी वस्तु में विशेष अर्थ से संबंधित करने में प्रयुक्त किया जाता है, वहाँ विशेषण -विपर्यय अलंकार होता है।
उदाहरण-
इस करुणा कलित हृदय में,
अब विकल रागिनी बजती।
स्पष्टीकरण- यहाँ ‘विकल’ शब्द हृदय का विशेषण है परन्तु उसे रागिनी का विशेष बनाकर प्रयुक्त किया गया है।
ध्वन्यर्थ व्यंजना अलंकार
परिभाषा –ध्वनि का अनुकरण करने वाली वर्णयोजना का प्रयोग करके इष्ट स्थिति की व्यंजना की जाती है। जहाँ किसी वस्तु का ध्वनि चित्र चित्रित किया गया हो, वहाँ ध्वन्यर्थ व्यंजना अलंकार होता हैं।
उदाहरण-
चरर-मरार चूं, चरर-मरर
जा रही चली देखों भैंसा गाड़ी।
स्पष्टीकरण- यहाँ गाड़ी के चलने से उत्पन्न ध्वनि चित्र (चर-मरर चूं) को चित्रित किया गया है।
प्रमुख अलंकारों में अंतर
(क) यमक और श्लेष-यमक अलंकार में एक शब्द अनेक बार प्रयुक्त होता है और हर बार उसका अर्थ भिन्न होता है, लेकिन श्लेष में शब्द एक बार ही प्रयुक्त होता है लेकिन उसके विभिन्न अर्थ निकलते हैं;
उदाहरण:-
यमक-
कनक कनक तै सौगुनी, मादकता अधिकाय।
व खाए बौराय जग, या पाए बौराय।।
यहाँ कनक शब्द दो बार दोहराया गया है। लेकिन दोनों बार अर्थ भिन्न-भिन्न हैं। इसका एक जगह अर्थ निकलता है ‘सोना’ और दूसरी जगह ‘धतूरा’
श्लेष–
रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून।
पनी गए न ऊबरै, मोती मानुस चून।।
यहाँ पानी शब्द में श्लेष है। पानी का अर्थ मोती के संदर्भ में चमक, मानुस के संदर्भ में इज्जत तथा चून के संदर्भ में जल है।
(ख) उपमा और रूपक:- उपमा में उपमेय और उपमान में समानता दिखाई देते है, जबकि रूपक में उपमेय तथा उपमान को एक मान लिया जाता है; जैसे
उपमा-मुख चंद्रमा के समान सुन्दर हैं।
रूपक– मुख चंद्रमा है।
(ग) उपमा और उत्प्रेक्षा- उपमा में उपमेय और उपमान में समानता दिखाई देती है, जबकि उत्प्रेक्षा में उपमेय में उपमान की संभावना की कल्पना की जाती है; जैसे
उपमा-मुख चंद्रमा के समान सुन्दर हैं।
उत्प्रेक्षा– मुख मानो चंद्रमा है।